क्या आप जानते हैं पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के समय की टाइम कैप्सूल घटना। यह घटना न केवल अपने समय में विवादास्पद रही, बल्कि आज भी इसके रहस्य और इसके पीछे के उद्देश्यों को लेकर सवाल उठते हैं।
आइए,जानते हैं इस रहस्यमय घटना के बारे में।
टाइम कैप्सूल एक विशेष प्रकार का कंटेनर होता है, जिसे मजबूत सामग्री से बनाया जाता है ताकि यह लंबे समय तक सुरक्षित रह सके। इसमें किसी खास समय की महत्वपूर्ण वस्तुएं, दस्तावेज या जानकारी रखी जाती है, जिसे भविष्य की पीढ़ियों के लिए संरक्षित किया जाता है।इसका मकसद होता है कि आने वाला समय उस दौर की सभ्यता, संस्कृति और इतिहास को समझ सके। भारत में टाइम कैप्सूल का यह विचार इंदिरा गांधी के कार्यकाल में पहली बार बड़े पैमाने पर सुर्खियों में आया।
15 अगस्त 1973 को भारत अपनी स्वतंत्रता की 26वीं वर्षगांठ मना रहा था। इस मौके पर तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने नई दिल्ली के लाल किले के परिसर में एक टाइम कैप्सूल को जमीन में दफन करवाया। इस टाइम कैप्सूल को "काल पात्र" नाम दिया गया था।इसे 32 फीट की गहराई में दफनाया गया था और इसे तांबे और स्टील से बने एक वैक्यूम-सील्ड कंटेनर में रखा गया था, जिसे 5000 साल तक सुरक्षित रहने के लिए डिज़ाइन किया गया था। सरकार का कहना था कि इसमें आजादी के बाद के 25 सालों की उपलब्धियों और देश के इतिहास का विवरण शामिल था।
इस टाइम कैप्सूल को तैयार करने का जिम्मा इंडियन काउंसिल ऑफ हिस्टोरिकल रिसर्च (ICHR) को सौंपा गया था। इसके लिए इतिहासकारों की एक टीम बनाई गई, जिसमें मद्रास क्रिश्चियन कॉलेज के प्रोफेसर एस. कृष्णास्वामी मुख्य रूप से शामिल थे। दावा किया गया कि इसमें 10,000 शब्दों का एक दस्तावेज था,जिसमें भारत के प्राचीन इतिहास से लेकर आधुनिक समय तक की महत्वपूर्ण घटनाओं का उल्लेख था।
टाइम कैप्सूल को दफनाने की योजना जैसे ही शुरू हुई, यह विवादों में घिर गई। विपक्षी दलों, खासकर जनसंघ और अन्य संगठनों ने इंदिरा गांधी पर आरोप लगाया कि यह टाइम कैप्सूल उनके और उनके परिवार, विशेष रूप से उनके पिता जवाहरलाल नेहरू, के महिमामंडन के लिए बनाया गया है। प्रसिद्ध इतिहासकार रोमिला थापर ने इस घटना पर टिप्पणी करते हुए कहा था, "इतिहास को एक विशेष परिवार के इर्द-गिर्द केंद्रित करना न केवल पक्षपातपूर्ण है,बल्कि यह उस व्यापक संघर्ष को कमतर करता है जो स्वतंत्रता और विकास के लिए हुआ था।" उनकी यह टिप्पणी विपक्ष के आरोपों को बल देती है।
इस विवाद में इतिहासकार टी. बद्रीनाथ का नाम भी सामने आया। कृष्णास्वामी ने टाइम कैप्सूल में रखे जाने वाले दस्तावेजों की एक प्रति बद्रीनाथ को उनकी राय के लिए भेजी थी। बद्रीनाथ ने इसकी कड़ी आलोचना करते हुए कहा, "यह दस्तावेज ऐतिहासिक सच्चाई से अधिक एक राजनीतिक विज्ञापन की तरह है।"उनकी इस प्रतिक्रिया ने विवाद को और हवा दी।
1977 में भारत में आपातकाल के बाद हुए आम चुनावों में इंदिरा गांधी की कांग्रेस पार्टी को हार का सामना करना पड़ा और मोरारजी देसाई के नेतृत्व में जनता पार्टी की सरकार बनी।
चुनाव प्रचार के दौरान जनता पार्टी ने वादा किया था कि अगर वे सत्ता में आए, तो इस टाइम कैप्सूल को खोदकर बाहर निकाला जाएगा और इसके अंदर की सामग्री को जनता के सामने लाया जाएगा। सरकार बनने के कुछ समय बाद, 1977 में ही लाल किले के परिसर से इस टाइम कैप्सूल को खोदकर निकाल लिया गया।
खुदाई में करीब 58,000 रुपये से ज्यादा का खर्च आया, जबकि इसे दफनाने में केवल 8,000 रुपये खर्च हुए थे। टाइम कैप्सूल को निकालने के बाद सरकार ने दावा किया कि इसमें रखे दस्तावेजों का अध्ययन किया गया। कुछ पत्रकारों और सूत्रों के अनुसार,इसमें ज्यादातर सामग्री इंदिरा गांधी और जवाहरलाल नेहरू की उपलब्धियों पर केंद्रित थी। हालांकि, सरकार ने इसके अंदर की सामग्री को आधिकारिक तौर पर सार्वजनिक नहीं किया, जिससे रहस्य और गहरा गया।
टाइम कैप्सूल को निकाले जाने के बाद इसके अंदर की सामग्री को लेकर कई सवाल उठे। क्या वाकई इसमें केवल गांधी-नेहरू परिवार की प्रशंसा थी? क्या यह भारतीय इतिहास का एक निष्पक्ष चित्रण था या एक राजनीतिक एजेंडे का हिस्सा? इन सवालों का जवाब आज तक स्पष्ट नहीं हो सका।इतिहासकार बिपन चंद्रा ने इस संदर्भ में लिखा था, "टाइम कैप्सूल का विचार अपने आप में रोचक था, लेकिन इसका राजनीतिकरण इसकी मूल भावना को नष्ट कर गया।" यह टिप्पणी इस घटना के दोहरे पहलू को उजागर करती है।2012 में एक आरटीआई (सूचना का अधिकार) के जरिए इस टाइम कैप्सूल की जानकारी मांगी गई, लेकिन सरकार की ओर से कोई ठोस जवाब नहीं मिला। इससे यह घटना और रहस्यमयी बन गई।
यह घटना उस दौर की ताकतवर नेता इंदिरा गांधी के व्यक्तित्व और उनके शासन की छवि को मजबूत करने की कोशिश का हिस्सा मानी जाती है। 1970 का दशक उनके राजनीतिक करियर का चरम था, और इस समय वे देश की सबसे प्रभावशाली नेता थीं।टाइम कैप्सूल को दफनाना उनके लिए एक तरह से इतिहास में अपनी छाप छोड़ने का प्रयास था।
हालांकि, विपक्ष के विरोध और बाद में इसे खोदकर निकालने की घटना ने इसे एक राजनीतिक हथियार बना दिया। यह घटना आज भी भारतीय राजनीति और इतिहास के अध्ययन में एक रोचक अध्याय के रूप में देखी जाती है।यह घटना हमें यह भी सोचने पर मजबूर करती है कि इतिहास को किस तरह लिखा और संरक्षित किया जाता है। क्या यह वास्तव में निष्पक्ष होता है, या इसमें सत्ता के हितों का प्रभाव होता है? शायद भविष्य में कभी इस टाइम कैप्सूल का रहस्य खुले, लेकिन तब तक यह एक अनसुलझा सवाल बना रहेगा।