ब्रह्मा की राजधानी:- पूर्वी उत्तर प्रदेश का बहराइच का यह इलाका “गन्धर्व वन” के रूप में प्राचीन वेदों में वर्णित है, स्थानीय जनश्रुति के अनुसार ऐसा माना जाता है कि ब्रह्मा जी ने ॠषियों की तपस्या के लिये यहाँ एक घने जंगल का निर्माण किया था, जिसके कारण इसका नाम पड़ा “ब्रह्माइच”, जो कालांतर में भ्रष्ट होते-होते बहराइच बन गया।
हिन्दुओंने अपना सच्चा इतिहा संहिं पढ़ा उसे समझा नहीं और इसीलिए उनकी पूजा करता है जिन्होंने हमारे पूर्वजो को मारा, लूटा, हमारे धर्म नाश किया .. अब भी अनेकों हिन्दू इस पोस्ट को भी पूरा नहीं पढ़ेंगे..
अत्यंत घने जंगल और तेज बहती नादियाँ बहराइच ज़िले की प्रमुख विशेषता है। यह स्थान ऐतिहासिक दृष्टि से काफ़ी महत्त्वपूर्ण माना जाता है। बहराइच भगवान ब्रह्मा की राजधानी के रूप में प्रसिद्ध है। पहले यह गंधर्व जंगल का एक भाग हुआ करता था। ऐसा माना जाता है कि इस क्षेत्र को ब्रह्मा जी ने विकसित किया था। यहाँ पर ऋषि और साधु-संत पूजा एवं तपस्या किया करते थे। इसी कारण इस स्थान को बहराइच के नाम से जाना जाता है। इसके अतिरिक्त यह भी माना जाता है कि मध्य युग में यह स्थान भार वंश की राजधानी थी। इस कारण भी इसे बहराइच कहा जाता है। पुराणों के अनुसार श्रीराम के पुत्र लव और राजा प्रसेन्जित ने बहराइच पर शासन किया था। ऐतिहासिक पंरपरा के अनुसार इस स्थान पर, जहाँ आजकल सईद सालार मसूद की दरगाह है, प्राचीन काल में सूर्य मंदिर था। कहा जाता है कि इस मंदिर को रुदौली की अंधी कुमारी जौहरा बीवी ने बनवाया था। दरगाह के अहाते को बनवाले वाला दिल्ली का तुग़लक़ सुल्तान फ़िरोजशाह बताया जाता है। हिन्दू-मुस्लिम यहाँ सैयद सलार ससूद के मक़बरे पर आते हैं, जो एक अफ़गानी योद्धा और पीर थे। उनकी मृत्यु यहीं 1033 में हुई थी। बहराइच में हजरत सैयद सालार मसऊद गाजी की दरगाह है, जिस पर हर साल मेला लगता है। हजरत सैयद सालार मसऊद को गाजी मियां, बाले मियां, बाला पीर, पीर बहलीम और गजना दूल्हा के नाम से भी जाना जाता है। उनकी दरगाह पर भी उसी तरह हिंदू-मुसलमान मन्नत मांगने और अपनी श्रद्धा व्यक्त करने आते हैं जैसे वे अन्य सूफी संतों की दरगाहों पर जाते हैं। एक अर्थ में गाजी मियां भी उस मिलीजुली संश्लिष्ट संस्कृति के प्रतीक हैं, जिसे हम अक्सर गंगा-जमुनी तहजीब या साझा संस्कृति कहते हैं। गाजी मियां की याद में मेले बिहार और उत्तर प्रदेश के अनेक गांवों और कस्बों में लगते हैं। मेरे कस्बे नजीबाबाद में भी एक मेला लगता है, जिसे नेजे (भाले) का मेला कहते हैं। यह दरअसल गाजी मियां का ही मेला है। ये मेले सदियों से लगते आ रहे हैं और चौदहवीं सदी में ही गाजी मियां की कीर्ति बंगाल तक फैल चुकी थी। पंद्रहवीं सदी के अंतिम दशकों में दिल्ली के सुल्तान सिकंदर लोदी ने नेजे के मेलों पर प्रतिबंध लगाने की भी कोशिश की थी। बहराइच के पश्चिम में एक बौद्ध विहार के अवशेष हैं। दरगाह शरीफ़, चित्तूर झील, जंगली नाथ मंदिर, सीता दोहर झील, कैलाशपुरी बांध और कतरनी अभ्यारण यहाँ के प्रमुख पयर्टन स्थलों में से हैं।
एक आक्रान्ता की कबर पर सर :- बहराइच में हिन्दू एक आक्रान्ता की कबर पर सर झुकाते हैं ,एक मुगल आक्रांता, जो कि समूचे भारत को “दारुल-इस्लाम” बनाने का सपना देखता था, की कब्र को दरगाह के रूप में अंधविश्वास और भेड़चाल के साथ नवाज़ा जाता है, लेकिन इतिहास को सुधार कर देश में आत्मगौरव निर्माण करने की बजाय हमारे महान इतिहासकार इस पर मौन हैं। बहराइच (उत्तरप्रदेश) में “दरगाह शरीफ़” पर प्रतिवर्ष ज्येष्ठ मास के पहले रविवार को लगने वाले सालाना उर्स के बारे में। बहराइच शहर से 3 किमी दूर सैयद सालार मसूद गाज़ी की दरगाह स्थित है, ऐसी मान्यता है कि मज़ार-ए-शरीफ़ में स्नान करने से बीमारियाँ दूर हो जाती हैं और अंधविश्वास के मारे लाखों लोग यहाँ आते हैं। महमूद गज़नवी (गज़नी) वही मुगल आक्रांता जिसने सोमनाथ पर 16 बार हमला किया और भारी मात्रा में सोना हीरे-जवाहरात आदि लूट कर ले गया था। महमूद गजनवी ने सोमनाथ पर आखिरी बार सन् 1024 में हमला किया था तथा उसने व्यक्तिगत रूप से सामने खड़े होकर शिवलिंग के टुकड़े-टुकड़े किये और उन टुकड़ों को अफ़गानिस्तान के गज़नी शहर की जामा मस्जिद की सीढ़ियों में सन् 1026 में लगवाया। इसी लुटेरे महमूद गजनवी का ही रिश्तेदार था सैयद सालार मसूद बड़ी भारी सेना लेकर सन् 1031 में भारत आया।
धर्मान्ध मुगल आक्रान्ता:- सैयद सालार मसूद एक सनकी किस्म का धर्मान्ध मुगल आक्रान्ता था। महमूद गजनवी तो बार-बार भारत आता था सिर्फ़ लूटने के लिये और वापस चला जाता था, लेकिन इस बार सैयद सालार मसूद भारत में विशाल सेना लेकर आया था कि वह इस भूमि को “दारुल-इस्लाम” बनाकर रहेगा और इस्लाम का प्रचार पूरे भारत में करेगा (जाहिर है कि तलवार के बल पर)।सैयद सालार मसूद अपनी सेना को लेकर “हिन्दुकुश” पर्वतमाला को पार करके पाकिस्तान (आज के) के पंजाब में पहुँचा, जहाँ उसे पहले हिन्दू राजा आनन्द पाल शाही का सामना करना पड़ा, जिसका उसने आसानी से सफ़ाया कर दिया। मसूद के बढ़ते कदमों को रोकने के लिये सियालकोट के राजा अर्जन सिंह ने भी आनन्द पाल की मदद की लेकिन इतनी विशाल सेना के आगे वे बेबस रहे। मसूद धीरे-धीरे आगे बढ़ते-बढ़ते राजपूताना और मालवा प्रांत में पहुँचा, जहाँ राजा महिपाल तोमर से उसका मुकाबला हुआ, और उसे भी मसूद ने अपनी सैनिक ताकत से हराया। एक तरह से यह भारत के विरुद्ध पहला जेहाद कहा जा सकता है, जहाँ कोई मुगल आक्रांता सिर्फ़ लूटने की नीयत से नहीं बल्कि बसने, राज्य करने और इस्लाम को फ़ैलाने का उद्देश्य लेकर आया था। पंजाब से लेकर उत्तरप्रदेश के गांगेय इलाके को रौंदते, लूटते, हत्यायें-बलात्कार करते सैयद सालार मसूद अयोध्या के नज़दीक स्थित बहराइच पहुँचा, जहाँ उसका इरादा एक सेना की छावनी और राजधानी बनाने का था। इस दौरान इस्लाम के प्रति उसकी सेवाओं को देखते हुए उसे “गाज़ी बाबा” की उपाधि दी गई।इस मोड़ पर आकर भारत के इतिहास में एक विलक्षण घटना घटित हुई।,
मसूद सन् 1033 में बहराइच पहुँचा, तब तक हिन्दू राजा संगठित होना शुरु हो चुके थे। यह भीषण रक्तपात वाला युद्ध मई-जून 1033 में लड़ा गया। युद्ध इतना भीषण था कि सैयद सालार मसूद के किसी भी सैनिक को जीवित नहीं जाने दिया गया, यहाँ तक कि युद्ध बंदियों को भी मार डाला गया। मसूद का समूचे भारत को इस्लामी रंग में रंगने का सपना अधूरा ही रह गया।बहराइच का यह युद्ध 14 जून 1033 को समाप्त हुआ। बहराइच के नज़दीक इसी मुगल आक्रांता सैयद सालार मसूद (तथाकथित गाज़ी बाबा) की कब्र बनी। जब फ़िरोज़शाह तुगलक का शासन समूचे इलाके में पुनर्स्थापित हुआ तब वह बहराइच आया और मसूद के बारे में जानकारी पाकर प्रभावित हुआ और उसने उसकी कब्र को एक विशाल दरगाह और गुम्बज का रूप देकर सैयद सालार मसूद को “एक धर्मात्मा” के रूप में प्रचारित करना शुरु किया, एक ऐसा इस्लामी धर्मात्मा जो भारत में इस्लाम का प्रचार करने आया था। मुगल काल में धीरे-धीरे यह किंवदंती का रूप लेता गया और कालान्तर में सभी लोगों ने इस “गाज़ी बाबा” को “पहुँचा हुआ पीर” मान लिया तथा उसकी दरगाह पर प्रतिवर्ष एक “उर्स” का आयोजन होने लगा, जो कि आज भी जारी है।
इस समूचे घटनाक्रम को यदि ध्यान से देखा जाये तो कुछ बातें मुख्य रूप से स्पष्ट होती हैं-
(1) महमूद गजनवी के इतने आक्रमणों के बावजूद हिन्दुओं के पहली बार संगठित होते ही एक क्रूर मुगल आक्रांता को बुरी तरह से हराया गया (अर्थात यदि हिन्दू संगठित हो जायें तो उन्हें कोई रोक नहीं सकता
(2) एक मुगल आक्रांता जो भारत को इस्लामी देश बनाने का सपना देखता था, आज की तारीख में एक “पीर-शहीद” का दर्जा पाये हुए है और दुष्प्रचार के प्रभाव में आकर मूर्ख हिन्दू उसकी मज़ार पर जाकर मत्था टेक रहे हैं।
(3) एक इतना बड़ा तथ्य कि महमूद गजनवी के एक प्रमुख रिश्तेदार को भारत की भूमि पर समाप्त किया गया, इतिहास की पुस्तकों में सिरे से ही गायब है।जो कुछ भी उपलब्ध है इंटरनेट पर ही है, इस सम्बन्ध में रोमिला थापर की पुस्तक “Dargah of Ghazi in Bahraich” में उल्लेख है एन्ना सुवोरोवा की एक और पुस्तक “Muslim Saints of South Asia” में भी इसका उल्लेख मिलता है,जो मूर्ख हिन्दू उस दरगाह पर जाकर अभी भी स्वास्थ्य और शारीरिक तकलीफ़ों सम्बन्धी तथा अन्य दुआएं मांगते हैं उनकी खिल्ली स्वयं “तुलसीदास” भी उड़ा चुके हैं। चूंकि मुगल शासनकाल होने के कारण तुलसीदास ने मुस्लिम आक्रांताओं के बारे में ज्यादा कुछ नहीं लिखा है, लेकिन फ़िर भी बहराइच में जारी इस “भेड़िया धसान” (भेड़चाल) के बारे में वे अपनी “दोहावली” में कहते हैं –...
लही आँखि कब आँधरे, बाँझ पूत कब ल्याइ ।
कब कोढ़ी काया लही, जग बहराइच जाइ॥
अर्थात “पता नहीं कब किस अंधे को आँख मिली, पता नहीं कब किसी बाँझ को पुत्र हुआ, पता नहीं कब किसी कोढ़ी की काया निखरी, लेकिन फ़िर भी लोग बहराइच जाते हैं। ” इतिहासकारों और धूर्त तथा स्वार्थी कांग्रेसियों ने हमेशा भारत की जनता को उनके गौरवपूर्ण इतिहास से महरूम रखने का प्रयोजन किया हुआ है। इनका साथ देने के लिये “सेकुलर” नाम की घृणित कौम भी इनके पीछे हमेशा रही है। भारत के इतिहास को छेड़छाड़ करके मनमाने और षडयन्त्रपूर्ण तरीके से अंग्रेजों और मुगलों को श्रेष्ठ बताया गया है और हिन्दू राजाओं का या तो उल्लेख ही नहीं है और यदि है भी तो दमित-कुचले और हारे हुए के रूप में। एक बात तो तय है कि इतने लम्बे समय तक हिन्दू कौम का “ब्रेनवॉश” किया गया है, तो दिमागों से यह गंदगी साफ़ करने में समय तो लगेगा ही। इसके लिये शिक्षण पद्धति में आमूलचूल परिवर्तन करने होंगे। “मैकाले की अवैध संतानों” को बाहर का रास्ता दिखाना होगा, यह एक धीरे-धीरे चलने वाली प्रक्रिया है। हालांकि संतोष का विषय यह है कि इंटरनेट नामक हथियार युवाओं में तेजी से लोकप्रिय हो रहा है, युवाओं में “हिन्दू भावनाओं” का उभार हो रहा है, उनमें अपने सही इतिहास को जानने की भूख है। आज का युवा काफ़ी समझदार है, वह देख रहा है कि भारत के आसपास क्या हो रहा है, वह जानता है कि भारत में कितनी अन्दरूनी शक्ति है, लेकिन जब वह “सेकुलरवादियों”, कांग्रेसियों और वामपंथियों के ढोंग भरे प्रवचन और उलटबाँसियाँ सुनता है तो उसे उबकाई आने लगती है, इन युवाओं (17 से 23 वर्ष आयु समूह) को भारत के गौरवशाली पृष्ठभूमि का ज्ञान करवाना चाहिये। उन्हें यह बताने की जरूरत है कि भले ही वे बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के नौकर बनें, लेकिन उन्हें किसी से “दबकर” रहने या अपने धर्म और हिन्दुत्व को लेकर किसी शर्मिन्दगी का अहसास करने की आवश्यकता नहीं है। जिस दिन हिन्दू संगठित होकर प्रतिकार करने लगेंगे, एक “हिन्दू वोट बैंक” की तरह चुनाव में वोटिंग करने लगेंगे, उस दिन ये “सेकुलर” नामक रीढ़विहीन प्राणी देखते-देखते गायब हो जायेगा। हमें प्रत्येक दुष्प्रचार का जवाब खुलकर देना चाहिये, वरना हो सकता है कि किसी दिन एकाध “गधे की दरगाह” पर भी हिन्दू सिर झुकाते हुए मिलें।
मान्यता यह है कि सालार मसऊद गजनी के सुल्तान महमूद का भानजा था- उसी सुल्तान महमूद का, जिसे हम महमूद गजनवी के नाम से जानते हैं। यह शूरवीर जवांमर्द धर्मयोद्धा 1034 में, यानी अब से लगभग एक हजार साल पहले, सिर्फ उन्नीस साल की उम्र में बहराइच में शहीद हो गया। उसकी शान में न जाने कितने लोकगीत, लोककथाएं, वीरकाव्य और किस्से-कहानियां रचे गए। वे सभी लोकस्मृति में संचित हैं और आज भी गाए जाते हैं। 1290 में लिखे एक पत्र में अमीर खुसरो ने सिपहसालार शहीद की दरगाह की खुशबू सारे हिंदुस्तान में फैलने का जिक्र किया है। 1341 में प्रसिद्ध मोरक्कन यात्री इब्न बतूता दिल्ली के सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक के साथ बहराइच स्थित इस दरगाह पर मत्था टेकने गया था। गाजीपुर और गाजियाबाद इन्हीं गाजी मियां के नाम पर हैं। यह सारी जानकारी मुझे प्रसिद्ध इतिहासकार शाहिद अमीन की सितंबर में प्रकाशित पुस्तक ‘कॉन्क्वेस्ट ऐंड कम्युनिटी: दि आफ्टरलाइफ ऑफ वारियार सेंट गाजी मियां’ से मिली है। ओरियंट ब्लैकस्वान द्वारा प्रकाशित इस पुस्तक को पढ़ना एक विलक्षण अनुभव है, क्योंकि विद्वत्तापूर्ण शोध से समृद्ध यह पुस्तक वास्तविक अर्थों में अतीत की पुनर्रचना करती है और हमें लगता है कि हम किसी ऐसी तिलिस्मी दुनिया में पहुंच गए हैं, जहां एक तिलिस्म टूटता है तो दूसरा सामने आ खड़ा होता है। इस कहानी में जादुई यथार्थ का तत्त्व भी है, इसका पता भी इसी किताब से चलता है।
यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि सालार मसऊद नाम का यह उन्नीस वर्षीय सजीला शूरवीर तुर्क योद्धा ग्यारहवीं सदी के चौथे दशक में बहराइच में क्या कर रहा था? कहा जाता है कि वह अपने मामा महमूद गजनवी की ओर से हिंदू राजाओं के एक समूह से युद्ध कर रहा था और इस युद्ध में मारा गया यानी शहीद हो गया। 1620 के दशक में अयोध्या से तीस मील दूर रुदौली (उर्दू के मशहूर कवि मजाज भी यहीं के थे) में बैठ कर उत्तर भारत के प्रसिद्ध सूफी संत अब्दुर्रहमान चिश्ती ने गाजी मियां की ‘मीरात-ए-मसऊदी’ नामक प्रशस्तिपूर्ण जीवनी लिखी और उन्हें सुल्तान-ए-शुहदा यानी शहीद सम्राट की उपाधि से विभूषित किया।
आज भी गाजी मियां लोकमानस पर छाए हुए हैं। इस कहानी में जादुई यथार्थ तब प्रवेश करता है जब शाहिद अमीन हमें यह बताते हैं कि महमूद गजनवी का तो कोई भांजा ही नहीं था, जो अपने मामा का बदला लेने और इस्लाम को फैलाने भारत आता और बहराइच तक पहुंच जाता!
गायों के संरक्षक:- सबसे दिलचस्प बात यह है कि गाजी मियां यानी बाले मियां गायों के संरक्षक हैं। एक पेच यह भी है कि एक हिंदू राजा की पत्नी, जो खुद भी हिंदू है, लेकिन जिसे गाजी मियां पर रचे गए लोकगीतों और लोकगाथाओं में सती अमीना कहा गया है, गाजी मियां को अपना भाई मानती है। अमीना मुसलमानों के पैगंबर हजरत मुहम्मद की मां का नाम है। जाहिर है कि गाजी मियां की इस हिंदू बहन को अत्यधिक सम्मान देने के लिए उसे अमीना नाम दिया गया है और सती भी कहा गया है। गाजी मियां उसे जानते नहीं हैं। जंगल में शिकार खेलते हुए उन्हें और उनके साथियों (पांच पीर) को प्यास लगती है और वे इस हिंदू महिला के घर पहुंच जाते हैं। भारतीय परिवारों में हाल तक किसी भी महिला के लिए सबसे अधिक खुशी का दिन वह होता था जब उसे अपने भाई के आने की खबर मिलती थी। गाजी मियां को आता देख कर इस हिंदू महिला (सती अमीना) को लगता है जैसे उसका भाई ही आ गया हो। वह उसे और उसके साथियों को पानी ही नहीं पिलाती, बल्कि उनके लिए खाना भी पकाती है और बाजार से नए पत्तल मंगवाती है, क्योंकि हिंदू घर के बर्तनों में तुर्क को खाना कैसे खिलाया जा सकता है? लोककवि इस दृश्य का चित्रण सती अमीना के इस संवाद से करता है: ‘उठो भैया, चरन पखारो, रसोई लेउ तुम खाई’। लोककाव्य में गाजी मियां को ग्वालों और अहीरों का संरक्षक कहा गया है। वे स्थानीय राजाओं से ग्वालों की कुंआरी कन्याओं को भी बचाते हैं। इतिहासकार शाहिद अमीन का कहना है कि इसमें इतिहास का यह सत्य छिपा हो सकता है कि तुर्कों और ग्वालों (आजकल के यादव) ने मिल कर बहराइच के आसपास के इलाके के जंगलों का सफाया करके वहां खेती और गोपालन आदि शुरू किया हो। आज के समय में जब उत्तर प्रदेश और मणिपुर जैसे एक-दूसरे से भौगोलिक दृष्टि से बहुत दूर राज्यों में गोमांस खाने के संदेह पर ही किसी मुसलमान की पीट-पीट कर हत्या कर दी जाती हो और सभी मुसलमानों को गोमांस खाने वाला समझा जा रहा हो, गोरक्षक गाजी मियां तस्वीर का एक दूसरा ही पहलू पेश करते हैं। माना जाता है कि अगर कोई गाय बचाने के लिए गुहार लगाता था, तो सैयद सालार मसऊद सब काम छोड़ कर उसकी मदद करते थे। लोक में प्रचलित मान्यता है कि गाय बचाने की गुहार सुन कर वे अपनी शादी के पीढ़े से भी उठ गए थे और मदद करने चल दिए थे। मुझे पक्का यकीन है कि आज भी संकीर्ण सोच वाले लोग गाजी मियां के मिथक से बहुत खुश नहीं होंगे।