बात है 1977 की जब मोरारजी देसाई भारत के पहले गैर-कांग्रेसी प्रधानमंत्री बने, तो लगा कि एक नया दौर शुरू होगा। लेकिन ये दौर शुरू हुआ एक ऐसे फ़ैसले से, जिसने न सिर्फ़ भारत के खुफिया तंत्र को तबाह किया, बल्कि पाकिस्तान को परमाणु शक्ति बनने का रास्ता भी साफ कर दिया।कहानी है मोरारजी के उस एक फोन कॉल की, जिसमें उन्होंने पाकिस्तान के तानाशाह जनरल जिया-उल-हक को RAW के सारे राज़ खोलकर रख दिए—और इसके साथ ही भारत के कई जासूसों की ज़िंदगी खत्म कर दी।
1968 में इंदिरा गांधी ने रिसर्च एंड एनालिसिस विंग (RAW) की स्थापना की थी, और 1970 के दशक तक ये एजेंसी अपने चरम पर थी। पाकिस्तान के परमाणु महत्वाकांक्षाओं पर नज़र रखना इसका एक बड़ा मिशन था, खास तौर पर कहूता न्यूक्लियर फैसिलिटी को लेकर।RAW के जासूसों ने बड़ी चतुराई से पता लगाया था कि पाकिस्तान अपना "इस्लामिक बम" बनाने की राह पर है। एक एजेंट ने कहूता के पास एक नाई की दुकान से वैज्ञानिकों के बालों के सैंपल इकट्ठे किए, जिनके विश्लेषण से पक्का हुआ कि पाकिस्तान यूरेनियम को हथियार-ग्रेड तक समृद्ध कर रहा था।
ये एक बड़ी कामयाबी थी—और RAW के पास इस खुफिया जानकारी को भुनाने का मौका था।1978 में, RAW ने पीएम मोरारजी देसाई से एक गुप्त ऑपरेशन के लिए फंड मंज़ूर करने की माँग की। प्लान था कि पाकिस्तानी मोल्स को रिश्वत देकर कहूता प्लांट का ब्लूप्रिंट हासिल किया जाए—एक ऐसा कदम जो पाकिस्तान के परमाणु कार्यक्रम को पटरी से उतार सकता था। लेकिन यहाँ से कहानी एक अनपेक्षित मोड़ लेती है।
मोरा देसाई, जो कट्टररजी गांधीवादी थे, ने RAW के प्रस्ताव को साफ़ ठुकरा दिया। उनका कहना था कि "हम अपने पड़ोसी देश के आंतरिक मामलों में दखल नहीं देंगे"—एक आदर्शवादी रुख जो शायद शांति के समय में नेक लगता, लेकिन भू-राजनीतिक हकीकत में विनाशकारी था। लेकिन ये तो बस शुरुआत थी। जो अगला कदम उन्होंने उठाया, वो शायद भारत के खुफिया इतिहास की सबसे बड़ी भूल थी।
एक टेलीफोन बातचीत में, मोरारजी ने जनरल जिया-उल-हक को बता दिया कि भारत को पाकिस्तान के परमाणु कार्यक्रम के बारे में सब पता है। ये बात जिया के लिए एक संकेत थी। बी. रमन, एक सीनियर RAW अधिकारी, ने अपनी किताब द काओबॉयज़ ऑफ RAW में लिखा है कि जिया ने मोरारजी को चापलूसी से लुभाया—यूरिन थेरेपी और देसी दवाइयों पर बातें करके उनका भरोसा जीता।और एक "असावधान पल" में, मोरारजी ने ये कह दिया कि भारत के पास पाकिस्तान में जासूस हैं जो सब देख रहे हैं। इस एक वाक्य ने RAW के सालों के काम को मिट्टी में मिला दिया।
जिया ने फौरन एक्शन लिया। पाकिस्तान ने अपने परमाणु ठिकानों के आस-पास सुरक्षा कड़ी की और एक सुनियोजित शिकार शुरू किया। RAW के जासूस, जो सालों से गुप्त रूप से काम कर रहे थे, एक-एक करके पकड़े गए। उन्हें क्रूर यातनाओं से गुज़रना पड़ा—कई को मार दिया गया,कई पर डबल-एजेंट बनने का दबाव डाला गया। मोहनलाल भास्कर, एक भारतीय जासूस जिन्होंने अपनी किताब एन इंडियन स्पाई इन पाकिस्तान में अपने अनुभव लिखे, ने इस वक्त का ज़िक्र किया है। भास्कर, जो खुद पाकिस्तानी जेलों में कैदी थे, ने बताया कि मोरारजी के इस "विश्वासघात" के बाद भारतीय जासूसों के लिए वहाँ जीवित रहना एक बुरा सपना बन गया। उन्होंने लिखा कि जब उन्होंने मोरारजी से मदद माँगी, तो उनका जवाब था: "हमें आपके पाकिस्तान में किए कामों का खामियाजा क्यों भुगतना चाहिए?"—एक ऐसा बयान जो जासूसों के बलिदान को नकार देता है।
पाकिस्तान ने इस मौके का पूरा फायदा उठाया। RAW का नेटवर्क खत्म होने के बाद, भारत के पास पाकिस्तान के परमाणु कार्यक्रम पर नज़र रखने का कोई ठोस ज़रिया नहीं बचा। 1998 में जब पाकिस्तान ने अपने परमाणु परीक्षण किए, तो ये उस खुफिया अंधेरे का सीधा नतीजा था जो मोरारजी की वजह से शुरू हुआ।विडंबना ये थी कि 1990 में पाकिस्तान ने मोरारजी देसाई को अपना सबसे बड़ा नागरिक सम्मान, निशान-ए-पाकिस्तान, दिया। आधिकारिक तौर पर कहा गया कि ये उनके "शांति प्रयासों" के लिए था। लेकिन खुफिया हलकों में ये बात मशहूर है कि जिया ने मोरारजी को ये अवॉर्ड एक "धन्यवाद" के तौर पर दिया—उस संकेत के लिए जिसने पाकिस्तान का परमाणु सपना सच कर दिखाया। मोरारजी अकेले भारतीय बने जो इस सम्मान के हकदार ठहरे—एक रिकॉर्ड जो शायद कभी न टूटे।
मोरारजी देसाई का ये फ़ैसला आज भी बहस का विषय है। समर्थक कहते हैं कि वो एक सिद्धांतवादी गांधीवादी थे जो शांति चाहते थे। आलोचक कहते हैं कि उनकी भोली सोच भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए भारी पड़ी। RAW के साथ काम करने वाले लोग उन्हें कभी माफ़ नहीं कर पाए।