ऋग्वेद की इक्कीस शाखाएँ हैं- एकविंशतिधा बाह्वच्यम्। इनमें से उपलब्ध पाँच शाखाएँ हैं- शाकल, बाष्कल, आश्वलायन, शांखायन और माण्डूकायन।
"ऋक्" का अर्थ हैः--स्तुतिपरक मन्त्र।
"ऋच्यते स्तूयतेऽया इति ऋक्।"
जिन मन्त्रों के द्वारा देवों की स्तुति की जाती है, उन्हें ऋक् कहते हैं।
ऋग्वेद में विभिन्न देवों की स्तुति वाले मन्त्र हैं, अतः इसे ऋग्वेद कहा जाता है। इसमें मन्त्रों का संग्रह है, इसलिए इसे "संहिता" कहा जाता है। संहिता सन्निकट वर्णों के लिए भी कहा जाता है, ऐसा पाणिनि का मानना हैः--"परः सन्निकर्षः संहिता।" (अष्टाध्यायी--१.४.१०९)
ऋक् शब्द की दार्शनिक-व्याख्याः---
ऋक् भूलोक है, (अग्नि देवता प्रधान)।
यजुः अन्तरिक्ष-लोक है, (वायु-देवता-प्रधान)। साम द्युलोक है। (सूर्य-देवता-प्रधानः---"अयं (भूः)
ऋग्वेदः।" (षड्विंश-ब्राह्मणः--1.5)
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अत एव अग्नि से ऋग्वेद, वायु से यजुर्वेद, आदित्य से सामवेद और अङ्गिरा से अथर्ववेद की उत्पत्ति बताई गई है।
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इस प्रकार कहा जा सकता है कि तीनों वेदों में तीनों लोकों का समावेश है। यजुर्वेद में इसकी व्याख्या दूसरे प्रकार से की गई हैः--ऋग्वेद वाक्-तत्त्व (ज्ञान-तत्त्व या विचार-तत्त्व) का संकलन है। यजुर्वेद में मनस्तत्त्व (चिन्तन, कर्मपक्ष, कर्मकाण्ड, संकल्प) का संग्रह है तथा सामवेद प्राणतत्त्व (आन्तरिक ऊर्जा, संगीत, समन्वय) का संग्रह है। इन तीनों तत्त्वों के समन्वय से ब्रह्म की प्राप्ति होती हैः--- "ऋचं वाचं प्रपद्ये मनो यजुः प्रपद्ये साम प्रपद्ये।"
(यजुर्वेदः--३६.१) लेखक - योगाचार्य डॉ. प्रवीण कुमार शास्त्री
ब्राह्मण-ग्रन्थों में इसकी अन्य प्रकार से व्याख्या की गई हैः-
(क) ऋग्वेद ब्रह्म हैः---"ब्रह्म वा ऋक्" (कौषीतकि-7.10)। (ग) ऋग्वेद प्राण है:--"प्राणो वा ऋक्" (शतपथः--7.5.2.12)। (घ) ऋग्वेद अमृत हैः--"अमृतं वा ऋक्" (कौषीतकि--7.10)।
(ख) ऋग्वेद वाणी है---"वाक् वा ऋक्"
(जैमिनीय-ब्राह्मण--4.23.4) 1
(ङ) ऋग्वेद वीर्य हैः--"वीर्यं वै देवता--ऋचः" (शतपथ---1.7.2.20)
इसका वर्णन ऋग्वेद में आया हैः--- "ऋचां त्वः पोषमास्ते पुपुष्वान् गायत्रं त्वो गायति शक्वरीषु। ब्रह्मा त्वो वदति जातविद्यां यज्ञस्य मात्रां विमिमीत उत्वः।।" (ऋग्वेदः--10.71.11)
(1.) होताः---होता ऋग्वेद का ऋत्विक् है। यह यज्ञ में ऋग्वेद के मन्त्रों का पाठ करता है। ऐसी देवस्तुति वाली ऋचाओं का पारिभाषिक नाम "शस्त्र" है। इसका लक्षण हैः--"अप्रगीत-मन्त्र-साध्या स्तुतिः शस्त्रम्।" अर्थात् गान-रहित देवस्तुति-परक मन्त्र को "शस्त्र" कहते हैं।
(2.) अध्वर्युः---अध्वर्यु का सम्बन्ध यजुर्वेद से है। यह यज्ञ के विविध कर्मों का निष्पादक होता है। यह प्रमुख ऋत्विक् है। यज्ञ में घृताहुति-आदि देना इसी का कर्म है।
(3.) उद्गाताः---उद्गाता सामवेद का प्रतिनिधि ऋत्विक् है। यह यज्ञ में देवस्तुति में सामवेद के मन्त्रों का गान करता है।
(4.) ब्रह्माः---ब्रह्मा अथर्ववेद का ऋत्विक् है। यह यज्ञ का अधिष्ठाता और संचालक होता है। इसके निर्देशानुसार ही अन्य ऋत्विक् कार्य करते हैं। यह चतुर्वेद-विद् होता है। यह त्रुटियों का परिमार्जन, निर्देशन, यज्ञिय-विधि की व्याख्या आदि करता है।
ऋग्वेद की शाखाएँ:----
पतञ्जलि ऋषि ने ऋग्वेद की 21 शाखाओं काउल्लेख किया हैः--"एकविंशतिधा बाह्वच्यम्।" (महाभाष्य--पस्पशाह्निक)।
इसमें से सम्प्रति पाँच शाखाओं के नाम उपलब्ध होते हैं:--- (1.) शाकल, (2.) बाष्कल, (3.) आश्वलायन, (4.) शांखायन और (5.) माण्डूकायन। (1.) शाकलः--सम्प्रति यही शाखा उपलब्ध है। इसी का वर्णन विस्तार से आगे किया जाएगा।
(2.) बाष्कलः-- यह शाखा उपलब्ध नहीं है। शाकल में 1017 सूक्त हैं, परन्तु बाष्कल में 1025 सूक्त थे, अर्थात् 8 सूक्त अधिक थे। इन 8 सूक्तों का शाकल में संकलन कर लिया गया है। एक "संज्ञान-सूक्त" के रूप में और शेष 7 सूक्त "बालखिल्य" के रूप में समाविष्ट कर लिया गया है। ये 7 सूक्त प्रथम 7 सूक्तों में सम्मिलित किया गया है।
(3.) आश्वलायनः-- इस शाखा की संहिता और ब्राह्मण उपलब्ध नहीं है, किन्तु श्रौतसूत्र और गृह्यसूत्र उपलब्ध है।
(4.) शांखायनः---यह शाखा उपलब्ध नहीं है, किन्तु इसके ब्राह्मण, आरण्यक, श्रौत और गृह्यसूत्र उपलब्ध हैं।
(5.) माण्डूकायनः--इस शाखा का कोई भी साहित्य उपलब्ध नहीं है।
ऋग्वेद का विभाजन क्रमः-
ऋग्वेद का विभाजन दो प्रकार से किया जाता है:-
(1.) अष्टक, अध्याय, वर्ग और मन्त्र।
(2.) मण्डल, अनुवाक, सूक्त और मन्त्र।
(1.) अष्टक-क्रमः--इसमें आठ अष्टक हैं, प्रत्येक अष्टक में आठ-आठ अध्याय हैं, जिनकी कुल संख्या 64 (चौंसठ) है। प्रत्येक अध्याय में वर्ग है, किन्तु इनकी संख्या समान नहीं है। कुल वर्ग 2024 है, सूक्त 2028 बालखिल्य सहित है।
(2.) मण्डलक्रमः----यह विभाजन अधिक सुसंगत और उपयुक्त हैं। इसके अनुसार ऋग्वेद में कुल 10 मण्डल हैं। इसमें बालखिल्य के 11 सूक्तों के 80 मन्त्रों को सम्मिलित करते हुए 85 अनुवाक, 1028 सूक्त और 10,552 मन्त्र हैं। जब कभी ऋग्वेद का पता देना हो तब अनुवाक की संख्या छोड देते हैं। सन्दर्भ में मण्डल, सूक्त और मन्त्र-संख्या ही देता हैं, जैसे:-
ऋग्वेदः--10.71.11 इसमें अनुवाक सम्मिलित नहीं है।
ऋग्वेद के प्रत्येक मण्डल में सूक्तों की संख्याः--
प्रथम-मण्डलः---191,
द्वितीय---43
तृतीयः--62,
चतुर्थ:---58,
पञ्चमः---87,
षष्ठः---75,
सप्तमः--104,
अष्टमः---103,
नवमः---114,
दशम:---191
ऋग्वेद में 10 मण्डल, 85 अनुवाक, 1028 सूक्त हैं।
मण्डलों में अनुवाकः-
प्रथम-मण्डलः--24,
द्वितीय:---04,
तृतीयः---05,
चतुर्थ:---05,
पञ्चमः---06
षष्ठ---06,
सप्तमः--06,
अष्टमः--10,
नवमः--07,
दशमः---12
इस प्रकार ऋग्वेद में कुल अनुवाक 85 हैं।
ऋग्वेद के प्रत्येक मण्डल में सूक्तों की संख्याः-- प्रथम-मण्डलः---191, द्वितीय---43, तृतीयः--62, चतुर्थ:58, पञ्चमः---87, षष्ठः---75, सप्तमः--104, अष्टमः103, नवमः114, दशमः191 इस प्रकार ऋग्वेद में कुल सूक्त 1028 हैं।
कुछ प्रसिद्ध सूक्त ये हैं--
श्रद्धासूक्त, पुरुष-सूक्त, यम-यमी-सूक्त, उर्वशी-पुरुरवा-सूक्त, नासदीय-सूक्त, वाक्-सूक्त, हिरण्यगर्भ-सूक्त, दान-सूक्त, सरमा-पणि-सूक्त, औषधि-सूक्त, विश्वामित्र-नदी-सूक्त आदि-आदि।
ऋग्वेद में कुल मन्त्रों की संख्या 10,580, कुल शब्द 153826 और कुल अक्षर 432000 हैं।
पतञ्जलि मुनि ने ऋग्वेद की 21 शाखाओं का उल्लेख किया है। इनमें से पाँच शाखाओं के नाम उपलब्ध हैः--शाकल, बाष्कल, शांखायन, माण्डूकायन और आश्वलायन।
इन पाँच शाखाओं में से केवल एक शाखा उपलब्ध हैः-- शाकल-शाखा। बाष्कल-शाखा में 10622 मन्त्र हैं।
ऋग्वेद के दो ब्राह्मण हैं-
ऐतरेय और कौषीतकि (शांखायन) ।
ऋग्वेद के आरण्यक को ऐतरेय कहते हैं, इसमें पाँच आरण्यक और अठारह अध्याय हैं।
ऋग्वेद के ऋषि और मण्डल निम्न हैः-
मण्डल----सूक्तसंख्या.. मन्त्र संख्या:---ऋषिनाम
(1.) प्रथम-----191- 2006 दीर्घतमा, अगस्त्य, गौतम, पराशर, मधुच्छन्दाः, मेधातिथिः,
(2.) द्वितीय-43- -429- - गृत्समद और उनके वंशज
(3.) तृतीय----62- -617- विश्वामित्र और उनके वंशज
(4.) चतुर्थ-----58- -589- वामदेव और उनके वंशज
(5.) पञ्चम----87- -727- अत्रि और उनके वंशज
(6.) षष्ठ-------75 -765- -भरद्वाज और उनके वंशज
(7.) सप्तम----104- -841- वशिष्ठ और उनके वंशज (8.)
अष्टम-----103—1716-कण्व, भृगु, अंगिरस् और उनके वंशज
(9.) नवम-114—-1108- अनेक ऋषि
(10.) दशम-----191- -1754-
त्रित, विमद, इन्द्र, श्रद्धा-कामायनी, इन्द्राणी, शची, उर्वशी मन्त्र-द्रष्टा ऋषिकाएँ-
ऋग्वेद में 24 मन्त्र-द्रष्टा ऋषिकाएँ हैं। इनके द्वारा दृष्ट मन्त्रों की संख्या 224 है।
ऋषिका- --मन्त्रसंख्या--- -सन्दर्भ
(1.) सूर्य सावित्री-47- -10.85
(2.) घोषा काक्षीवती-28- -10.39,40
(3.) सिकता निवावरी-20- -9.86
(4.) इन्द्राणी- 17- -10.86,145
(5.) यमी वैवस्वती---1110.10,154
(6.) दक्षिणा प्राजापत्या-11- -10.107
(7.) अदिति---- 10- -4.18,,10.72
(8.) वाक् आम्भृणी- -8- -10.125
(9.) अपाला आत्रेयी-7- -8.91
(10.) जुहू ब्रह्मजाया-----7- -10.109
(11.) अग्स्त्यस्वसा-- -10.60
(12.) विश्ववारा आत्रेयी---6- -5.28
(13.) उर्वशी- -10.95
(14.) सरमा देवशुनी- -10.108
(15.) शिखण्डिन्यौ अप्सरसौ-6- -9.104
(16.) श्रद्धा कामायनी-- -5- -10.151
(17.) देवजामयः- -5- -10.153
(18.) पौलोमी शची-- -6- -10.159
(19.) नदी- -4- -3.33
(20.) सार्पराज्ञी-- -3- -10.189
(21.) गोधा-- -1 -10.134
(22.) शश्वती आंगिरसी- -1- -8.1
(23.) वसुक्रपत्नी- -1 -10.28
(24.) रोमशा ब्रह्मवादिनी- 1. -1.126
ऋग्वेद में छन्दोविधानः-----
ऋग्वेद में कुल 20 छन्दों का प्रयोग हुआ है।
इनमें से 7 छन्दों का मुख्य रूप से प्रयोग हुआ है।
ये हैं----(1.) गायत्री (24 अक्षर),
(2.) उष्णिक् (28 अक्षर),
(3.) अनुष्टुप् (32 अक्षर),
(4.) बृहती (36 अक्षर),
(5.) पंक्ति (40 अक्षर),
(6.) त्रिष्टुप् (44 अक्षर),
(7.) जगती (48 अक्षर), इनमें से त्रिष्टुप्, गायत्री, जगती और अनुष्टुप् छन्दों का सर्वाधिक प्रयोग हुआ है।
वेदों को स्वरूप के आधार पर तीन भागों में बाँटा गया हैः- पद्य, गद्य और गीति। मीमांसाकार जैमिनि के इसका उल्लेख किया है।
(1.) जिन मन्त्रों में अर्थ के आधार पर पाद (चरण) की व्यवस्था है और पद्यात्मक है, उन्हें ऋक् या ऋचा कहते हैं। ऐसे संकलन को ऋग्वेद कहते हैं----"तेषाम् ऋक् यत्रार्थवशेन पादव्यवस्था।" (जैमिनीय सूत्र-2.1.35)
(2.) जिन ऋचाओं का गान होता है और जो गीति रूप है, उन्हें साम कहते हैं। ऐसे मन्त्रों का संकलन सामवेद में किया गया हैः----"गीतिषु सामाख्या।" (पूर्वमीमांसा---2.1.36)
(3.) जो मन्त्र पद्य और गान से रहित है अर्थात् गद्य रूप हैं, उन्हें यजुष् कहते हैं। ऐसे मन्त्रों का संकलन यजुर्वेद में हैं----"शेषे यजुः शब्दः।" (पूर्वमीमांसा-2.1.37)
(4.) अथर्ववेद में पद्य और गद्य दोनों का संकलन हैं, अतः वह इन्हीं तीन भेद के अन्तर्गत आ जाता है। इस भेदत्रय के कारण वेदों को "वेदत्रयी" कहते हैं। वेदत्रयी का भाव है-- वेदों की त्रिविध रचना।