यह प्रसंग महाभारत के आदि पर्व के 131 वे अध्याय का है। जब एकलव्य ने कुत्ते का मुंह बाणों से भर दिया था वो भी बिना क्षति पहुँचाए। तब पाण्डु पुत्रों ने उस से परिचय लिया, तब एकलव्य उनसे कहता है कि :-
निषादाधिपतेवींरा हिरण्यधनुषः सुतम्।
द्रोणशिष्यं च मां वित्त धनुर्वेदकृतश्रमम् ।। 45 ।।
(महाभारत, आदि पर्व, 131 वे अध्याय)
एकलव्य ने कहा वीरों! आप लोग मुझे निषाद राज हिरण्यधनु का पुत्र तथा द्रोणाचार्य का शिष्य जानें। मैंने धनुर्वेद में विशेष परिश्रम किया है।
हिरण्यधनु निषाद समाज से थे। परंतु वर्तमान के समय की तरह, उस समय निषाद कोई निचली जाती नहीं थी, ये जातियाँ तो अंग्रेजों द्वारा बनाई गई हैं! और समाज को तोड़ने के उद्देश्य से कुछ जातियों को निचले स्तर का दिखाया गया। आप इस बात का अनुमान इसी से लगा सकते हैं कि हिरण्यधनु, मगध के राजा जरासंध के प्रधान सेनापति थे और पूरी महाभारत में एकलव्य को कहीं भी निचली जाती का नहीं बताया गया। तो फिर वह निचली जाती में कैसे चले गए। जातियां तो होती ही नहीं थीं भारत में!
अंग्रेजों और वामपंथियों द्वारा यह बात हम सबसे छिपाई गई,
और वह ये अच्छे से जानते थे की भारत की आने वाली पीढ़ी, अपने ग्रंथों को खोल कर देखेगी भी नहीं! लेकिन वो गलत साबित हुए, आज भारतीय युवा अपने धर्म के प्रति उतना ही संवेदनशील है जितना अंग्रेज उसे गलत साबित करने के लिए थे।
एक अन्य घटना जिसका उल्लेख किया जाता है, वह है राम जी द्वारा शम्बूक ऋषि का किया गया वध, जिन्हें शूद्र जाति का कहा गया। जिस का उल्लेख वाल्मीकि रामायण के उत्तर कांड में मिलता है।
वाल्मीकि रामायण के उत्तर कांड के 73 वे सर्ग के अनुसार एक बार एक ब्राह्मण का बेटा अकाल मृत्यु को प्राप्त हो गया,
अर्थात 14 वर्ष की आयु में ही उसकी मृत्यु हो गई,
इस बात से वह ब्राह्मण अत्यंत दुखी हो गया, और इसका दोषारोपण राम जी के ऊपर कर दिया।
न स्मराम्यनृतं ह्युक्तं न च हिंसां स्मराम्यहम्।
सर्वेषां प्राणिनां पापं न स्मरामि कदाचन ।। 7 ।।
केनाद्य दुष्कृतेनायं वाल एव ममात्मजः।
अकृत्वा पितृकार्याणि गंता वैवस्वतक्षयम् ।। 8 ।।
अर्थात:- मुझे स्मरण नहीं कि मैंने किसी से झूठ बोला अथवा कभी जीव हत्या की अथवा कभी कोई अन्य प्रकार का मैंने पाप किया। फिर भी न मालूम किस पाप कर्म के फल से यह बालक अपने पिता की अंत्येष्टि क्रिया किये बिना ही यमलोक को चला गया।
नेदृशं दृष्टपूर्वं मे श्रुतं वा घोरदर्शनम् ।
मृत्युरप्राप्तकालानां रामस्य विपये ह्ययम् ।। 9 ।।
अर्थात:- श्रीराम राज्य में तो ऐसी बड़ी भयानक घटना,
न तो कभी देखने में आयी और न सुनने में आयी कि समय के पूर्व ही कोई बालक मर गया हो।
रामस्य दुष्कृतं किञ्चिन्महदस्ति न संशयः।
यथा हि विषयस्थानां वालानां मृत्युरागतः ।। 10 ।।
अर्थात:- अतएव निस्सन्देह श्रीराम ही का कोई बड़ा दुष्कर्म इसका कारण है, जिससे उनके राज्य में बसने वाला यह बालक मरा है।
तब राम जी आश्चर्यपूर्वक सोचते हैं कि उनके कारण इस बालक की मृत्यु कैसे हुई होगी,
उनसे ऐसा कौन सा पाप हुआ है जिसकी सजा प्रजा को भुगतनी पड़ रही है। तब नारद जी उनसे कहते हैं कि मैं जो आपको बताने जा रहा हूँ उसे सुनकर आपको जो करना है वो करियेगा। नारदजी बताते हैं कि सतयुग में केवल ब्राह्मणों को ही पूजा अनुष्ठान करने का अधिकार था। जब त्रेतायुग आया तो पीछे-पीछे क्षत्रीयों को भी पूजा का अधिकार मिला। परंतु त्रेतायुग में वैश्यों और शूद्रों को पूजा का अधिकार नहीं है। वैश्यों को द्वापरयुग में अधिकार मिला और शूद्रों को कलयुग में। जैसे-जैसे धर्म के चरण टूटते गए वैसे-वैसे अन्य वर्णों को भी पूजा का अधिकार मिलता गया।
त्रिभ्यो युगेभ्यस्त्रीन्वर्णान् धर्मश्च परिनिष्ठितः।
न शूद्रो लभते धर्मं युगतस्तु नरर्षभ ।। 26 ।।
(वाल्मीकि रामायण,
उत्तर कांड,
74 वा सर्ग)
अर्थात:- इस प्रकार युग-युग में तपरूपी धर्म तीन वर्णों में प्रतिष्ठित हुआ है। किन्तु हे नरश्रेष्ठ! इन तीनों युगों (सतयुग,
त्रेतायुग, द्वापरयुग) में शूद्रों को तप का अधिकार नहीं है।
नारदजी आगे कहते हैं कि :-
हीनवर्णो नृपश्रेष्ठ तप्यते सुमहत्तपः ।
भविष्यच्छूद्रयोन्यां हि तपश्चर्या कलौ युगे ।। 27 ।।
(वाल्मीकि रामायण,
उत्तर कांड,
74 वा सर्ग)
अर्थात:- हे नृपश्रेष्ठ ! परन्तु हीन वर्ण शूद्र भी बड़ा तप करता है। किन्तु कलियुग ही में, शूद्र योनि में उत्पन्न जीव तप करेंगे।
अधर्मः परमो राजन् द्वापरे शुद्रजन्मनः।
स वै विषयपर्यन्ते तव राजन्महातपाः ।। 28 ।।
अद्य तप्यति दुर्बुद्धिस्तेन वालवधो ह्ययम्।
यो ह्यधर्मकार्यं वा विषये पार्थिवस्य तु ।। 29 ।।
(वाल्मीकि रामायण,
उत्तर कांड,
74 वा सर्ग)
अर्थात:- हे राजन् ! यदि द्वापर में शूद्र तप करे,
तो भी बड़ा अधर्म है; किन्तु आपके राज्य में तो इसी समय एक महा तपस्वी दुर्बुद्धि शूद्र, तप करता है। इसी से इस ब्राह्मण का बालक मरा है। क्योंकि जिस राजा के राज्य में कोई अधर्म या प्रकार्य होता है वहाँ दरिद्रता फैलती है।
दुष्कृतं यत्र पश्येथास्तत्र यत्नं समाचर।
एवं चेद्धर्मवृद्धिश्व नृणां चायुर्विवर्धनम्।
भविष्यति नरश्रेष्ठ वालस्यास्य च जीवितम् ।। 33 ।।
(वाल्मीकि रामायण,
उत्तर कांड,
74 वा सर्ग)
अर्थात:- हे नरश्रेष्ठ ! जहाँ कहीं आप पाप होता देखें,
वहाँ-वहाँ प्रयत्न पूर्वक उसको रोकिए। ऐसा करने से धर्म की वृद्धि होगी,
मनुष्यों की आयु बढ़ेगी और यह मरा हुआ ब्राह्मण बालक भी जी उठेगा।
ऐसा सुनकर राम जी लक्ष्मण जी को राज्य का कार्य सौंपकर अपने राज्य में देखने निकले कि वह व्यक्ति कौन है जो इतनी तपस्या कर रहा है। पश्चिम दिशा को खोजा पर वहाँ कोई ना मिला, इसके बाद पूर्व दिशा में भी कोई ना मिला और उत्तर दिशा में भी कोई ना मिला फिर जब दक्षिण दिशा में गए तब कहीं उन्हें एक पेड़ पर उल्टे लटके हुए एक ऋषि मिले। पूछने पर उन्होंने बताया कि वह एक शूद्र हैं।
दक्षिणां दिशमाक्रामत्ततो राजर्पिनन्दनः।
शैवलस्योत्तरे पार्श्वे ददर्श सुमहत्सरः ।। 13 ।।
(वाल्मीकि रामायण,
उत्तर कांड,
75 वा सर्ग)
अर्थात:- राजर्षिनन्दन श्रीरामचन्द्र जी पूर्व दिशा से दक्षिण दिशा में आए। वहाँ उन्होंने विन्ध्याचल के उत्तर पार्श्व में शैवल पर्वत की ओर एक बड़े तालाब को देखा।
तस्मिन्सरसि तप्यन्तं तापसं मुमहत्तपः।
ददर्श राघवः श्रीमाँल्लम्वमानमधोमुखम् ।। 14 ।।
(वाल्मीकि रामायण,
उत्तर कांड,
75 वा सर्ग)
अर्थात:- महा तपस्वी श्रीमान् रामचन्द्र जी ने एक ऐसे तपस्वी को देखा,
जो नोचे को मुख कर लटकता हुआ, तपस्या कर रहा था।
राघवस्तमुपागम्य तप्यन्तं तप उत्तमम्।
उवाच च नृपो वाक्यं धन्यस्त्वमसि मुव्रत ।। 5।।
(वाल्मीकि रामायण,
उत्तर कांड,
75 वा सर्ग)
अर्थात:- श्रीरामचन्द्र जी उस उत्तम प्रकार से तप करने वाले के पास जा कर कहने लगे- हे सुव्रत धन्य है तुमको।
कस्यां यान्यां तपोवृद्ध वर्तसे दृढविक्रम।
कौतूहलात् त्वां पृच्छामि रामो दाशरथिर्ह्यद्दम् ।। 16 ।।
(वाल्मीकि रामायण,
उत्तर कांड,
75 वा सर्ग)
अर्थात:- हे दृढ़ विक्रमी तपोवृद्ध ! भला यह तो बतलाओ कि, तुम्हारी जाति कौन सी है?
तुमसे यह मैं कौतूहल वश पूछ रहा हूँ। मैं महाराज दशरथ का पुत्र हूँ और मेरा नाम राम है।
राम जी के बार-बार उस वृद्ध की तपस्या करने का उद्देश्य पूछने पर वह उनसे कहता है कि:-
शूद्रयोन्यां प्रजातोऽस्मि तप उग्रं समास्थितः।
देवत्वं प्रार्थये राम सशरीरो महायशः।। 2 ।।
(वाल्मीकि रामायण,
उत्तर कांड,
76 वा सर्ग)
अर्थात:- हे राम ! मैं शूद्र हूँ शूद्र कुल में मेरा जन्म हुआ है। मैं इसी शरीर से स्वर्ग जाने की कामना से अथवा दिव्यत्व प्राप्त करने की इच्छा से ऐसा उग्र तप कर रहा हूँ।
न मिथ्याद्दं वदे राम देवलोकजिगीषया।
शूई मां विद्धि काकृत्स्थ शम्बूको नाम नामतः ।। 3 ।।
(वाल्मीकि रामायण,
उत्तर कांड,
76 वा सर्ग)
अर्थात:- हे प्रभो ! मैं देवलोक जाना चाहता हूँ । अतः झूठ नहीं बोलता। मुझे आप शूद्र जानिये। मेरा नाम शम्बूक है।
ऐसा सुनते ही राम जी ने अपनी तलवार निकाली और उनका सर धड़ से अलग कर दिया।
भाषतस्तस्य शूद्रस्य खङ्गं सुरचिरप्रभम्।
निष्कृष्य कोशाद्विमलं शिरविच्छेद राघवः ।। 4 ।।
(वाल्मीकि रामायण,
उत्तर कांड,
76 वा सर्ग)
अर्थात:- उस शूद्र के मुख से यह वचन सुनते ही, श्रीरामचन्द्र ने चमचमाती तलवार म्यान से खींच ली और उससे उस शूद्र का सिर काट डाला।
राम जी द्वारा किए गए इस कार्य के लिए सभी देवी देवताओं ने उनकी प्रशंसा करी।
तस्मिन्शूद्रे द्दते देवाः सेन्द्राः साग्निपुरोगमाः।
साधु साध्विति काकुत्स्यं ते शशंसुर्मुहुर्मुहुः ।। 5 ।।
(वाल्मीकि रामायण,
उत्तर कांड,
76 वा सर्ग)
अर्थात:- उसका सिर कटते हो,
इन्द्र और अग्नि सहित समस्त देवता 'धन्य-धन्य " कह कर श्रीरामचन्द्र जी की प्रशंसा करने लगे।
जिस प्रकार से यह प्रसंग हम सुनते हैं, उससे एक बात स्पष्ट है कि इससे लोगों के मन में श्री राम जी के चरित्र पर प्रश्न उठते होंगे।
बहुत सारे विद्वानों का मानना है कि उत्तर कांड कभी असली वाल्मीकि रामायण का हिस्सा नहीं रहा, क्योंकि जितने भी विक्षेपण मिलते हैं, वह इसी कांड में क्यों मिलते हैं,
किसी अन्य कांड में क्यों नहीं। परंतु जैसा कि मनुष्य का स्वभाव है, अगर उसे भगवान के किसी कार्य को करने के पीछे का कारण समझ नहीं आता तो वह उस कार्य को ही झुठला देता है। जो कि पूर्णतः गलत है! हमें उस कार्य को करने के पीछे का कारण समझना चाहिए। हम सबको पता है कि “हरि अनंत हरि कथा अनंता”। अर्थात जिन प्रभु की लीलाओं को कभी-कभी ऋषि मुनि भी नहीं समझ पाते तो हम मनुष्य तो बहुत छोटी वस्तु हैं। वामपंथियों द्वारा कहा जाता है कि शंबूक का वध इसीलिए किया गया था क्योंकि वह एक शूद्र था। परंतु शंबूक को इसीलिए नहीं मारा था क्योंकि वह शूद्र था अपितु इसके पीछे का कारण कुछ और है जिसे आपको स्वयं जानना होगा। मैं तो बस आपको इस पुस्तक में कुछ ऐसे तर्क दूँगा जो वामपंथियों द्वारा दिए गए तर्कों का विरोध करते हों।