यह मनुष्य का जीवन जो हम लोगों को एक सौभाग्य के रूप में प्राप्त हुआ है, वह एक ऐसा अवसर है, जहाँ से अनंत प्रकाश की यात्रा प्रारंभ हो सकती है। भगवान कृष्ण जब श्रीमद्भगवद्गीता को कहने के क्रम में अपना विराट रूप अर्जुन को दिखाते हैं तो गीताकार ने उस दृश्य के लिए कहा है-
दिवि सूर्यसहस्रस्य भवेद्युगपदुत्थिता ।
यदि भाः सदृशी सा स्याद्भासस्तस्य महात्मनः ॥
भावार्थ में कहें तो यह कह सकते हैं कि यदि आकाश में हजारों सूर्य भी एक साथ उदित हो जाएँ तो उन सबका जो सम्मिलित प्रकाश है, वो भी मिलकर परमात्मा के उस प्रकाश की बराबरी कर पाने में समर्थ नहीं था।
अब कल्पना करके देखें कि उस अनंत, अतुलनीय, अपरिमित प्रकाश के एक अंश के रूप में, परमात्मा के एक अंश के रूप में, भगवान के एक अंश के रूप में हम और आप जन्मे हैं, परंतु यदि हम अपने जीवन की यात्रा मात्र किलकारी मारने से लेकर चिता पर जलने तक सीमित मानकर बैठ जाएँ तो फिर हमारे भीतर का परमात्मा तो अभिव्यक्त नहीं हो पाता, परंतु हमारे भीतर का पशु अवश्य जाग उठता है।
उस स्थिति में पेट भरने एवं परिवार बड़ा कर लेने के अतिरिक्त जीवन का कोई अन्य भी उद्देश्य हो सकता है- यह फिर इनसान समझ ही नहीं पाता।
ऐसे जीवन की यात्रा मात्र जलने, कुढ़ने, चिढ़ने, तड़पने में ही नष्ट हो जाती है। व्यक्ति यह भूल ही जाता है कि मनुष्य का जीवन वस्तुस्थिति में एक अवसर के रूप में हमको मिला है। जो इस अवसर का सही, सार्थक व सम्यक उपयोग करना जान जाते हैं, उनके जीवन की यात्रा उनको परमात्मा तक ले जाती है। सच पूछा जाए तो इसके अतिरिक्त फिर जीवन का और उद्देश्य ही क्या है ?
यदि हम सब जान गए, पर स्वयं को न जान सके तो जो भी जाना वो व्यर्थ ही है, मूल्यविहीन है, निरर्थक है। अपने को जानने की यात्रा ही अध्यात्म की यात्रा है और स्वयं के भीतर छिपी हुई, परंतु सोई हुई शक्तियों को जगाने का जो विज्ञान है, वो अध्यात्म का विज्ञान है।
हमें ऐसा लगता है कि हम अपने को जानते हैं, पर सच ऐसा नहीं है। अपने को जानने का मतलब यह जानना नहीं होता कि हमारे रिश्तेदार कौन हैं, दोस्त कौन हैं, हमारा कैरियर क्या बनना चाहिए; बल्कि ये होता है कि अपने व्यक्तित्व के ऊपर हम संपूर्ण स्वामित्व कैसे स्थापित कर सकते हैं।
स्वयं को जानने का मतलब औरों का जो हमारे प्रति मंतव्य है, जिसे हम पब्लिक ऑपिनियन कह करके पुकारते हैं- उसको जानना नहीं है; बल्कि अपने मन पर, इंद्रियों पर पूर्ण वशीकार के भाव को स्थापित कर लेना है।
यदि हम सच में स्वयं को जानते तो हमारे मन में एक भी विचार ऐसा न आता जिसको कि हम नहीं आने देना चाहते, परंतु ऐसा होता कहाँ है ? हमें खुद को भी नहीं पता कि कब- कहाँ-से, कौन- सा विचार प्रकट होएगा और हमारे मन की शांति को छीनकर चला जाएगा।
प्रश्न उठता है कि मन आखिर इतना चंचल क्यों है तो उसका एक कारण तो यह है कि मन है तो एक इंद्रिय, एक उपकरण, परंतु हम उसको मालिक बनाकर बैठे हैं। जो हम नहीं भी सोचना चाहते होंगे, वो भी मन सोचता है। जो हम नहीं भी करना चाहते होंगे, वो भी मन करता है।
कौन चाहता है कि मन में कामुकता के विचार आएँ ? कौन चाहता है कि मन क्रोध की ज्वालाओं से दग्ध हो ? कौन चाहता है कि मन ईर्ष्या और द्वेष से विकल हो ? चाहता तो कोई भी नहीं, परंतु आदत ऐसी पड़ चुकी है कि मन जैसा कराना चाहता है, वैसा हम करते हैं; क्योंकि हमने एक गलती कर दी। गलती यह कर दी कि जो किरायेदार बनकर के आया था, उसे घर की चाबियाँ हमने पकड़ा दी हैं और अब शिकायत करते हम घूमते हैं कि वो घर खाली नहीं कर रहा।
स्वाभाविक है कि मन की चंचलता, व्यक्तित्व में अस्थिरता को, असंतुलन को जन्म देती है। इन सब असंतुलन के कारणों के मध्य में संतुलन को लाना, अपने मन पर संपूर्ण स्वामित्व को लाना, जो हम चाहें वो मन सोचे- यह एक तरह से व्यक्तित्व के रूपांतरण की दिशा में पहला, परंतु महत्त्वपूर्ण पड़ाव है।
मन के ऊपर एकाधिकार को स्थापित किए बिना आध्यात्मिक यात्रा पूर्णरूपेण अधूरी ही रह जाती है। यह सही तरह से हो इसके लिए जरूरी है कि हम स्वयं से झूठ बोलना बंद करें। परमपूज्य गुरुदेव ने इसे निष्पक्ष आत्मसमीक्षा का नाम दिया है। गलती हो जाना बड़ी बात नहीं है, पर गलती को सही समझकर उसी पर अड़े रहना-व्यक्तित्व के पतन का द्वार बन जाता है।
अध्यात्म अपने आप को समग्र रूप से जान लेने का नाम है और ऐसे में अपने आप को पूरी तरह से जान लेना सही है कि क्या हमारे लिए अच्छा है और क्या बुरा ? जो आज बुरा है, वो कल अच्छे में बदल सकता है, पर तभी; जब हम उसे बुरे रूप में देखना प्रारंभ करते हैं।