भारत के इस पवित्र भूमि पर अनेकों विभूतियों ने जन्म लिया है। आज हम भारत के इस तपोभूमि पर जन्मे एक अवतारी चेतना के बारे में बताने जा रहे हैं जिन्होंने ना केवल भारतीय इतिहास के पन्नों में अपनी अमिट छाप छोड़ी बल्कि विश्व इतिहास के पृष्ठों पर भी प्रभाव डाला। अपने कर्मों के सहारे वे इतनी प्रतापी, लोकप्रिय हो गए कि दुनिया उन्हें कभी चाह कर भी नहीं भूल सकती है। उनकी बातें आज भी उतनी ही प्रसांगिक हैं जितनी उस समय थी जब वो जन चेतना जागृत करने के कार्य में लगे हुए थे। तो आइए संक्षेप में जानते हैं भारतवर्ष के पवित्र भूमि पर जन्मे इस महान संत स्वामी विवेकानंद जी के बारे में।
✍ ● स्वामी विवेकानंद कौन थे
स्वामी विवेकानंद जिनके बचपन का नाम नरेन्द्रनाथ दत्त था, का जन्म सुबह 6:35 सूर्योदय से पहले मकर संक्रांति के दिन 12 जनवरी 1863 को पिता श्री विश्वनाथ दत्त के घर और माता भुवनेश्वरी देवी के गर्भ से कोलकाता के गोरेमोहन मुखर्जी स्ट्रीट ( उस समय कोलकाता भारत में ब्रिटिश शासन की राजधानी थी) के एक सुसंस्कृत कायस्थ परिवार में हुआ था। पिता पेशे से कोलकाता उच्च न्यायालय में एक चर्चित और कुशल वकील थे और माता भुवनेश्वरी देवी एक धार्मिक प्रवृत्ति वाली महिला थीं। वह भगवान शिव की उपासक थीं। धर्म-कर्म में आस्था होने के कारण वह हमेशा से अपनी विचारों और भावनाओं से शुद्ध रहती थी और दूसरे को भी सत कर्म करने के लिए प्रेरित करती थीं। यद्यपि बालक नरेंद्र के पिताजी उन्हें बड़े होकर वकील या कलक्टर बनाना चाहते थे किंतु माता भुवनेश्वरी के धार्मिकता का उनपर गहरा प्रभाव पड़ा। उनकी माताजी उन्हें धार्मिक ग्रंथों से जुड़ी कई धार्मिक रहस्यमयी कथाएं जैसे- महाभारत क्यों हुई? उनके पीछे का इतिहास, रामायण क्यों लिखा गया? उनके क्या कारण थे? आदि कहानियां सुनाया करती थी। यह भी एक कारण थे, नरेंद्र दत्त के जीवन में धार्मिक ग्रंथों के प्रति रुझान बढ़ने लगा। ज्यों-ज्यों नरेंद्र दत्त बड़े होते गए, त्यों- त्यों उनमें धार्मिक चीजों को जानने की जिज्ञासा बढ़ती गई।
👉 बालक नरेंद्र पर माता और पिता के अच्छे संस्कारो और अच्छी परवरिश का अनुकूल प्रभाव पड़ा और उन्हें बाल्यकाल में ही एक अच्छा आकार और एक उच्चकोटि की सोच मिली। कहा जाता है कि नरेन्द्र नाथ बचपन से ही नटखट थे, किंतु वो तेज बुद्धि के व्यक्ति थे वे अपनी प्रतिभा के इतने प्रखर थे कि एक बार जो भी उनके नजर के सामने से गुजर जाता था वे कभी भूलते नहीं थे और दोबारा उन्हें कभी उस चीज को फिर से पढ़ने की आवश्यकता भी नहीं पढ़ती थी। बालक नरेन्द्र नाथ जब 8 वर्ष के हुए तब 1871 में उनका ईश्वर चंद विद्यासागर के मेट्रोपोलिटन संस्थान में एडमिशन कराया गया। लेकिन1877 में उनकी पढ़ाई बाधित हो गई थी दरअसल उनके परिवार को किसी कारणवश अचानक रायपुर जाना पड़ा था। लेकिन 1879 में, उनके परिवार के कलकत्ता वापिस आ जाने के बाद प्रेसीडेंसी कॉलेज की एंट्रेंस परीक्षा में फर्स्ट डिवीज़न लाने वाले वे पहले विद्यार्थी बने। वे विभिन्न विषयों जैसे दर्शन शास्त्र, धर्म, इतिहास, सामाजिक विज्ञान, कला और साहित्य के उत्सुक पाठक थे। सनातन धर्मग्रंथो में भी उनकी रूचि थी जैसे वेद, उपनिषद, भगवत गीता, रामायण, महाभारत और पुराण। इसके साथ ही नरेंद्र भारतीय पारंपरिक संगीत में निपुण हो गए थे, और हमेशा शारीरिक योग, खेल और सभी गतिविधियों में सहभागी होते थे। 1881 में उन्होनें ललित कला की परीक्षा उत्तीर्ण की थी वहीं 1884 में उन्होनें कला विषय से स्नातक की डिग्री पूरी कर ली थी। 1884 का समय जो कि नरेंद्रनाथ के लिए बेहद दुखद था क्योंकि इस दौरान उन्होनें अपने पिता को खो दिया था। पिता की मृत्यु के बाद उनके ऊपर अपने भाईयो-बहनों की जिम्मेदारी आ गई लेकिन वे घबराए नहीं और हमेशा अपने दृढ़संकल्प में अडिग होकर इस जिम्मेदारी को बखूबी निभाया। 1889 में नरेन्द्र का परिवार वापस कोलकाता लौटा। इस समय तक उनका लगाव दर्शन, धर्म, इतिहास और समाजिक विज्ञान जैसे विषयों में बहुत हद तक बढ़ गया था। वेद उपनिषद, रामायण, गीता और शास्त्र वे उत्साह के साथ पढ़ते थे यही वजह है कि युवावस्था तक वे ग्रन्थों और शास्त्रों के ज्ञाता बन गए थे।
✍ ● नरेन्द्रनाथ से स्वामी विवेकानंद बनने की गाथा
बचपन से ही बड़ी जिज्ञासु प्रवृत्ति के नरेंद्र के सवालों का हल अधिकांश लोगों के पास नहीं होता था। एक बार महर्षि देवेन्द्र नाथ से सवाल पूछा था कि ‘क्या आपने ईश्वर को देखा है?’ नरेन्द्र के इस सवाल से महर्षि आश्चर्य में पड़ गए और उन्होनें इस जिज्ञासा को शांत करने के लिए नरेंद्र नाथ को रामकृष्ण परमहंस के पास जाने की सलाह दी जिसके बाद उन्होनें उनके अपना गुरु मान लिया और उन्हीं के बताए गए मार्ग पर आगे बढ़ते चले गए। इस दौरान विवेकानंद जी रामकृष्ण परमहंस से इतने प्रभावित हुए कि उनके मन में अपने गुरु के प्रति कर्तव्यनिष्ठा और श्रद्धा बढ़ती चली गई। दुर्भाग्यवश 1885 में रामकृष्ण परमहंस कैंसर से पीड़ित हो गए। इस दौरान विवेकानंद जी ने अपने गुरु की सेवा की। रामकृष्ण उनके समर्पण भाव को देखकर बहुत प्रसन्न हुए। इस तरह गुरु और शिष्य के बीच का रिश्ता मजबूत होता चला गया। रामकृष्ण के निधन के बाद, 25 वर्ष की आयु में ही स्वामी विवेकानन्द ने गेरुआ वस्त्र पहन लिए और इसके बाद वे पूरे भारत वर्ष की पैदल यात्रा के लिए निकल पड़े। अपनी पैदल यात्रा के दौरान अयोध्या, वाराणसी, आगरा, वृन्दावन, अलवर समेत कई जगहों पर पहुंचे।
👉 इस यात्रा के दौरान वे राजाओं के महल में भी रुके और गरीब लोगों की झोपड़ी में भी रुके। पैदल यात्रा के दौरान उन्हें अलग-अलग क्षेत्रों और उनसे संबंधित लोगों की जानकारी मिली। 23 दिसम्बर 1892 को विवेकानंद कन्याकुमारी पहुंचे जहां वह 3 दिनों तक एक गंभीर समाधि में रहे। यहां से वापस लौटकर वे राजस्थान के आबू रोड में अपने गुरुभाई स्वामी ब्रह्मानंद और स्वामी तुर्यानंद से मिले। जिसमें उन्होनें अपनी भारत यात्रा के दौरान हुई वेदना प्रकट की और कहा कि उन्होंने इस यात्रा में देश की गरीबी और लोगों के दुखों को जाना है और वे ये सब देखकर बेहद दुखी हैं। इसके बाद उन्होनें इन सब से मुक्ति के लिए अमेरिका जाने का फैसला लिया। अमेरिका की यात्रा से पूर्व वो खेत्री के महाराज अजित सिंह जी से मिलने पहुंचे, जिन्होंने उनके यात्रा की व्यवस्था की और उन्हें नाम दिया स्वामी विवेकानंद। इस तरह 30 वर्ष की आयु में 'नरेन्द्रनाथ' को 'स्वामी विवेकानंद' के नाम से एक नई पहचान मिली।
✍ ● स्वामी जी की अमेरिका यात्रा और शिकागो भाषण
1893 में विवेकानंद शिकागो पहुंचे जहां 11 सितंबर को उन्होनें विश्व धर्म सम्मेलन में हिस्सा लिया। इस दौरान एक जगह पर कई धर्मगुरुओं ने अपनी किताब रखी वहीं भारत के धर्म के वर्णन के लिए श्री मदभगवत गीता रखी गई थी जिसका खूब मजाक उड़ाया गया, लेकिन जब विवेकानंद में अपने अध्यात्म और ज्ञान से भरा ओजपूर्ण भाषण की शुरुआत की तब सभागार तालियों से गड़गड़ाहट से गूंज उठा। स्वामी विवेकानंद के भाषण में जहां वैदिक दर्शन का ज्ञान था वहीं उसमें दुनिया में शांति से जीने का संदेश भी छुपा था, अपने भाषण में स्वामी जी ने कट्टरतावाद और सांप्रदायिकता पर जमकर प्रहार किया था। उन्होनें इस दौरान भारत की एक नई छवि बनाई। इसके साथ ही वे लोकप्रिय होते चले गए। धर्म संसद खत्म होने के बाद अगले 3 सालों तक स्वामी विवेकानंद अमेरिका में वेदांत की शिक्षाओं का प्रचार-प्रसार करते रहे। वहीं अमेरिका की प्रेस ने स्वामी विवेकानंद को ”Cylonic Monk From India” का नाम दिया था। इसके बाद 2 साल उन्होनें शिकागो, न्यूयॉर्क, डेट्राइट और बोस्टन में लेक्चर दिए । वहीं 1894 में न्यूयॉर्क में उन्होनें वेदांत सोसाइटी की स्थापना की। 1 मई 1897 को स्वामी विवेकानंद कोलकाता वापस लौटे और उन्होनें रामकृष्ण मिशन की स्थापना की जिसका मुख्य उद्देश्य नए भारत के निर्माण के लिए अस्पताल, स्कूल, कॉलेज और साफ-सफाई के क्षेत्र में कदम बढ़ाना था। साहित्य, दर्शन और इतिहास के विद्धान स्वामी विवेकानंद ने अपनी प्रतिभा का सभी को कायल कर दिया था और अब वे नौजवानों के लिए आदर्श बन गए थे। 1898 में स्वामी जी ने बेलूर मठ की स्थापना की जिसने भारतीय जीवन दर्शन को एक नया आयाम प्रदान किया। इसके अलावा भी स्वामी विवेकानंद जी ने अन्य दो और मठों की स्थापना की। स्वामी विवेकानन्द अपनी दूसरी विदेश यात्रा पर 20 जून 1899 को अमेरिका चले गए। इस यात्रा में उन्होने कैलिफोर्निया में शांति आश्रम और सैनफ्रान्सिस्को और न्यूयॉर्क में वेदांत सोसायटी की स्थापना की।
👉 जुलाई 1900 में स्वामी जी पेरिस गए जहां वे ‘कांग्रेस ऑफ दी हिस्ट्री रीलिजंस’ में शामिल हुए। करीब 3 माह पेरिस में रहे, इस दौरान उनके शिष्य भगिनी निवेदिता और स्वानी तरियानंद थे। इसके बाद वे 1900 के आखिरी में भारत वापस लौट गए। इसके बाद भी उनकी यात्राएं अनवरत जारी रहीं। 1901 में उन्होनें बोधगया और वाराणसी की तीर्थ यात्रा की। इस दौरान उनका स्वास्थय लगातार खराब होता चला जा रहा था। अस्थमा और डायबिटीज जैसी बीमारियों ने उन्हें घेर लिया था। इस समय तक विवेकानंद के ओजस्वी और सारगर्भित व्याख्यानों की प्रसिद्धि विश्व भर में हो चुकी थी। उनका स्वास्थ्य धीरे धीरे बिगड़ता ही जा रहा था। जीवन के अन्तिम दिन उन्होंने शुक्ल यजुर्वेद की व्याख्या की और कहा-"एक और विवेकानंद चाहिये, यह समझने के लिये कि इस विवेकानंद ने अब तक क्या किया है।" उनके शिष्यों के अनुसार जीवन के अन्तिम दिन ४ जुलाई १९०२ को भी उन्होंने अपनी ध्यान करने की दिनचर्या को नहीं बदला और प्रात: दो-तीन घंटे ध्यान किया और ध्यानावस्था में ही अपने ब्रह्मरन्ध्र को भेदकर महासमाधि ले ली। इसके बाद बेलूर में गंगा तट पर चन्दन की चिता पर उनकी अंत्येष्टि की गयी। इसी गंगा तट के दूसरी ओर उनके गुरु रामकृष्ण परमहंस का सोलह वर्ष पूर्व अन्तिम संस्कार हुआ था। उनके शिष्यों और अनुयायियों ने उनकी स्मृति में वहाँ एक मन्दिर बनवाया और समूचे विश्व में विवेकानंद तथा उनके गुरु रामकृष्ण के सन्देशों के प्रचार के लिये १३० से अधिक केन्द्रों की स्थापना की।
✍ टिप्पणी : स्वामी विवेकानंद जी अत्यंत प्रभावशाली और बुद्दिजीवी व्यक्ति थे। उनके विचारों से हर कोई प्रभावित होता था क्योंकि स्वामी जी के विचारों में हमेशा से ही राष्ट्रीयता शामिल रही है। उन्होनें हमेशा देशवासियों के विकास के लिए काम किया है वहीं उनके कई अनमोल विचारों को मानकर कोई भी मनुष्य अपना जीवन संवार सकता है। स्वामी विवेकानंद जी मानते थे कि हर व्यक्ति को अपनी जीवन में एक विचार या फिर संकल्प निश्चत करना चाहिए और अपनी पूरी जिंदगी उसी संकल्प के लिए न्यौछावर कर देना चाहिए, तब जाकर सफलता प्राप्त होगी। स्वामी विवेकानंद जी एक रहस्यमयी व्यक्ति थे ऐसा हम इसलिए कह रहे हैं क्योंकि आप जितना उनके बारे में पढ़ेंगे उतना ही आपको उनके नए विचार प्राप्त होंगे। ये विचार निज जीवन से लेकर मानव कल्याण के लिए महत्वपूर्ण हैं। हम शत शत नमन करते हैं स्वामी विवेकानंद जी जिन्होंने विश्व में सनातन धर्म का व्यापकता से प्रचार-प्रसार किया था।