१०० कौरवों के जन्म की कथा को एक वैज्ञानिक दृष्टि reference के साथ !
भीष्म पितामह द्वारा ब्रह्मचर्य पालन तथा वैराग्य धारण का उपदेश युधिष्ठिर के समक्ष दिया गया है जिसके अनुसार, हृदय के मध्य में मनोवहा नाम की नाड़ी है, जो पुरूष के काम सम्बन्धित सङ्कल्प के द्वारा सारे शरीर से वीर्य को खींचकर बाहर निकाल देती है। उस नाड़ी के पीछे चलने वाली और सम्पूर्ण शरीर में फैली हुई अन्य नाड़ियाँ तेजस गुण (रूप ग्रहण) की शक्ति के साथ नेत्रों तक पहुंचती है।
🔹महाभारत तथा प्रजनन विज्ञान
जीवधारी के शरीर में अनेक परिवर्तन होते रहते हैं। जिस प्रकार मनुष्य के शरीर में श्वसन क्रिया, उत्सर्जन क्रिया, पाचन क्रिया आदि निरन्तर होती रहती है, उसी प्रकार जनन क्रिया भी कार्य करती है। इस क्रिया द्वारा शिशु का जन्म होता है और पीढ़ी-दर-पीढ़ी यह प्रक्रिया चलती रहती है। प्रजनन विज्ञान का मानव जीवन में विशेष महत्व है। सृष्टि के संचालन हेतु गृहस्थाश्रम में प्रजनन क्रिया द्वारा मनुष्य शिशु को जन्म देता है। यह निरन्तर चलने वाली क्रिया है। अतः प्रजनन विज्ञान में जनन तंत्र के समस्त अङ्गों तथा उनकी क्रियाओं का अध्ययन किया जाता है।
प्राचीन वैदिक ग्रन्थों में प्रजनन विज्ञान से सम्बन्धित अनेक उल्लेख मिलते हैं जो इस बात को प्रमाणित करते हैं कि प्राचीन काल में प्रजनन विज्ञान अत्यन्त विकसित था जैसे मनोवाञ्छित सन्तान प्राप्ति के सन्दर्भ में अथर्ववेद में वर्णन मिलता है,' सन्तानोत्पत्ति में गर्भ का समय निर्धारित करते हुए ऋग्वेद में वर्णन मिलता है आदि। अतः यह अनुमान लगाया जा सकता है कि प्राचीन वैदिक ऋषियों ने अपने प्रज्ञाचक्षुओं के द्वारा ज्ञान-विज्ञान के अपरिमित भण्डार को वेदों में आलोकित किया है। इसी परम्परा का अनुसरण करते हुए महर्षि वेदव्यास ने महाभारत में प्रजनन विज्ञवन का विस्तृत तथा गूढ उल्लेख कथानक को स्पष्ट करते हुए किया है।
प्रजनन-महत्ता प्राचीन काल से ही सृष्टि के संचालन के सन्दर्भ में प्रजनन-विज्ञान का विशेष महत्व माना गया है।
प्रजापतिरनुमतिः सिनीवाल्य चीक्लृपत्। स्त्रैषूयमन्यत्र दधत् पुमौसमु दधदिह ।।
अथर्व. वे. 6.11.3
2 दश् मासोछशयानः कुमारो अधि मातरि।
निरैतु जीवो अक्षतो जीवो जीवन्त्या अधि ।। ऋ. वे. 5.78.9
* तां पूषञ्छिवतेमामेरयस्व् यस्याँ बीजं मनुष्याइ वपन्ति । या ने ऊरू उशती विश्रयोते यस्योमुशन्तः पहराम् शेपम्। ऋ. वे. 10.85.37
महर्षि वेद व्यास ने भी महाभारत में प्रजनन विज्ञान के महत्व का उल्लेख अनेक सन्दभों में है उनके अनुसार व्यक्ति को सन्तानोत्पत्ति हेतु संयम-नियम आदि का पालन करना चाहिए। आज के युग में मनुष्य संयम-नियम आदि को नहीं मानता है वह अपनी काम-पिपासा को शान्त करने के लिए अनुचित मार्ग अपनाता है महाभारत काल में प्रजनन विज्ञान के सन्दर्भ में संयम-नियम का पालन सर्वत्र किया जाता था। महर्षि व्यास ने इस सन्दर्भ में अनेक उल्लेख महाभारत में किये हैं। महाभारत के अनुशासन पर्व में मनुष्य के दीर्घायु के विषय में श्री महेश्वर द्वारा उमा देवी के प्रति यह कथन मिलता है कि जो मनुष्य सदाचारी होते हैं तथा सदा परायी स्त्रियों की ओर आंखें बन्द किए रहते हैं, वे जितेन्द्रिय और शील परायण होकर स्वर्ग में जाते हैं।' इसी सन्दर्भ में श्रीमहेश्वर द्वारा उमा देवी के प्रति यह कथन भी मिलता है कि जो मानव परायी स्त्रियों को माता, बहिन और पुत्री के समान तद्नुरूप आचरण करते हैं वे स्वर्गलोक में जाते हैं। इस तरह श्रीमहेश्वर ने संयम-नियम को आचरण में लाने का उल्लेख किया है। इसी सन्दर्भ में महर्षि व्यास ने अनुशासन पर्व में अपनी ही स्त्री के प्रति निष्ठावान रहने का निर्देश दिया है। जिसका उल्लेख श्री महेश्वर के वचनों द्वारा किया गया है। श्री महेश्वर का उमा देवी के प्रति कथन है कि जो अपनी ही स्त्री में अनुरक्त रहकर ऋतुकाल में ही उनके साथ समागम करते हैं और ग्राम्य सुख भोगों में आसक्त नहीं होते हैं, वे मनुष्य स्वर्ग लोक में जाते हैं।' इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि मनुष्य को अपनी ही स्त्री के साथ प्रजनन हेतु समागम करना चाहिए और यह समागम भी उचित समय अर्थात् ऋतुकाल में ही करना चाहिए। अतः इससे महाभारतकालीन संयम-नियम का बोध होता है। महर्षि व्यास द्वारा श्री महेश्वर के मुख से निकले वचनों में प्रजनन के उचित समय का निर्देश दिया गया है। जिससे यह प्रतीत होता है कि मनुष्य को कभी भी अनैतिक कार्यों द्वारा गर्भाधान नहीं करना चाहिए, ऐसा करने से वह पापों से बचता है और रोगों से भी। महर्षि व्यास ने महाभारत के आश्वमेधिक पर्व में बीज (वीर्य) और योनि (रज) के सन्दर्भ में उत्तम सन्तान की उत्पत्ति हेतु इन दोनों (बीज, रज) के शुद्ध होने की अनिवार्यता का उल्लेख किया है। जिसमें यह स्पष्ट कहा गया है कि ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करने वाले योग्य स्त्री-पुरूष की सन्तान उत्तम होती है इस तरह परायी स्त्रियों से दूर रहना ही उचित हैं
'स्वदारनिरता ये च ऋतुकालाभिगामिनः ।। अग्राम्यसुखभोगाश्च ते नराः स्वर्गगामिनः ।
महा. मा. अनु. पर्व 144.13
* ग्राम्य धर्म न सेवेत स्वच्छन्देनार्थकोविदः । ऋतुकाले तु धर्मात्मा पत्नीमुपशयेत् सदा।।
महा. भा. अनु. पर्व. 143.39
अविप्लुतब्रह्मचर्या यस्तु विप्रो यथाविधि।
सबीजं नाम विज्ञेयं तस्य बीजं शुभं भवेत् ।।
कन्या चाक्षतयोनिः स्यात् कुलीना पितृमातृतः। ब्राह्मादिषु विवाहेषु परिणीता यथाविधि ।।
सा प्रशस्ता वरारोहा तस्याः योनिः प्रशस्यते ।
मनसा कर्मणा वाचा या गच्देत्परपुरूषम्। योनिस्तस्या नरश्रेष्ठ गर्भाधानं च चार्हति ।।
दैवे पित्र्ये तथा दाने भोजने सहभाषणे ।
शयने सह सम्बन्धे न योग्या दुष्टयोनिजाः ।। कानीनश्च सहोढश्च तथोभौ कुण्डगोलकौ। आरूढपतिताज्जातः पतितस्यापि यः सुतः।
षडेते विप्रचाण्डाला निकृष्टाः श्वपचादपि ।।
यो यत्र तत्र वा रेतः सिक्त्वा शूद्रासु वा चरेत्। कामचारी स पापात्मा बीजं तस्याशुभं भवेत् ।।
महा. भा. आश्व. पर्व. 92 पृ. 6319
🔹आज से हजारों वर्ष पर्व महर्षि व्यास ने महाभारत में वर्णन किया है। मानव शरीर में गर्भस्थ शिशु के शरीर का विकास किस प्रकार होता है ?
🔹कौन सी इन्द्रिय का निर्माण कब होता है, ?
यह रोचक तथा कौतूहल का विषय है। इस सन्दर्भ में प्राचीन ग्रन्थों में पर्याप्त वर्णन मिलता है। महर्षि व्यास ने महाभारत में मैथुन काल में वीर्यक्षरण की प्रक्रिया से लेकर गर्भधारण, गर्भ की सुरक्षा, उनका विकास, जन्म, शारीरिक विकृतियों के कारण आदि तथ्यों का विस्तृत उल्लेख किया है। महाभारत के शान्तिपर्व में सन्तानोत्पत्ति के निमित्त होने वाले वीर्यक्षरण की प्रक्रिया का सूक्ष्म विश्लेषण किया गया है। इस सन्दर्भ में भीष्म पितामह द्वारा ब्रह्मचर्य पालन तथा वैराग्य धारण का उपदेश युधिष्ठिर के समक्ष दिया गया है जिसके अनुसार, हृदय के मध्य में मनोवहा नाम की नाड़ी है, जो पुरूष के काम सम्बन्धित सङ्कल्प के द्वारा सारे शरीर से वीर्य को खींचकर बाहर निकाल देती है। उस नाड़ी के पीछे चलने वाली और सम्पूर्ण शरीर में फैली हुई अन्य नाड़ियाँ तेजस गुण (रूप ग्रहण) की शक्ति के साथ नेत्रों तक पहुंचती है। तत्पश्चात् स्त्रियों के दर्शन, स्पर्श आदि से मथित होकर पुरुष का वीर्य उसी प्रकार उत्पन्न हो क्षरित जाता है, जिस प्रकार मथानी से मथने पर दूध में छिपा हुआ मक्खन अलग हो जाता है। इस तरह वीर्योत्पत्ति के मूल कारण का बोध होता है। इस सन्दर्भ में पुनः भीष्म का कथन है कि भगवान महर्षि अत्रि वीर्य की उत्पत्ति और गति को जानते हैं तथ वे ऐसा कहते हैं कि मनोवहा नाड़ी, सङ्कल्प और अन्न ये तीन ही वीर्य के कारण हैं। इस वीर्य का देवता इन्द्र है, इसलिए इसे इन्द्रिय कहते हैं।अतः मनुष्य को मनोवहा नाड़ी पर संयम रखना चाहिए यदि गर्भधारण हो जाए तो भ्रूण हत्या नहीं करना चाहिए क्योंकि यह अत्यन्त क्रूर पाप है। भ्रूण हत्या द्वारा सन्तति श्रृंखला प्रभावित होती है तथा माता के स्वास्थ्य पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। इस सन्दर्भमें महाभारत के टीकाकार ने वीर्योत्पत्ति का अपने मतानुसार उल्लेख किया है।
🔹प्रजनन-प्रक्रिया महर्षि व्यास ने महाभारत में शिशु के जन्म का विस्तृत उल्लेख किया है।
इस सन्दर्भ में आश्वमेधिक पर्व में जीव के गर्भप्रवेश, आचार-धर्म, कर्मफल आदि का वर्णन करते हुए ब्रह्मण का महर्षि कश्यप के प्रति कथन है कि जीव पहले पुरूष के वीर्य में प्रविष्ट होता है. फिर स्त्री के गर्भाशय में जाकर उसके रज में मिल जाता है। अपनी इच्छानुसार वह शरीर में प्रवेश करता है और कर्मानुसार शुभ अथवा अशुभ शरीर को प्राप्त करता है। जिस प्रकार तपाये हुए लोहे का द्रव जैसे सांचे में डाला जाता है, उसी रूप को धारण कर लेता है, उसी प्रकार जीव जिस प्रकार की योनि में प्रवेश करता है, उसी रूप में उसका शरीर बन जाता है। जिस प्रकार अग्नि लोहपिण्ड में प्रवेश कर उसे बहुत तपा देती है उसी प्रकार जीव गर्भ में प्रवेश करके उसे चेतना प्रदान करता है। जीव गर्भ में प्रविष्ट होकर तत्काल शरीर के सभी अङ्गों में चेतनता ला देता है। जिस प्रकार जलता हुआ दीपक पूरे घर में प्रकाश फैला देता है, उसी प्रकार जीव की चैतन्य शक्ति शरीर के सभी अवयवों को प्रकाशित करती है इस तरह महर्षि व्यास ने जीव के गर्भ में प्रवेश उत्पत्ति आदि का उल्लेख किया है जिसे आधुनिक वैज्ञानिक भी अनुसंधानों द्वारा उचित बताते हैं। वस्तुतः गर्भ में ही सोच विचार की क्षमता विकसित हो जाती है। विचारों के अनुरूप ही भ्रूण की आंखों में तथा चेहरे पर भाव आ जाते हैं तथा तद्नुसार ही वह आचरण करने लगता है। यह समस्त क्रिया-कलाप भ्रूण में चेतनता के कारण होता है। सामान्यतया यह धारणा फैली हुई है कि जन्म के कुछ समय पश्चात् ही बालक में सोच-विचार तथा सावधानी बरतने की क्षमता आती है।
महर्षि व्यास ने अनेक पर्वों में गर्भधारण-प्रक्रिया का उल्लेख किया है। इस सन्दर्भ में महाभारत के अनुशासन पर्व में युधिष्ठिर तथा बृहस्पति के मध्य हुए संवाद में उल्लेख मिलता है। जिसके अनुसार युधिष्ठिर द्वारा किए गए प्रश्न कि शरीर में वीर्य की उत्पत्ति कैसे होती है ? इसका उत्तर विस्तृत रूप में बृहस्पति ने दिया है। इसी सन्दर्भ में महर्षि व्यास ने भीष्म द्वारा गर्भकाल में प्रत्येक जीव द्वारा भोगे गये कष्ट का उल्लेख किया है कि स्त्री सम्बन्धी अनुराग के कारण पुरूष के वीर्य से जीवों की उत्पत्ति होती है। जन्म के निमित्त से गर्भवास का कष्ट भोगना पड़ता है। रज और वीर्य के परस्पर संयुक्त होने पर गर्भवास का अवसर आता है जहां मल और मूत्र से भीगे तथा रक्त के विकार से मलिन स्थान में रहना पड़ता है। महर्षि व्यास ने शिशु के जन्म लेने से पूर्व वीर्य तथा रज के संयोग द्वारा गर्भ निर्माण की प्रक्रिया का विस्तृत उल्लेख सुलभ तथा जनक के संवाद में किया है। इस सन्दर्भ में सुलभा का कथन है कि प्राणियों की वीर्य स्थापना से लेकर रजोवीर्य संयोग सम्भूत कुछ ऐसी अवस्थाएं हैं, जिनके सम्मिश्रण से ही 'कलल' नामक एक पदार्थ उत्पन्न होता है। कलल से बुदबुद की उत्पत्ति होती है। बुद्बुद से माँसपेशी का प्रादुर्भाव माना गया है। पेशी से विभिन्न अङ्गों का निर्माण होता है और अङ्गों से रोमावलियाँ तथा नख प्रकट होते हैं। गर्भ में नौ मास पूर्ण हो जाने पर जीव जन्म ग्रहण करता है। उस समय उसे नाम और रूप प्राप्त होता है तथा वह विशेष प्रकार के चिह्न से स्त्री अथवा पुरूष समझा जाता है इस वर्णन से स्पष्ट होता है कि वीर्य तथा रज के सम्मिश्रण से सर्वप्रथम कलल नामक पदार्थ उत्पन्न होता है। तत्पश्चात् वह शिशु बनता है। गर्भ निर्माण के सन्दर्भ में चरक संहिता में भी यह वर्णित है कि गर्भ का निर्माण माता तथा पिता के रज तथा वीर्य के साथ-साथ भोजन के द्वारा होता है। साथ ही यह बाद में स्वयं विकसित होता है
बिन्दुन्यासादयोऽवस्थाः शुक्रशोणितसम्भवः । यासामेव निपातेन कललं नाम जायते ।।
कललाद् बुदबुदोत्पत्तिः पशी च बुद्बुदात् स्मृता । पेश्यास्त्वङ्गाभिनिर्वृत्तिर्नखरोमाणि चाङ्गतः ।। सम्पूर्ण नवमे मासि जन्तोर्जातस्य मैथिल।
जायते नामरूपत्वं स्त्री पुमान् वेति लिङ्गतः
।। वही 320.117-119
महाभारत के अनुशासन पर्व में नारद मुनि ने भीष्म से अन्न के महत्व का उल्लेख किया है जिसमें नारद मुनि का कथन है अन्न से ही सन्तान की उत्पत्ति होती है।' महाभारत के शान्ति पर्व में शरीर के निर्माण की प्रक्रिया का विस्तृत वर्णन किया गया है। इस पर्व में राजा जनक का महर्षि वसिष्ठ के प्रति कथन है
भगवन्। क्षर और अक्षर (प्रकृति और पुरूष) दोनों का यह सम्बन्ध वैसा ही माना जाता है, जैसा कि नारी और पुरूष का दाम्पत्य सम्बन्ध बताया जाता है। इस जगत में न तो पुरूष के बिना स्त्री गर्भ धारण कर सकती है और न स्त्री के बिना कोई पुरूष ही किसी शरीर को उत्पन्न कर सकता है। दोनों के पारस्परिक सम्बन्ध से एक दूसरे के गुणों का आश्रय लेकर ही किसी शरीर का निर्माण होता है। प्रायः सभी योनियों में ऐसी ही स्थिति है। जब स्त्री ऋतुमती होती है, उस समय रति के लिए पुरूष के साथ उसका सम्बन्ध होने से दोनों के गुणों का मिश्रण होने पर शरीर की उत्पत्ति होती है। शरीर में पुरूष अर्थात् पिता के जो गुण है तथा माता के जो गुण हैं, उन्हें मैं दृष्टान्त के आधार पर बता रहा हूँ। हड्डी स्नायु और मज्जा इन्हें मैं पिता से प्राप्त हुए गुण समझता हूं तथा त्वचा माँस और रक्त - ये माता से उत्पन्न हुए गुण हैं, ऐसा मैंने सुना है।
महाभारतकाल में मानव शरीर विज्ञान सर्वोच्च स्थिति में था। महाभारत के आश्वमेधिक पर्व में काश्यप के प्रति सिद्ध महात्मा द्वारा गर्भस्थ शिशु की दशा का शान्ति पर्व में भीष्म द्वारा राजा युधिष्ठिर के समक्ष उल्लेख किया गया है।' महर्षि व्यास ने महाभारत के आदि पर्व में जीवोत्पत्ति के सन्दर्भ में अष्टक तथा ययाति के संवाद का उल्लेख किया है जिसमें अन्तरिक्ष से गिरे हुए जल को प्राणी बताया गया है। वही बीजभूत वीर्य बनकर पुरूष द्वारा स्त्री के गर्भ में प्रवेश करता है और रज में मिलकर गर्भरूप में परिणत हो जाता है। यह जीव जल रूप से गिरकर वनस्पतियों और औषधियों में प्रवेश करते हैं। जल, वायु, पृथ्वी और अन्तरिक्ष आदि में प्रवेश करते हुए कर्मानुसार पशु अथवा मनुष्य सब कुछ होते हैं। इस प्रकार भूमि पर आकर फिर पूर्वोक्त कर्म के अनुसार गर्भ भाव को प्राप्त होते हैं। महर्षि व्यास ने गर्भ विकास के क्रम को स्पष्ट करते हुए भीष्म पितामह के वचनों द्वारा युधिष्ठिर के प्रति कहा है कि जीव कर्म से प्रेरित होकर संसारचक्र में घूमता है। बीजभूत कर्म से जिस-जिस इन्द्रिय को प्रकट होने की प्रेरणा प्राप्त होती है, रागयुक्त चित्र तथा अहंकार से वही इन्द्रिय प्रकट हो जाती है। शब्द के प्रति आसक्ति होने से कान प्रकट होते हैं, रूप के प्रति राग से नेत्र, गन्ध ग्रहण करने की इच्छा से नाक, स्पर्श के प्रति अनुराग होने से त्वचा और वायु प्रकट होते हैं। वायु, प्राण और अपान का आश्रय है, वही उदान, व्यान और समान प्राण भी हैं। पांचों प्राण मिलकर शरीर चलाते हैं। मनुष्य जन्म के समय पूर्णतः उत्पन्न हुए कर्मजनित अङ्गों और सम्पूर्ण शरीर के साथ जन्म ग्रहण करता है और कर्मानुसार पूरी आयु भर शारीरिक और मानसिक दुःख भोगता है। जीव गर्भ में दस मास तक रहता है, तथा फिर योनिद्वार से बाहर निकलता है, परन्तु इस अवधि में वह माता के उदर में रहते हुए भी जठरानल से सन्तप्त होता रहता है, परन्तु अन्न की भाँति पच नहीं जाता। यह बात आश्चर्यजनक है। गर्भ के किस मास में किस इन्द्रिय का प्रकटीकरण होता है, इस सन्दर्भ में भागवत पुराण तथा ऐतरेय उपनिषद् में सविस्तार वर्णन किया गया है।
मानव शरीर यंत्रवत् निरन्तर कार्य करता रहता है। इसके पाचन तंत्र में समस्त भोज्य पदार्थ पच जाते हैं। तथा ऊर्जा उत्पन्न करते हैं परन्तु यह एक अद्भुत बात देखने में आती है कि उदर में उपस्थित समस्त पदार्थ जठराग्नि के ताप से पच जाती है जबकि शिशु भी उदर में गर्भावस्था काल में नौ से दस माह रहता है फिर भी वह गर्भ में पचता नहीं है। यह एक रहस्यमय तथ्य है। इस सन्दर्भ में महर्षि व्यास ने शान्ति पर्व में शुकदेव से कहा है, "(यह कितने बड़े आश्चर्य की बात है कि) गर्भाभाव को प्राप्त हुआ जीवात्मा दस मास तक माता के उदर में निवास करता है और जठरानल की अधिक आंच से संतप्त होता रहता है तो भी अन्न की भांति पच नहीं जाता।इस सन्दर्भ में शान्ति पर्व के तीनसौइकतिसवें अध्याय में व्यास मुनि ने पुनः शुकदेव से यह बात स्पष्ट करते हुए कही है कि पुरुष, स्त्री के साथ समागम करके उसके उदर में जिस अचेतन शुक्रबिन्दु को स्थापित करता है, वही गर्भ रूप में परिणत होता है। फिर वह गर्भ किस यत्न से वहां जीवित रहता है, क्या तुम कभी इस पर विचार करते हो ? जहां खाए हुए अन्न और जल पच जाते हैं तथा सभी तरह के भक्ष्य पदार्थ जीर्ण हो जाते हैं उसी पेट में पड़ा हुआ गर्भ अन्न के समान क्यों नहीं पच जाता है ? इस विवरण से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि महर्षि व्यास ने यहाँ गर्भस्थ बालक के न पचने की बात कहकर साङ्केतिक रूप में जरायु नामक झिल्ली का ही उल्लेख किया है कि जो माता के गर्भ में शिशु के चारों ओर लिपटी रहती है या यह भी कहा जा सकता है कि जरायु नामक झिल्ली में ही शिशु नौ से दस माह रहता है और इसी कारण वह उदर में अन्न की भांति पच नहीं जाता है। इस सन्दर्भ में अथर्ववेद में यह वर्णन मिलता है कि गर्भ के भीतर शिशु जरायु (झिल्ली) में लिपटा रहता है। प्रसूता के लिए जरायु पुष्टिदाता नहीं है न ही यह माँस मज्जा या चर्बी की भांति उपयोगी है। यह बाहर निकाल फेंकने और श्वानो के आहार योग्य है। अपितु अंदर ही रह जाने पर यह सारहीन होकर माता के उदर में ऐसे फिरता है जैसे सेवार नामक कुशा जलाशय में। अतः इसका निकल जाना आवश्यक है। अतः इस विवरण से स्पष्ट होता है कि 1 महाभारत काल में प्रजनन विज्ञान का गम्भीर ज्ञान प्रचलित था।
🔹गर्भस्थ शिशु लिङ्ग निर्धारण - मानव शरीर में गर्भ धारण की प्रक्रिया का समस्त ज्ञान प्राचीन ऋषियों, विद्वानों तथा वैद्यों को भलीभांति था। वे अङ्गों की समस्त बाह्य तथा आन्तरिक गतिविधियों से पूर्णरूप से परिचित थे। महर्षि व्यास ने अनुशासन पर्व में गर्भस्थ बालक के लिङ्ग निर्धारण सम्बन्धी निर्देश दिए हैं। इस सन्दर्भ में भीष्म पितामह द्वारा युधिष्ठिर के प्रति कथन है कि अपनी पत्नी भी रजस्वला हो तो उसके पास न जाय और न उसे ही अपने पास बुलाये। जब चौथे दिन वह स्नान कर ले, तब रात में बुद्धिमान् पुरूष उसके पास जाय। पाञ्चवें दिन गर्भाधान करने से कन्या की उत्पत्ति होती है और छठे दिन पुत्र की अर्थात् समरात्रि में गर्भाधान से पुत्र का और विषम रात्रि में गर्भाधान होने से कन्या का जन्म होता है। इस वर्णन से यह स्पष्ट होता है कि समरात्रि में गर्भाधान होने से पुत्र की तथा विषम रात्रि में गर्भाधान होने से कन्या की प्राप्ति होती है। भारतीय आयुर्वेद विज्ञान में इस सन्दर्भ में पूर्ण तथा वैज्ञानिक जानकारी दी गई है। सुश्रुत चिकित्सा स्थान अध्याय 24 के श्लोक 29 से 31 तक यह कहा गया है कि रजोदर्शन से सोलहवें दिन तक ऋतुकाल सम्भोग का समय सन्तानोत्पत्ति के लिए उपदिष्ट है, परन्तु रजस्वला होने वाले दिन से प्रथम चार दिन निंदित हैं। उनमें तो परस्पर स्पर्श भी नहीं होना चाहिए। इन दिनों स्त्री के बिना स्नान के एकान्तवास करना चाहिए। ऐसे ही ग्यारहवां तथा तेरहवां दिन भी निषिद्ध है। अर्थात् पुत्र प्राप्ति हेतु 6-8-10-12 तथा 14वां और कन्या प्राप्ति हेतु 5-7-9-15 वां दिन बताया गया है। क्योंकि प्रथम दिनों में पुरूष का वीर्य बलवान तथा द्वितीय लिस्ट के दिनों में स्त्री का आर्तव पुष्ट होता है।
नैव मांसे न पीवसि नैव मज्जस्वाहतम्।
अवैतु पृश्नि शेवलं शुने जराय्वत्तवेऽव जरायु पद्यताम्। अथर्व. वे. 1.11.4
* पत्नी रजस्वला या च नाभिगच्छेन्न चा हृयेत् ।। स्नाता चतुर्थे दिवसे रात्रौ गच्छेद् विचक्षणः ।
पञ्चमे दिवसे नारी षष्ठेऽहनि पुमान् भवेत् ।।
महा. भा. अनु. पर्व. 104.149-150
जैसे पूर्णमासी तथा अमावस्या को समुद्र में ज्वार आता है तथा अष्टमी (शुक्ल तथा कृष्ण) यह वेग समाप्त होकर भाटा होता है। चन्द्रमा का यह रसोत्पादक प्रभाव वनस्पति तथा मनुष्य के रस रक्तादि जल प्रधान घातुओं पर भी पड़ता है अतः इन चारों तिथियोंको उनका रस विषम रहता है, अतः समागम के लिए यह निषिद्ध है, अन्यथा सन्तान रोगी उत्पन्न होती है। अर्थात् दो चतुर्दशी भी निषिद्ध है। इस विवरण से स्पष्ट है कि वर्जित दिनों में सम्भोग होने से गर्भ नहीं ठहरता है। यह पद्धति संतान होना रोकने के लिए रामबाण के समान है और इसके प्रचार-प्रसार से आजकल जनसंख्या वृद्धि को रोकने हेतु सरकार द्वारा जो लाखों-करोड़ों रुपये व्यय किए जा रहे हैं, इससे बचा जा सकता है, क्योंकि उन रात्रियों में गर्भाशय बन्द हो जाता है।
🔹 गर्भधारण के अन्य माध्यम - सामान्यतया सभी मनुष्य यह जानते हैं कि स्त्री पुरूष के समागम से ही शिशु का जन्म होता है परन्तु विज्ञान ने इस तथ्य को अस्वीकार करते हुए यह प्रमाणित किया है कि गर्भधारण केवल स्त्री-पुरूष के समागम द्वारा ही नही होता वरन् अन्य माध्यम से भी गर्भधारण सम्भव है इसका स्पष्ट उदाहरण है परखनली शिशु (Test Tube Baby)। वर्तमान युग में वैज्ञानिकों ने परखनली में पितृ शुक्राणुओं (वीर्य) और माता के (रज) का समुचित समन्वय करके उससे गर्भस्थापन और शिशु जन्म की प्रणाली विकसित कर ली है। इस विधि से मात्र सुविधा यह होती है कि माता विशेष की गर्भस्थली में प्राकृतिक समागम से जब शिशु की आधार शिला नहीं रखी जा सकती तो इतना कार्य बाहर परखनली में सम्पन्न हो जाता है। अग्रिम समस्त प्रक्रिया नारी-देह से ही होती है। इसी सन्दर्भ में यदि प्राचीन आर्ष ग्रन्थों (जैसे-रामायण, महाभारत) में दृष्टि डाली जाए और सूक्ष्म चिन्तन तथा विवेचना की जाए तो यह बात स्पष्ट हो जाती है कि प्राचीन काल में यह विज्ञान अत्यधिक विकसित था। इसके कई भेदोपभेद भी थे। इस विधि के अनुसार माता के गर्भ की कोई आवश्यकता ही नही पड़ती थी। पितृ शुक्राणुओं तथा मातृ रज को पात्र विशेष में रखकर रासायनिक क्रियाओं द्वारा शिशु रूप में परिणत किया जाता था। ये शिशु विलक्षण प्रतिभा के धनी होते थे। महाभारत काल में यह विज्ञान अति विकसित था। इसी विज्ञान के आधार पर कौरवों का जन्म सम्भव हुआ। महर्षि वेदव्यास ने महाभारत में कौरवों के जन्म के सन्दर्भ में परखनली शिशु की उत्पत्ति के रहस्य का विस्तृत उल्लेख किया है। इस सन्दर्भ में महाभारत के आदि पर्व में वैशम्पायन ऋषि द्वारा राजा जनमेजय के प्रति गान्धारी द्वारा सौ पुत्रों तथा एक पुत्री के जन्म का कथानक प्रस्तुत किया गया है। जिसके अनुसार- धृतराष्ट्र द्वारा गान्धारी ने गर्भ धारण किया दो वर्ष व्यतीत होने पर भी प्रसव नहीं हुआ। इसी बीच में गान्धारी ने जब यह सुना कि कुन्ती के गर्भसे तेजस्वी पुत्र का जन्म हुआ है, तब उसे बड़ा दुःख हुआ। उसने अपने उदर की स्थिरता पर बड़ी चिन्ता हुई। उसने दुःखी होकर अन्जान में ही अपने उदर पर आघात किया तब उसके गर्भ से एक माँस का पिण्ड प्रकट हुआ, जो लोहे के पिण्ड के समान कड़ा था। उसने उसे दो वर्ष तक पेट में धारण किया था, तो भी उसने इतना कड़ा पिण्ड देखकर फेंक देने का विचार किया। महर्षि व्यास एक महान योगी थे अतः उसी क्षण यह बात जानकर वे गान्धारी के पास पहुँच गये और उसे सान्त्वना देते हुए बोले कि यह सब मेरे वरदान के अनुसार ही हो रहा है, अतः तुम शीघ्र ही सौ मटके (कुण्ड) तैयार कराओ और उन्हें घी से भरवा दो। फिर अत्यन्त गुप्त स्थानों में रखकर उनकी रक्षा की भी पूरी व्यवस्था करो। इस माँस पिण्ड को ठंडे जल से सींचो। उस समय सींचे जाने से उस माँसपिण्ड के सौ टुकड़े हो गये। वे अलग-अलग अँगूठे के पोरुवे बराबर सौ गर्भों के रूप में परिणत हो गए। काल के परिवर्तन से क्रमशः उस माँस पिण्ड के यथायोग्य पूरे एक सौ एक भाग हुए। तब भगवान् व्यास ने गान्धारी से इन कुण्डों के ढक्कन को पूरे दो वर्ष बाद खोलने को कहा। तदनन्तर दो वर्ष बीतने पर जिस क्रम से वे गर्भ उन कुण्डों में स्थापित किए गए थे, उसी क्रम में उनमें सबसे पहले राजा दुर्योधन उत्पन्न हुआ। इस विवरण में महर्षि व्यास ने कौरवों के जन्म की कथा के माध्यम से साङ्केतिक रूप में परखनली में शिशु के निर्माण की प्रक्रिया का ही उल्लेख किया है, ऐसा प्रतीत होता है। महर्षि वेदव्यास जी ने महाभारत में अनेक स्थानों पर परखनली शिशु से उत्पन्न शिशु का साङ्केतिक रूप में उल्लेख किया है। इस सन्दर्भ में राजा सगर के साठ हजार पुत्रों के जन्म की कथा का उल्लेख वन पर्व में मिलता है। जिसके अनुसार राजा सगर की पत्नी वैदर्भी के गर्भ से उत्पन्न तूंबी द्वारा एक-एक बीज को निकाल कर घी से भरे हुए घड़ों में रखकर सेया गया था तथा इससे सगर के साठ हजार पुत्रों की उत्पत्ति हुई।
महर्षि व्यास ने अनुशासन पर्व में महर्षि वशिष्ठ के जन्म के सन्दर्भ में भीष्म पितामह द्वारा युधिष्ठिर के समक्ष उल्लेख किया है कि पृथ्वी, आकाश और स्वर्गलोक सभी इन सनातन पुरुष श्रीकृष्ण के वश में रहते हैं। इन्होंने कुम्भ में देवताओं (मित्र और वरुण) का वीर्य स्थापित किया था, जिससे महर्षि वसिष्ठ की उत्पत्ति हुई बतायी जाती है। इसी प्रकार आदि पर्व में कश्यप की दोनों पत्नियों कद्रू और विनता के गर्भ द्वारा उत्पन्न अण्डों को दासियों द्वारा गर्भ बर्तनों में रखने का उल्लेख मिलता है। इस विवरण से परखनली शिशु प्रक्रिया का ही बोध होता है। अतः इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि महाभारत काल में परखनली शिशु के जन्म की प्रणाली प्रचलित थी। जो तत्कालीन मानव शरीर विज्ञान की चरम सीमा को दर्शाती है। वैदिक काल में परखनली शिशु के सन्दर्भ में उल्लेख मिलता है। इस सन्दर्भ में ऋग्वेद के सातवें मण्डल में अगस्त तथा वशिष्ठ के जन्म का उल्लेख किया गया है.
1. मन्त्रबल से पुरुष द्वारा सन्तानोत्पादन का उल्लेख वन पर्व में मिलता है। जिसके अनुसार, राजा युवनाश्व द्वारा यवन ऋषि के मंत्र से अभिमन्त्रित जल के सेवन से मान्धाता का जन्म हुआ और इस पुत्र को राजा युवनाश्व की बांयी कोख का भेदन करके बाहर निकाला गया था।
2. महाभारत के वन पर्व में महातपस्वी ऋष्यश्रृङ्ग का जन्म मृगी के उदर से होने का उल्लेख मिलता है जिसके अनुसार स्नान करते हुए विभाण्डक मुनि द्वारा, उर्वशी अप्सरा के दर्शन करने पर, वीर्य स्खलित हो गया और इसी समय प्यास से व्याकुल मृगी ने वह वीर्ययुक्त जल पी लिया। इससे उसके गर्भ ठहर गया। वह मृगी पूर्वजन्म में एकदेव कन्या थी जो ब्रह्मा द्वारा मृगीरूप में पृथ्वी पर भेजी गई थी।
3. महाभारत के आदिपर्व में महर्षि मन्दपाल का शांर्डी पक्षी से गर्भ से पुत्र उत्पन्न करने की कथा का उल्लेख मिलता है।
4. महाभारत के आदिपर्व में राजा वसु द्वारा एक मछली के गर्भ से सन्तानोत्पत्ति की कथा का उल्लेख मिलता है जिसके अनुसार किसी समय वन में शिकार खेलने गए राजा वसु प्रकृति की सुन्दरता तथा सुगन्ध युक्त वायु से प्रेरित हो काम विषयक भाव से युक्त हो गए और उनका वीर्य स्खलित हो गया। अतः यह वीर्य व्यर्थ न हो यह सोचकर राजा ने उसे पत्ते पर उठा लिया और उसे पुत्रोत्पत्ति कारक मन्त्रों द्वारा अभिमन्त्रित कर एक बाज के द्वारा अपनी पत्नी के पास भेजने का प्रबन्ध किया। वह बाज उस वीर्य को लेकर उड़ा, परन्तु माँस होने की आशंका से अन्य बाज उस पर टूट पड़े जिस कारण वह वीर्य यमुना नदी के जल में गिर पड़ा। उस जल में अद्रिका नामक अप्सरा श्राप के कारण मछली होकर रहती थी। जल में गिरे उस वीर्य को माँस समझकर उस मछली ने उसे निगल लिया और दस मास के पश्चात् मछवारों द्वारा जाल में बांध ली गई और उसके उदर को चीरकर एक कन्या तथा एक पुरुष शिशुओं को निकाला गया।'
5. महाभारत के आदि पर्व में महर्षि कश्यप की सन्तान परम्परा के वर्णन में अश्विनी कुमार के जन्म की कथा का उल्लेख मिलता है। जिसके अनुसार सूर्य की पत्नी संज्ञा ने अश्विनी (घोड़ी) का रूप धारण करके अन्तरिक्ष में दोनों अश्विनीकुमारों को जन्म दिया था।
6. महाभारत के आदि पर्व में स्त्री के उरु भाग (जांघ) से शिशु के जन्म लेने की कथा का उल्लेख हुआ है। जिसके अनुसार, मनु की पुत्री आरुषी मनीषी च्यवन मुनि की पत्नी थी। उससे महायशस्वी और्व मुनि का जन्म हुआ। वे अपनी माता की उरु (जांघ) का भेदन कर प्रकट हुए थे, इसीलिए और्व कहलाये।'
7. महर्षि व्यास ने महाभारत में गर्भ स्थानान्तरण का उल्लेख किया है। इस सन्दर्भमें सभा पर्व में बलदेव के जन्म के विषय में ऋषि वैशम्पायन का जनमेजय के प्रति कथन है कि देवकी के उदर में सातवें गर्भ के रूप में बलदेव का आगमन हुआ। जिसे यमराज ने यमसम्बन्धिनी माया के द्वारा उस अनुपम गर्भ को देवकी के उदर से निकालकर रोहिणी की कुक्षि में स्थापित कर दिया।
8. महर्षि व्यास ने शान्ति पर्व में सङ्कल्प द्वारा सन्तानोत्पत्ति का उल्लेख किया है। इस सन्दर्भ में भीष्म द्वारा युधिष्ठिर के प्रति कथन है कि पूर्व काल में लोग मैथुन धर्म द्वारा नही वरन् संङ्कल्प मात्र से सन्तान उत्पन्न करते थे।इस समस्त विवरण से यह स्पष्ट होता है कि महाभारत काल में प्रजनन विज्ञान अपने चरम सीमा पर था क्योंकि उस काल में मैथुन के अतिरिक्त भी अन्य कई गर्भ धारण के माध्यम थे। इस प्रकार तत्त्कालीन अद्भुत तकनीकियों का बोध होता है। यद्यपि इसमें वर्णित सभी तकनीकियाँ आधुनिक विज्ञान के धरातल पर उचित प्रतीत नहीं होती हैं किन्तु कुछ एक तकनीक तो आधुनिक विज्ञान भी स्वीकार करता है, यथा परखनली शिशु, मृतक शरीर से शिशु का जन्म आदि। अतः पूर्णतया यह नहीं माना जा सकता कि महाभारत में वर्णित प्रजनन विज्ञान की अन्य तकनीकियाँ (जैसे- मृगी, अश्व, मछली आदि के गर्भ से शिशु का जन्म होना) भी विज्ञान की दृष्टि से अनुपयुक्त है साथ ही अब तक प्रायोगिक रूप में ऐसा कोई साक्ष्य भी उपलब्ध नहीं होने से ये तकनीकियाँ सत्य भी नहीं प्रतीत होती हैं।