भारतीय संस्कृति में तो वर्ण व्यवस्था प्रचलित थी! तो फिर यह जाति के आधार पर भेदभाव कहाँ से आया?
जो समाज कर्म के आधार पर विभाजित था वह जन्म के आधार पर कैसे विभाजित हो गया?
क्या यह जाति व्यवस्था अंग्रेजों की फूट डालो राज करो की नीति का हिस्सा तो नहीं थी?
आज भारतीय समाज जाति के आधार पर बंटता चला जा रहा है और शायद आपको सुनने में बुरा लगेगा परंतु ब्राह्मण अपने गुण गाता है, क्षत्रिय अपने गुण गाता है,
वैश्य अपने गुण जाता है और शूद्र अपने गुण गाता है। आज हम सभी लोग समाज में एक दूसरे के महत्व को भूलते जा रहे हैं। हम भूलते जा रहे हैं कि सभी एक दूसरे के पूरक हैं और इनमें से किसी एक की भी कमी समाज को तोड़ सकती है।
चारों वर्ण शरीर के अंगों की तरह हैं।
अगर शरीर का कोई अंग खराब होता है,
और उसे अलग कर दिया जाए,
तो उसकी कमी से शरीर में दुर्बलता आती है। ठीक उसी प्रकार समाज में किसी एक वर्ण की कमी, राष्ट्र को दुर्बल बना सकती है। और इन अंग्रेजों के द्वारा समाज को दुर्बल बनाने का प्रयास किया भी गया है,
यह हम सब जानते हैं परंतु फिर भी हम जातिगत आधार पर बंटते चले जा रहे हैं और इसका फायदा विदेशी ताकतें समय-समय पर उठाती रही हैं। समय-समय पर विदेशी ताकतों द्वारा इस खाई को और गहरा बना दिया जाता है और समाज के मन में भेदभाव भर दिया जाता है जिससे सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक दृष्टि से राष्ट्र पर विपरीत असर पड़ता है।
आज चाहते हुए भी इस व्यवस्था को खत्म नहीं किया जा सकता क्योंकि हमारा संविधान सब को जाति प्रमाण पत्र दे देता है, वह भी जन्म के आधार पर। तो प्रश्न यह उठता है कि इस भारतीय समाज को कौन बाँट रहा है? सनातन धर्म या फिर कोई और!
विदेशी ताकतें ये अच्छे से जानती हैं कि भारतीय समाज अपनी परंपराओं से जुड़ा हुआ है,
अपनी संस्कृति से जुड़ा हुआ है,
अपनी वैदिक ग्रंथों से जुड़ा हुआ है, इसीलिए अगर उस पर प्रहार करना है तो उसकी संस्कृति का प्रहार करना पड़ेगा। और यह प्रहार इतना घातक होता है कि आने वाली पीढ़ी भी इसका असर देखती हैं। क्योंकि संस्कृति किसी भी समाज की नींव होती है,
अगर वही कच्ची रहेगी तो समाज में रहने वाले लोग दुर्बल ही रहेंगे। वे इतने दुर्बल होंगे कि किसी भी झोंके से आसानी से गिर सकते हैं।
और इस बात का फायदा अंग्रेजों ने उठाया। उन्होंने समाज को अनुचित जाति व्यवस्था में बाँटकर इसका आरोप सनातन धर्म पर लगाया। उन्होंने बताया की सनातन धर्म में ही जाति व्यवस्था थी जिसके कारण शूद्रों पर अत्याचार किया जाता था। इसी वजह से शूद्रों के मन में हीन भावना उत्पन्न हुई। जिसकी वजह से वह सनातन धर्म से खुद को अलग समझने लगे। और इस बात का तो साक्ष्य देने की भी कोई आवश्यकता नहीं है,
क्योंकि यह हम सब जानते हैं!
इस बात को सिद्ध करने के लिए अंग्रेजों द्वारा सनातन धर्म के ग्रंथों से विभिन्न उदाहरण दिए जाते हैं जिन को गलत तरीके से पेश कर बताया जाता है और मन में द्वेष भावना उत्पन्न की जाती है। इसमें हमारी शिक्षा व्यवस्था और आरक्षण अपनी-अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। क्योंकि हमारी शिक्षा व्यवस्था बचपन से ही हमें बताती है कि भारत में जाति व्यवस्था है भारतीय समाज विभिन्न जातियों में विभाजित है। और आरक्षण भी इसी जाति व्यवस्था के आधार पर दिया जाता है। यहाँ तक कि चुनाव में भी विभिन्न जातियों के मतों को देखा जाता है। कौन सी जाति के कितने प्रतिशत मतदाता हैं उसी हिसाब से उम्मीदवार तय किया जाता है।
जब हमारी आंखों के सामने ही दिन प्रतिदिन जाति के आधार पर कार्य होते दिखेंगे तो हमारे मन से यह भेदभाव दूर कैसे होगा?
और अगर सच्चाई की बात की जाए तो कोई इस भेदभाव को दूर करना भी नहीं चाहता क्योंकि उन्हें इसमें फायदा होता है। बोलना तो नहीं चाहिए पर यह फायदा हर कोई उठाता है चाहे वह ब्राह्मण हो,
चाहे क्षत्रिय हो, चाहे वैश्य हो या फिर शूद्र!
पर इतना बड़ा भेदभाव पैदा करने की क्षमता अंग्रेजों में नहीं थी। इसीलिए उन्हें किसी ना किसी दलाल की आवश्यकता जरूर हुई होगी जिसने भारतीय संस्कृति का सौदा कर बीच की दलाली खाई होगी।
अब प्रश्न यह उठता है कि जाति शब्द आया कहाँ से और यह जाति व्यवस्था किसने बनाई और आखिर क्यों?
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