सृष्टि’ का अर्थ यह नहीं है कि कुछ ‘अस्तित्वहीन’ से अस्तित्व में लाया जाए, या शून्य से कुछ बनाया जाए।हिंदू दर्शन के अनुसार, अस्तित्व शून्य से उत्पन्न नहीं हो सकता।इसलिए ‘सृष्टि’ शब्द से तात्पर्य है किसी सूक्ष्म तत्त्व का रूपांतर, न कि ‘कुछ नहीं’ से ‘कुछ’ बनाना।
👉 इस कारण से ब्रह्मांड को “Creation” (निर्माण) के बजाय परम सत्ता की प्रक्षिप्त (Projected) अभिव्यक्ति कहा जाता है।
🌌 ब्रह्मांड का चक्र (Cyclic Universe)
हिंदू मान्यता के अनुसार ब्रह्मांड का कोई प्रारंभ (अनादि) और कोई अंत (अनंत) नहीं है।
बल्कि यह चक्रों में प्रक्षिप्त (Project) होता है जिसे युगचक्र कहते हैं।हर एक चक्र में चार युग होते हैं:
1.सत्ययुग (Golden Age)
2.त्रेतायुग (Silver Age)
3.द्वापरयुग (Copper Age)
4.कलियुग (Iron Age)
हर युगचक्र की शुरुआत सत्ययुग से होती है, जो त्रेता और द्वापर से होता हुआ कलियुग में समाप्त होता है।कलियुग के अंत में ब्रह्मांड प्रलय (Pralaya – महाप्रलय या प्राकृतिक प्रलय) द्वारा विलीन हो जाता है, और फिर एक नया चक्र आरंभ होता है।
युग
अवधि (वर्षों में)
सत्ययुग
40,00,000 वर्ष
त्रेतायुग
36,00,000 वर्ष
द्वापरयुग
24,00,000 वर्ष
कलियुग
12,00,000 वर्ष
प्रलय
4,00,000 वर्ष
नव-सृष्टि
4,00,000 वर्ष
कुल अवधि: 1 कल्प = 1.2 करोड़ मानव वर्ष (या 12,000 ब्रह्मा वर्षों)।
प्रलय (Cosmic Deluge), जो कलियुग के अंत में होता है, कोई स्थायी विनाश नहीं है।बल्कि यह एक कड़ी है एक चक्र के अंत और अगले चक्र की शुरुआत के बीच।यह प्रक्रिया अनंत है, जिसमें सृष्टि बार-बार उत्पन्न और लय होती है।
पश्चिमी विचारधारा में समय एकरेखीय (linear) माना जाता है जिसमें सृष्टि की कोई निश्चित “प्रारंभिक बिंदु” (initial creation) होती है।लेकिन हिंदू दर्शन इस विचार को नहीं मानता।क्योंकि यदि सृष्टि की कोई “पहली बार शुरुआत” मानी जाए,तो सृष्टि में मौजूद समस्त दुख, पीड़ा और पाप का उत्तरदायित्व भगवान पर आ जाएगा जो कि हिंदू दृष्टिकोण के पूर्णतः विपरीत है।
हिंदू धर्म में “प्रारंभिक सृष्टि” जैसी कोई चीज़ नहीं है।
सृष्टि शाश्वत (eternal) है और चक्रों में चलती है।हर चक्र की शुरुआत में जीवात्मा के पूर्व कर्म
ही अगली सृष्टि में अच्छे-बुरे अनुभवों के बीज बनते हैं।इसलिए हिंदू दार्शनिक प्रणाली पाप और अधर्म की रचना का उत्तरदायित्व ईश्वर पर नहीं डालती।यह सब प्रकृति (Prakriti) और कर्म के परिणाम हैं