अरुण योगीराज ने इंडिया टुडे से बात करते हुए कहा कि ये कार्य उन्होंने खुद नहीं किया भगवान ने उनसे करवाया है। वह कहते हैं कि जब वो रामलला की मूर्ति को गढ़ रहे थे तो रोज उस मूर्ति से बात करते थे। वह कहा करते थे, “प्रभु बाकी लोगों से पहले मुझे दर्शन दे दो।” योगीराज की मानें तो जब मूर्ति की प्राण-प्रतिष्ठा हुई तो उन्हें लगा ही नहीं कि वो मूर्ति उनके द्वारा बनाई गई है। उसके हाव-भाव बदल चुके थे। इस बारे में उन्होंने लोगों से कहा भी कि उन्हें नहीं विश्वास हो रहा मूर्ति उनके द्वारा बनाई गई है। उन्होंने माना कि अगर वो कोशिश भी करें तो दोबारा इस तरह का विग्रह कभी नहीं बना सकते।
उन्होंने कहा, “जब मैंने मूर्ति बनाई तब वो अलग थी। गर्भगृह में जाने के बाद और प्राण-प्रतिष्ठा के बाद वो अलग हो गई। मैंने 10 दिन गर्भगृह में बिताए। एक दिन जब मैं बैठा था मुझे अंदर से लगा ये तो मेरा काम है ही नहीं। मैं उन्हें पहचान नहीं पाया। अंदर जाते ही उनकी आभा बदल गई। मैं उसे अब दोबारा नहीं बना सकता। जहाँ तक छोटे-छोटे विग्रह बनाने की बात है वो बाद में सोचूँगा।”
रामलला की मूर्ति पर इंटरव्यू देते समय अरुण योगीराज नंगे पाँव बैठे दिखे। उन्होंने कहा कि राम को दुनिया को दिखाने से पहले खुद मानना था कि मूरत में राम हैं। वह बोले, “मैं दुनिया को दिखाने से पहले उनके दर्शन करना चाहता था। मैं उन्हें कहता था-दर्शन दे दीजिए प्रभु। तो, भगवान मेरी जानकारी जुटाने में खुद मदद कर रहे थे। कभी दीपावली के वक्त कोई जानकारी मिल गई। कुछ तस्वीरें मुझे वो मिल गईं जो 400 साल पुरानी थीं। हनुमान जी भी हमारे दरवाजे पर आते थे गेट खटखटाते थे, सब देखते थे, फिर चले जाते थे।”
अपने अद्भुत अनुभवों को बताते हुए उन्होंने कहा, “मूर्ति बनाने के दौरान हर रोज एक बंदर शाम में 4 से 5 बजे के बीच उस जगह आता था, वो सब देखकर चला जाता था। ठंड में हम दरवाजे बंद करने लगे। जब उसने ऐसा देखा तो वो तेज की दरवाजा खोलता अंदर आता, देखता और चला जाता। शायद उनका भी देखने का मन होता होगा।”
योगीराज से जब पूछा गया कि क्या उन्हें सपने भी आते थे कुछ, तो उन्होंने कहा कि वो पिछले 7 महीनों से ढंग से सो ही नहीं पाए हैं। इसलिए वो इस पर कुछ नहीं कह सकते। उनके जहन में हमेशा था कि जो वो कर रहे हैं वो देश को पसंद आना चाहिए। उन्होंने कहा कि उनकी विश्वकर्मा समुदाय सदियों से यही काम करता आया है। उनके स्थानीय क्षेत्र में कहावत भी चलती है- ‘भगवान के स्पर्श से पत्थर फूल बन गए और शिल्प के स्पर्श से पत्थर भगवान बन गए।’
इतना सराहनीय कार्य करने के बाद भी अरुण इस रामलला के विग्रह के लिए सारा श्रेय खुद नहीं लेते। वो कहते हैं कि भगवान ने उनसे ये करवाया है। वरना वो मूर्ति कैसे गढ़ पाते।