शक्तिपात- अमृतधारा का प्रवाह कैसे है ?
क्यूँ एवं कैसे किया जाता है शक्तिपात?
किसके द्वारा किया जाता है शक्तिपात?
शक्तिपात के बारे में काफ़ी कुछ सुना जाता है, किंतु इस बारे में कहीं पर भी स्थिति स्पष्ट नहीं है कि शक्तिपात क्या है?
क्यों जरूरी है?
इससे क्या लाभ हैं?
मानव जीवन ईश्वर की तरफ़ से इस सृष्टि को सबसे बड़ा वरदान है। प्रारब्ध से ही यह मानव जीवन प्राप्त होता है,
'विवेक चूड़ामणि' में भगवान शंकराचार्य ने कहा है-
जन्तूनां नर जन्म दुर्लभमतः पुंस्त्वं ततो विप्रता तस्माद्वैदिक धर्ममार्ग परता बिद्वत्वमस्मात्परम् । आत्मानात्म विवेचनं स्वऽनुभवो ब्रह्मात्मना संस्थिति-र्मुक्तिर्नोशत जन्म कोटि सुकृतेः पुण्यैर्विना लभ्यते ॥
अर्थात अत्यन्त सूक्ष्म जन्तु से विकास होते-होते दुर्लभ मनुष्य जन्मलाभ होता है, फिर इसके आगे मनुष्य में भी पुरुष जन्म है। इस पुरुष जन्म में भी जिसमें विप्रता या ब्राह्मणत्य के गुण आ जाते हैं और इसके आगे भी जिसमें धर्ममार्गपरता, विद्वत्ता और मन्त्र-तन्त्रों के प्रति ज्ञान, रुचि आदि का उद्भव होता है, वह जीवन वास्तव में ही धन्य कहलाता है। दुर्लभ मानव जीवन प्राप्त करके भी जो मनुष्य (या स्त्री) आत्ममुक्ति के साधन हेतु प्रयत्न नहीं करता, उससे बड़ा आत्महन्ता और कौन हो सकता है?
शक्तिपात क्या है?
मानव जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य आत्म साक्षात्कार या मोक्ष प्राप्ति है। जब तक मनुष्य अपने-आप में ब्रह्म की स्थापना या स्थिति प्राप्त नहीं कर लेता, तब तक उसे बार-बार जन्म लेकर भव-जन्म, रोग-शोक, दुख, सन्ताप आदि भोगते रहना पड़ता है। जब आत्मा प्रयत्न करके पूर्ण स्वरूप प्राप्त करती है, तो वह ब्रह्मस्वरूप होने लगती है। पर इस ब्रह्मस्वरूपता से पहले शरीर स्थित मल पाक होना आवश्यक है, मल पाक से तथा इन्द्रियजन्य दोष समाप्त होने पर चित्त पर से मल का आवरण हट जाता है, अनुग्रह शक्ति का उदय होता है, फलस्वरूप शान्त और निर्मल आत्मा के दर्शन होने लगते हैं।
शक्तिपात गुरु के द्वारा ही सम्भव है। जब गुरु देखता है कि प्रयत्न करने पर भी शिष्य या साधक कुंडलिनी जागरण में या मन्त्र-सिद्धता में सफल नहीं हो रहा है, और उसके शरीर में उतनी शक्ति उत्पन्न नहीं हो रही है जितनी कि साधना की सफलता के लिए जरूरी है, तब गुरु अपने शरीर में स्थित ऊर्जा-शक्ति में से कुछ शक्ति शिष्य के शरीर में प्रवाहित करता है। इस क्रिया को ही 'शक्तिपात' कहते हैं।
वसिष्ठ ने श्रीराम को स्पष्ट शब्दों में बताया था कि शक्तिपात केवल गुरुकृपा से ही सम्भव है, और गुरुकृपा, शिष्य द्वारा सेवा से ही प्राप्त हो सकती है
परिपक्वमला ये तानुत्सदन हेतु शक्ति पातेन ।
जो जयति परे तत्त्वे स दीक्षयाचार्य मूर्तिस्थः ॥
और इस शक्तिपात के द्वारा ही शिष्य को अलभ्य सिद्धियां एवं मुक्ति प्राप्त हो सकती हैं।
शक्तिपातेन संयुक्ता विद्यावेदान्त वाक्यजा ।
यदा यस्य तदा यस्य विमुक्तिर्नात्र संशयः ॥
सद्गुरु अपनी करुणा के वशीभूत होकर शिष्य की सेवा से प्रसन्न हो 'शक्तिपात' के द्वारा उसे 'स्वयंवत' बना लेते हैं। श्री शंकराचार्य ने इस सम्बन्ध में 'शतश्लोकी' के प्रारम्भ में ही एक सुन्दर वर्णन किया है -
दृष्टान्तो नैव दृष्टस्त्रिभुवन जठरे सद्गुरोर्ज्ञान दातु ।
स्पर्शश्चैतत्र कल्प्यः सनयति यदहो स्वर्णतामश्य सारम् । न स्पर्शत्वं तदापि श्रित चरणयुगे सद्गुरुः स्वोयशिष्ये । स्
वीयं साम्यं विधत्ते भवति निरुपम स्तेन लौकिकोऽपि।
अर्थात
त्रिभुवन में गुरु की उपमा देने लायक कोई दृष्टान्त नहीं है, गुरु के पारस से किसी वस्तु की उपमा नहीं दी जा सकती, क्योंकि पारस तो मात्र सोना ही बनाता है, किसी वस्तु को पारस नहीं बना सकता। परन्तु सद्गुरु तो अपने शिष्य को स्वयं के समान ही बना लेता है।
शक्तिपात करते समय गुरु अपने पास जो साधना एवं सिद्धियों का समुद्र है, वह शिष्य में उंडेल देता है और शिष्य में ऐसी क्षमता पैदा कर देता है कि उसमें उन सिद्धियों को समाहित करने की शक्ति आ जाए। शिष्य चाहे मूर्ख हो, अल्पज्ञानी हो, अज्ञानी हो या कमज़ोर हो, पुरुष हो या स्त्री हो, गुरु जिसमें भी पात्रता देखता है, और उसकी सेवा से प्रसन्न होता है, उसमें शक्तिपात कर लेता है। शक्तिपात करते समय गुरु जब शिष्य को अपने गले लगाता है, तब उसके शरीर में कम्पन होने लग जाता है, आनन्द के अतिरेक से आंसू बहने लग जाते हैं। पसीना छूट जाता है, सारा शरीर रोमांचित हो उठता है तथा शिष्य एक अनिर्वचनीय प्रकाश से भर जाता है।
क्या होता है शक्तिपात के उपरांत
गुरु कृपा से जब शक्ति प्रबुद्ध हो उठती है, तब साधक को आसन, प्राणायाम, मुद्रा आदि करने की कुछ भी आवश्यकता नहीं रहती। प्रबुद्ध कुंडलिनी ऊपर ब्रह्मरन्ध्र की ओर जाने के लिए छटपटाने लगती है। उसके उस छटपटाने में जो कुछ क्रियाएं अपने-आप होती हैं, वे ही आसन, मुद्रा, बन्ध और प्राणायाम हैं। शक्ति का मार्ग खुल जाने के बाद ये सब क्रियाएं अपने-आप होती हैं, और उनसे चित्त को अधिकाधिक स्थिरता प्राप्त होती है।
शक्तिपात से प्रबुद्ध होने वाली शक्ति के द्वारा साधक से जो क्रियाएं होती हैं, उनसे शरीर रोगरहित होता है। शक्ति का जागना जहां एक बार हुआ वहां फिर वह स्वयं ही साधक को परम पद की प्राप्ति कराने तक अपना काम करती रहती है, इस बीच साधक के जितने भी जन्म बीत जाएं, एक बार जागी हुई कुंडलिनी फिर कभी लुप्त नहीं होती।शक्तिपात अपने-आप में सम्पूर्ण क्रिया है, जब गुरु शक्तिपात करने के लिए उद्यत होता है, तो वह अपने एक हाथ में शिव की शक्ति को तथा दूसरे हाथ में अपने गुरु की शक्ति को भरकर शिष्य के शरीर में प्रवाहित कर देता है। ऐसा करते समय गुरु के शरीर की समस्त नाड़ियां उद्वेलित-उत्तेजित हो जाती हैं, पूरा शरीर ताम्रवर्ण-सा हो जाता है, चेहरा उगते हुए सूर्य की तरह लाल सुर्ख होकर दमकने लग जाता है, दृष्टि भ्रू-मध्य में स्थिर हो जाती है और दोनों हाथ पूर्ण शक्ति के साथ शिष्य के सिर पर जम जाते हैं और गुरु के हाथों के माध्यम से शक्ति अप्रतिम शक्ति, अलौकिक ज्योत्स्नित शक्ति, शिष्य के शरीर में गरम लावे की तरह प्रवाहित हो जाती है, जिससे शिष्य का सारा शरीर एकबारगी ही रोमांचित हो उठता है।