"नव-अभिभावक यह लेख अवश्य पढ़ें"
"Come बेटा"
"इसको eat करो"
"Run करो"
"Cut करो"
"Eyes बंद करो/ आंखें Close करो"
"Jump करो"
यह है हमारी पीढ़ी जो अपने बच्चों को इस प्रकार से प्रारंभिक शिक्षा दे रही है। स्वयं सोचिए कि बच्चे ना ढंग से हिंदी सीख पा रहे हैं ना अंग्रेजी, हम कैसे मान लें कि यह सांस्कृतिक संरक्षण करने के योग्य हो सकते हैं!!
उपरोक्त सभी वाक्य नव-अभिभावक बने लोगों से सुना है जिनके मन में हीनताबोध है, और जो अपने बच्चों के मन में भी प्रारंभ से ऊंचा-नीचा, अमीर-गरीब, अंग्रेजी बोलने वाला श्रेष्ठ और हिंदी बोलने वालों को तुच्छ समझने वाला बोध थोंप रहे हैं। यदि आपको ऐसे ही और नव-अभिभावक प्रमाण सहित देखने हैं तो सार्वजनिक स्थलों में जैसे किसी चौपाटी या बगीचे में बैठ जाइए, वहां इस प्रकार के लोग-जो अपने बच्चों को एक शब्द अंग्रेजी का और एक शब्द हिंदी का सिखाकर उनका दिमाग खिचड़ी कर रहे हैं-सरलता से दिख जाएंगे।
क्या यह 'हिंग्लिशपना' गुलामी की मानसिकता का प्रतीक नहीं है ? यदि प्रारंभिक शिक्षा ही इस प्रकार रहेगी तो बच्चा रील या इंस्टाग्राम पर ठुमके लगाएगा ही और इसमें चिंता की बात तो उन लोगों को नहीं होना चाहिए, क्योंकि ऐसे मां-बाप स्वयं उसे ऐसा करने के लिए बचपन से ही प्रोत्साहित कर रहे हैं, वह भी अपनी संस्कृति और भाषा का त्याग कर शिशु की अंग्रेजी भाषा अर्थात पाश्चात्य असामाजिक संस्कृति की ओर रुचि उत्पन्न करके।
यही कारण है कि 'उनहत्तर', 'उनासी', 'सड़सठ' जैसी संख्याओं को हिंदी में क्या कहते हैं बच्चे को नहीं पता होता, लेकिन हां वह 97.6 प्रतिशत पाकर कक्षा में अव्वल आता है।
अंग्रेजी जैसी अवैज्ञानिक भाषा को सीखकर भले ही वह बच्चा बड़ा हो कर किसी अव्वल स्तर का धनाढ्य आईटी इंजीनियर या डॉक्टर बन जाए लेकिन वह अंततः रहेगा तो मैकाले का उत्पाद ही। वह एक औपनिवेशिक उत्पाद रहेगा जिसे अंग्रेजी भाषा में 'colonial product' कहते हैं। वह तन से तो हिंदू रहेगा पर मन से एक जोकर की भांति होगा जो किसी एक सभ्यता से परिपूर्ण नहीं होकर प्रत्येक सभ्यता का थोड़ा-थोड़ा कचरा उसके मन में आत्मसात कर बैठा है।
"अंग्रेजी सीखने पर प्रतिबंध नहीं होना चाहिए, वह परिस्थितियों की आवश्यकता है, किंतु उसे आत्मसात करना अनुचित है।" इसे समझने के बजाय "अंग्रेजी भाषा समाज का 'status' है" , यह बचपन से ही उस शिशु के मन में घर कर रहा है तो इसका दोष संस्कृतिहंता ऐसे नव-अभिभावकों को ही दिया जाना चाहिए।
जब आप अपने शिशु का अनूठा नाम रखने के लिए संस्कृत और अपनी संस्कृति की ओर जाते हैं तो शिशु को वही संस्कृति सिखाने में आपको घृणा क्यों होती है ? उस भाषा में संवाद करने पर क्यों उसे पिछड़ा मान लिया जाता है जबकि उसका नामकरण उसी भाषा के अनूठे शब्द (unique name) से हुआ है।
यदि हमारा शिशु हिंदी में या मातृभाषा में बोलता है तथा अंग्रेजी नहीं बोल पाता है, तो इसमें हमें हतोत्साहित होने के बजाय गौरवान्वित होकर उसका आत्मविश्वास बढ़ाकर उसे प्रोत्साहित करना चाहिए कि वह जिस संस्कृत, हिंदी या मातृभाषा में बोल रहा है, वह विश्व की सबसे प्राचीन भाषाओं (संस्कृत और तमिल) से उत्पन्न हुई है। वह अंग्रेजी की तरह अवैज्ञानिक नहीं बल्कि सैद्धांतिक और वैज्ञानिक भाषा है जिसे साक्षात देवभाषा भी कहा जाता है। यही मानसिकता बाल्यकाल से उसका हीनताबोध समाप्त कर उसके अवचेतन में सांस्कृतिक स्वाभिमान की ज्योति प्रज्वलित कर देगी।
शिशु के सर्वप्रथम गुरु उसके माता पिता और परिजन ही होते हैं। उन्हीं के आचरणों का अनुसरण करके वह बड़ा होता है। ऐसा कहा जाता है कि शिशु की प्रारंभिक शिक्षा ही उसके पूर्ण जीवन का चरित्रनिर्माण करती है। स्वयं सोचिए कि आज जो आप अपने बच्चे को दे रहे हैं ,आगे जाकर वही वह समाज को देगा, तो यदि समाज व संस्कृति में कुछ ना कुछ सुधार की आवश्यकता है या जिसका हम चिंतन करके आप अपेक्षा करते हैं तो उसका प्रारंभ हमें स्वयं से, अपने परिवार से, अपने शिशु से ही करना होगा। बाकी आपकी इच्छा
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