"मा शब्दे रसना ज्ञेया, तद् अंशम् रसना प्रिये ।
स यो भक्षयेत देवी समवेत् मांस साधकः ।।
- शिव संहिता
१. गुरु प्रणाम- प्राणायाम के द्वारा कुम्भक करके बैठे बैठे साष्टांग प्रमाण प्रणाम करते हुए इस मन्त्र को मन ही मन कहना और मन्त्रोचारण समाप्ल होने पर पुनः पूर्वावस्था में आकर रेचक करना ।
अखंड मंडलाकारं, व्याप्तं येन चराचरम् ।
तत् पदं दर्शितं येन, तस्मै श्री गुरवे नमः ।।
किसी आसन पर (पद्मासन, सिद्धासन या स्वस्तिकासन जो सुविधाजनक हो) बैठकर गुरु को प्रणाम करना होता है। बैठने के समय यह ख्याल रहे कि मेरुदण्ड सीधा हो। गीता में लिखा है- "समकायो सिरोग्रीवा" अर्थात् मस्तक (गर्दन) और पीठ एक सीध में हों। झुककर न बैठें। गुरु को प्रणाम करने के बाद कार्य आरंभ होता है एवं सभी क्रियाओं को करने के पश्चात् पुनः आसन से उठने के पहले गुरुप्रणाम किया जाता है।
🔅खेचरी मुद्रा- हमारी इन्द्रियों में रसनेन्द्रिय बहुत चंचल होती है। अतः इसे संयमित करना सर्व प्रथम आवश्यक है। इसमें जिह्वा की जड़ता को समाप्त करने के लिए कुछ उन उपायों से जिह्वा के नीचे जो पतली-सी नस जो उसे नीचे के जबड़े से जोड़ती है, उसे समाप्त कर दिया जाता है। उपनिषदों में छेदन आदि कष्ट कारक पद्धतियां दी गयी हैं परन्तु श्री लाहिड़ी जी महाराज ने इसकी सरल पद्धति बतलाया है। जब जिह्वा की जड़ता समाप्त हो जाती है। तब वह तालू के ऊपर, भीतर ही भीतर चली जाती है। इस क्रिया की कोई संख्या निश्चित नहीं है। फिर भी कम से कम १०० बार जरूर चाहिए, अधिक जितना चाहें कर सकते हैं। जब जीभ भीतर प्रवेश कर जाती है तब यह क्रिया करना छोड़ दिया जाता है।
इस मुद्रा में चित्त एवं जिह्वा दोनों ही आकाश की ओर केंद्रित किए जाते हैं जिसके कारण इसका नाम 'खेचरी' पड़ा है (ख = आकाश, चरी = चरना, ले जाना, विचरण करना)। इस मुद्रा की साधना के लिए पद्मासन में बैठकर दृष्टि को दोनों भौहों के बीच स्थिर करके फिर जिह्वा को उलटकर तालु से सटाते हुए पीछे रंध्र में डालने का प्रयास किया जाता है। इस स्थित में चित्त और जीभ दोनों ही 'आकाश' में स्थित रहते हैं, इसी लिये इसे 'खेचरी' मुद्रा कहते हैं । इसके साधन से मनुष्य को किसी प्रकार का रोग नहीं होता । (अधिक समझने के लिए इंटरनेट पर सर्च कर सकते हैं)
इस क्रिया को करने से क्या लाभ है ?
(क) जीभ तालू मूल में प्रवेश कर जाने पर प्रथमतः वाक् संयम होता है । जीभ को भीतर रख लेने पर आप बोल नहीं पायेंगे। अतः बेकार के वार्ता से बच जायेंगे । अधिक बोलने से शक्ति का क्षत्र होता है और मन भी चंचल होता है।
(ख) कामना-वासना का ह्रास होता है। जीभ को कामना वासना का प्रधान द्वार माना जाता है। माँ काली की लम्बी जीभ हमें यही बताने के लिए दिखाई गई है। माँ काली रक्त वीर्य असुर का बघ अपनी लम्बी जिहवा पर किया था। यह एक रूपक मात्र है। वास्तव में उससे यही दर्शाया गया है कि अपनी रसना को लम्बी करके उसको तालू कूहर में स्थापित करने पर कामना-वासना रूपी रक्त-बीर्य असुर का नाश होगा। सोचने की बात है कि जगज्जननी के लिए सभी देवता, असुर एवं मानव आदि पुत्रवत हैं। इसलिए माता पुत्र का बध कैसे करेगी ? जब साधारण माताएँ ही पुत्र-वध नहीं कर सकती तो यह तो सारे संसार की माता हैं। अतः यही निर्देश ऋषियों ने दिया है कि खेचरी सिद्ध करो और कामना-वासना को जय करो ।
(ग) सोन-रस का पान- जब जिह्वा तालू में प्रवेश करती है, तब सहस्रार से विगलित सोम रस, जिसे अमृत या गुरुचरणोदक भी कहा जाता है, उसका स्वाद मिलता है। अधिकांशतः यह स्वाद मधु जैसा मधुर होता है. कभी-कभी घृत जैसा स्वाद भी आता है। यह रस पान करने पर एक विचित्र नशा जैसा होता है। इससे मन मस्त होकर स्थिर हो जाता है। शराब के नशे से बुद्धि विकृत हो जाती है परन्तु इस नशे में बुद्धि और मन स्थिर रहते हुए जाग्रत भी रहते है।
खेचरी मुद्रा का महत्व अनेक साधकों ने बहुत अधिक कहा है। महायोगी गुरु गोरक्षनाथ कहते हैं- "न खेचरी सम मुद्रा' अर्थात् योग की समस्त मुद्राओं में खेचरी श्रेष्ठ है। इस खेचरी की अनेक व्याख्याएँ हैं। जैसे तंत्र का मांस भक्षण है। चूंकि जीभ पूरी मांस की बनी होती है, इस लिए उसको भीतर प्रवेश कराने को मांत भक्षण से तुलना की गई है।
माने रसना तथा उसका अंश भी रसना ही हुआ उसको भक्षण करना मांस भक्षण है। इस योग प्रक्रिया (खेचरी) तंत्र के पंचमकार में भांस, मदिरा, मत्स्य, मुद्रा और मैथुन आते हैं। इसमें मांस भक्षण और मदिरापान ये दोनों खेचरी से ही पूर्ण हो जाते हैं। जीभ का भक्षण मांस भक्षण हुआ और सोमरस का पान मदिरा पान है। यही शुद्ध तन्त्र है परन्तु आजकल के तांत्रिक इनसे प्रायः अन- भिज्ञ है। मत्स्य और मैथुन प्राणायाम द्वारा होता है, इसे प्राणायाम वर्णन के समय लिखा गया मुद्राएँ तो योग में बहुत हैं, उनमें से जिस किसी को ले सकते हैं।
शांडिल्योपनिषत् में महर्षि अथर्वा शांडिल्य ऋषि को कहते हैं- "हे शाण्डिल्य तू खेचरी मुद्रा को भज।" श्री लाहिड़ी महाशय ने अपने क्रिया योग में खेचरों को प्रथम स्थान दिये हैं। बालक मातृगर्भ में इसी योग की मुद्रा में रहता है। जब बालक पैदा होता है तब धाय / नर्स उसके मुँह में अंगुली डालकर उसकी जिहवा को खींचकर बाहर करती है। अथात् वह ईश्वर दत्त योग प्रक्रिया है जो गर्भ में उसकी रक्षा करती है। जन्म के बाद भी प्रायः ६ माह तक बच्चों की जीभ तालू से सटी रहती है। यही खेचरी है