हमारा मस्तिष्क दु:खों को दूर भगाना चाहता है। नहीं??
लेकिन रहस्य यहीं तो है। हाँ यह सच है कि हमारा मस्तिष्क सुख की अनुभूति चाहता है लेकिन आपको आश्चर्य होगा कि मानवीय मस्तिष्क दुःखी भी होना चाहता है बीच बीच में।
मस्तिष्क में मौजूद छोटे से हिस्से हिप्पोकैम्पस और एमिग्डेला में हमारी यादें, सुखद और दुःखद अनुभूतियाँ लगातार एकत्र होती रहती हैं। दुःख और सुख का अहसास मस्तिष्क की कुछ कोशिकाओं के मस्तिष्क में स्रावित होने वाले कुछ रसायन जैसे डोपामिन, सेरोटोनिन, गाबा इत्यादि के प्रति प्रतिक्रिया देने से होता है। प्रकृति जो कुछ भी बनाती है उसका सम्पूर्ण उपयोग हो जीवन में, सुनिश्चित करती है। और बस इसलिए मस्तिष्क को दुःख न होने पर भी दुःख रच लेने को मज़बूर करती है। इन कोशिकाओं और रसायनों की ज़रूरत है कुछ काम करते रहना। काम दुःख का मिला है तो ये दुःख रचने को मजबूर कर देंगी।
ज़ी हाँ अपने ही जीवन और अपने आसपास के लोगों के स्वभाव पर गौर करना हम सब अनेकों बार काल्पनिक दु:खों का निर्माण करते हैं। या फिर व्यर्थ की नकारात्मकता, अशांति, औरों पर मानसिक आक्रमण कर अपने परिवेश में दुःख रच लेते हैं वह भी तब जब जीवन में सबकुछ सही चल रहा होता है।
शक़, ईर्ष्या, भविष्य के प्रति असुरक्षा का दुःख... मेरा बेटा कुछ न बन पाएगा, मेरा जॉब छूट जाएगा जैसे काल्पनिक दुःख, लोग मेरे विषय में बुरा सोच रहे होंगे, सब मुझसे दूर हो जाएंगे, मुझे कोई नहीं समझता जैसे काल्पनिक दुःख... मस्तिष्क जब सब सही हो जीवन में बनाता ही रहता है।
महिला, पुरुष बच्चे सभी के मस्तिष्क ऐसे ही काम करते हैं। लेकिन हर व्यक्ति के दु:खी होने की ज़रूरत और प्रोग्रामिंग अलग अलग है। जब तक यह जीवन पर बहुत दुष्प्रभाव न डाले यह सामान्य है। महिलाओं में बार बार दु:खी होने की आवश्यकता कुछ ज़्यादा है जिसके लिए वे छोटी छोटी बातों पर चिकचिक रच सकती हैं। लेकिन पुरुष में बार बार की बनिस्पत ज़्यादा ही दु:खी हो जाने की संभावना ज्यादा होती है। जिसमें वे किसी भी हद तक जा सकते हैं।
बिना किसी कारण जब मन उदास हो या जब आप बात का बतंगड़ बना रहे हों तब समझ जाना हिप्पोकैम्पस में मौजूद कोशिकाएं और रसायन ऐसा करवा रहे हैं आपसे न कि आपका पति, पत्नी, बॉस या सास।
क्या इस दुःखी होने की मानवीय आवश्यकता पर जीत हासिल की जा सकती है? दु:खी होना अच्छा कहाँ लगता है? किसे अच्छा लगता है? साथ ही रिश्तों और काम पर भी तो दुष्प्रभाव पड़ता है, व्यक्तित्व पर भी ग़लत छाप पड़ ज़ातीं है बुरे स्वाभाव की।
तो उत्तर है हाँ। मस्तिष्क की इस प्रवृत्ति पर बहुत हद तक जीत हासिल की जा सकती है क्योंकि हिप्पोकैम्पस चालाक होने के साथ साथ मूर्ख भी होता है। और ब्रेन के अन्य हिस्सों जैसे फ्रंटल लोब में मौजूद विश्लेषणात्मक क्षमता का उपयोग कर इस पर विजय प्राप्त कर दुःख की ज़रूरत के एपिसोड और गंभीरता को कम किया जा सकता है।
आसान शब्दों में कहूँ तो अधिकांशतः खुश रहना बाहरी तत्वों की तुलना में आंतरिक तत्वों पर ज़्यादा निर्भर करता है।
और इसलिए खुश रहने का सबसे प्रमुख कदम है यह निर्णय क़ि मैं खुश रहूँगा या खुश रहूँगी।
अब आते हैं कैसे उन मस्तिष्क की कोशिकाओं के दुःख रचने की ज़रूरत पर विजय पाएं।
तो करना यह है क़ि पहले तो इस लेख में दी गयी जानकारी को मस्तिष्क में बैठा लें। यह सच इन कोशिकाओं का आपको अपनी भावनाओं और प्रतिक्रियाओं को बेहतर ढंग से पहचानने में मदद करेगा।
दूसरा जीवन को एवं स्वयं को खुद से ही अलग (detach) हो कर देखें मानो आपका जीवन एक मूवी है और आप खुद एक पात्र जिसका आनंद आप खुद अलग खड़े हो कर देख कर ले पा रहे हैं। यह पात्र जो अति आवेग पूर्ण ओवर एक्टिंग करता दिखेगा तो आप खुद उसे नियंत्रित कर पाएंगे।
इसे दर्शन की भाषा में आत्म चेतना (self awareness) कहते हैं जो कि जीवन के हर क्षेत्र में सफ़लता की बड़ी ज़रूरत है। मैं मैडिटेशन के समय मस्तिष्क के फ्रंटल लोब एवं हिप्पोकैम्पस पर ध्यान केंद्रित करता हूँ इससे भी मदद मिलती है।
अच्छा अब सोच कर बताओ कि, प्रकृति ने ये दुःख और ये दर्द का अहसास बनाया ही क्यों? क्या ज़रूरत थी इन दु:खदायी कोशिकाओं और रसायनों की?
तो उत्तर यह है कि, लाखों वर्षों में परिष्कृत ये अद्भुत कोशिकाएं व्यर्थ नहीं हैं।
दर्द का अहसास और डर हमारे अंगों की क्षति से हमें बचाता है। दर्द एक महत्वपूर्ण सुरक्षा प्रक्रिया है असमय मृत्यु और अपंगता से बचाने का।
इसी तरह दु:ख न हो तो हम जीवन में बहुत से उलटे सीधे काम अपने और अन्य लोगों एवं प्रकृति के प्रति करते रह जाएंगे क्योंकि दुःख होने के अहसास का अंजाम ही हमें न पता होगा। कुछ मानसिक बीमारियों में दुःख का यह अहसास नहीं होता और व्यक्ति हिंसक या हत्यारा तक बन जाता है।
ईर्ष्या, क्रोध, लालच, जैसी नकारात्मक भावनाएं भी सर्वाइवल इंस्टिंक्ट के लिए बेहद ज़रूरी हैं इसलिए प्रकृति ने नैसर्गिक रूप से दी हैं। इन्हें मन से निकालने मानव को जतन करने पड़ते हैं।
प्रकृति लाखों वर्षों से सुरक्षित डीएनए की सुरक्षा हमसे करवाना चाहती है बस। आप दु:खी होते हो, जलते हो, क्रोधित होते हो या प्रेम, करुणा, देखभाल से इसे बचाते हो यह आप पर निर्भर करता है, प्रकृति को तो बस सुरक्षित डीएनए चाहिए।
मानवीय मस्तिष्क में मौजूद मोनोगैमी, पोलीगेमी वगैरह भी सर्वाइवल स्टिंक्ट की अलग अलग स्ट्रेटेजी मात्र हैं। प्रकृति के लिए कुछ भी नैतिक या अनैतिक नहीं। वह बस रिजल्ट चाहती है, DNA की सुरक्षा और अनवरत जीवन का रिजल्ट। हमें कैसे रिजल्ट देना है यह हमारे मोरल, सांस्कृतिक, धार्मिक परिवेश पर निर्भर करता है।
लेख का दर्शन और मनोविज्ञान समझ आया हो तो अपनी दुःख की ज़रूरत वाली कोशिकाओं से कहिये आज बस, बस... हमें तुम्हारा खेल समझ आ गया है। अब और नहीं। कोशिकाओं जाओ लंबा आराम करो।
साभार: डॉ अव्यक्त अग्रवाल
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All the details of sub concious, semi concious and concious mind are classically narrated and widely defined with patanjal yoga sutra
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