खतरे में सिर्फ इसलिए आ गयी क्योंकि एक व्यक्ति विशेष को पूरे देश ने अपना नेता मान लिया...
खतरे में आ गयी क्योंकि उसने अपने फैसलों से दस साल के भीतर न सिर्फ कई अप्रत्याशित प्रतिमान स्थापित किये बल्कि देश में एक नयी ऊर्जा और स्वाभिमान का संचार किया...
भारतीय राजनीति तब खतरे में नहीं आयी थी जब देश के हर कोने में अलग अलग प्रायोजित युद्ध छेड़े गये...
राजनीति तब खतरे में नहीं थी जब मालदा में हिंसा हुई, राजनीती तब खतरे में नहीं थी जब असम के कोकराझार जैसे इलाकों में हिंदी बोलने वालों को बस से उतारकर गला काट दिया जाता था...
राजनीति खतरे में तब नहीं आयी जब दक्षिणी गारो हिल, मेघालय में खुलेआम बच्चों के सामने ही उग्रवादियों ने माँ से दुराचार किया और बाद में हत्या कर दी...
राजनीति तब सुरक्षित थी जब सीमावर्ती इलाकों में ये डर पैदा किया गया कि इंडिया का मतलब हिंदी और हिन्दू है और तुम इंडिया में हो इसका मतलब भारत तुमसे जल्द ही तुम्हारी अपनी पहचान छीन लेगा... इसी डर ने लोगों को अलगाववादी बनाया... साठ के दशक में पूर्वोत्तर में नेहरू एंड पार्टी द्वारा राजनैतिक हल खोजने की बजाय सैन्य कार्यवाहियों पर भरोसा जताया गया और पूर्वोत्तर जल उठा...
भारत के खिलाफ भारतीय लोगों को ही भड़का के रखा गया... लगभग पूरे पूर्वोत्तर में कांग्रेस द्वारा ही अफ्सपा लगाया गया और साथ ही सत्ता सुख भी भोगा गया... केन्द्र से पैसा जाता था और उग्रवादियों में बाँट दिया जाता था... सुन के आपको भले यकीं न हो पर पूर्वोत्तर में आज भी कई जगहों पर पुलिस और प्रशासनिक अधिकारियों को उग्रवादी संगठनों को पैसा देना पड़ता है... देश बाह्य आक्रांताओं से ज्यादा आतंरिक उत्पात से परेशान था...
फिर मोदी दौर आया... मन की बात शुरू से ही झूठ के कारोबारी लोगो को जुमला लगती थी क्योंकि मोदी ने रेडियो के माध्यम से लोगों में सिर्फ ये विश्वास दिलाया कि आपकी स्थानीय संस्कृति के हम रक्षक हैं, और भारत का मतलब ही है कि देश के हर हिस्से की अपनी अपनी खासियत और अपना अपना स्वाभिमान है... एक्ट ईस्ट पालिसी के तहत तेजी से काम हुए... एशियाई महामार्गों का काम शुरू हुआ, लामडिंग सिल्चर रेलवे लाइन का चौड़ीकरण, सिल्चर जिरीबाम पैसेंजर ट्रेन, मणिपुर में रेलवे लाइन का मोरे गेट (बर्मा बॉर्डर) तक पहुँचाने की योजना, ब्रह्मपुत्र पर भूपेन हजारिका ब्रिज का निर्माण और नार्थ ईस्ट में केंद्रीय मंत्रियों और नीति आयोग के अधिकारियों की अनेकों यात्राओं ने केंद्र और स्थानीय लोगों के बीच में विश्वास सूत्र का काम किया...
जहाँ तक जोड़ तोड़ की बात है, विशुद्ध अलगाववादी सरकार बनने से अच्छा है कि स्थानीय सत्ता में राष्ट्रीय चरित्र सम्मिलित हो... कश्मीर में ही पीडीपी के साथ भले ही सत्ता साझा हो पर हर रोज कोई न कोई बुरहान, बकास, सब्जार और दुजाना टपक ही रहे हैं...
कोई भारतीय राजनीति और लोकतंत्र खतरे में नहीं है... अगर खतरे में कुछ है तो वो है दशकों से चली आ रही वो ठगी की परंपरा, जिसने राष्ट्र के राष्ट्रीय चरित्र को कभी फलीभूत होने नहीं दिया...