मुद्रा कष्ट निवारण में विशेष सहायक है। समस्त रोगो को दूर करती है।
*मुद्रा तथा रोग*
विभिन्न मुद्राएं एवं बीज मंत्र के प्रयोगों से जिन्हें आप प्रातः स्नानादि से निवृत होकर आसन बिछाकर पद्मासन, वज्रासन अथवा सुखासन में कर सकते हैं। ५-१० गहरी सांस लेकर धीरे-२ छोड़ें व शान्तचित्त होकर इन मुद्राओं को दोनों हाथों से करें। विशेष परिस्थिति में आप भोजन से एक घंटा पूर्व व भोजन के चार घंटे बाद भी कर सकते हैं। दोनों हाथों की कलाइयों को अपने घुटने पर इस प्रकार रखें कि आपकी हथेलियां तथा उंगलियां नीचे तथा सामने की ओर हों। नीचे दिए गये बीच मंत्रों का उच्चारण मुद्राओं के साथ एक सांस में जितनी देर कर सकते हैं, करें।
जैसे ॐ (ओम्ऽऽऽ)
*बीज मंत्र तथा मुद्राएं*
*१. ज्ञान मुद्रा –* तर्जनी (प्रथम अंगुली) अंगूठे के ऊपरी भाग पर स्पर्श कराऐं। शेष तीनों अंगुलियां सीधी रहें। मुद्रा के साथ ॐ बीज मंत्र का उच्चारण करते हुए अपना ध्यान भौहों के मध्य लगाएं। इस मुद्रा का अभ्यास आप जितनी देर कर सकते हैं, करें।
*लाभ :*
मानसिक रोग– अनिद्रा, अतिनिद्रा, कमजोर याद्दाश्त, क्रोधी स्वभाव आदि में यह मुद्रा अत्यन्त लाभदायक है।
*२. पृथ्वी मुद्रा -* कनिष्ठा (सबसे छोटी अंगुली को अंगूठे के ऊपरी भाग पर स्पर्श कराएं। शेष तीनों अंगुलियां सीधी रहें। मुद्रा के साथ लं (लमऽऽ) बीजमंत्र का उच्चारण करते हुए पीले रंग की चौकोर वस्तु का ध्यान करें।
*लाभ :*
शारीरिक दुर्बलता दूर होती है। ताजगी, स्फूर्ति आती है, तेज बढ़ता है। भय, शोक, चिंता आदि विकार दूर होते हैं।
*३. सूर्य मुद्रा -* अनामिका (सबसे छोटी अंगुलि के पास वाली) को मोड़कर उसके नख के ऊपर वाले भाग को अंगूठा स्पर्श करायें। शेष तीनों अंगुलियां सीधी रखें, मुद्रा के साथ-रं (रम्ऽऽ) शब्द का उच्चार करते हुए लाल रंग की त्रिभुजाकार वस्तु का ध्यान करें।
*लाभ :*
शरीर में एकत्रित अनावश्यक चर्बी, स्थूलता, सूजन, क्रोध से उत्पन्न विकार का दहन होता है।
*४. वरुण मुद्रा -* कनिष्ठिका अंगुलि मोड़कर उसके ऊपरी भाग को अंगूठे के ऊपरी भाग पर स्पर्श कराऐं। शेष तीनों अंगुलियां सीधी रहें। मुद्रा के सात- वं (वम्ऽऽ) शब्द का उच्चारण करते हुए चांदी की भांति सफेद अर्ध चंद्राकार वस्तु का ध्यान करें।
*लाभ :*
चर्म रोग व अनीमिया जैसे रोग दूर होते हैं। भूख प्यास मिटती है। सहनशक्ति उत्पन्न होती है। जल में डूबने का भय समाप्त हो जाता है।
*५. वायु मुद्रा -* तर्जनी (प्रथम अंगुलि) को मोड़कर उसके नख के ऊपरी भाग को अंगूठे की गद्दी से स्पर्श कराऐं। शेष तीनों अंगुलियां सीधी रहें। मुद्रा के साथ - यं (यम्ऽऽ) शब्द का उच्चारण करते हुए हरे रंग की गोलाकर (गेंद जैसी) वस्तु का ध्यान करें।
*लाभ :*
हाथ पैरों के जोड़ों का दर्द, लकवा, पक्षाघात, हिस्टीरिया, वात, दमा आदि रोगों का नाश होता है। इसी मुद्रा के साथ प्राणमुद्रा करने से शीघ्र लाभ होता है।
*६. प्राण मुद्रा -* कनिष्ठका, अनामिका एवं अंगूठे के ऊपरी भाग को परस्पर एक साथ स्पर्श करायें व शेष दोनों अंगुलियां सीधी रहें।
*लाभ :*
शरीर निरोगी रहता है। आंखों के रोग मिटाने व चश्में के नम्बर घटाने के लिए यह मुद्रा अत्यन्त लाभदायक है।
*७. शून्य मुद्रा -* सबसे लम्बी अंगुलि (मध्यमा) को मोड़कर उसके नख के ऊपर वाले भाग को अंगूठे का गुद्दी वाला भाग स्पर्श कराऐं। शेष तीनों अंगुलियां सीधी रहें। इसी मुद्रा के साथ- हं (हमऽऽ) बीजमंत्र का उच्चारण करते हुए नीले रंग के आकाश का ध्यान करें।
*लाभ :*
यह मुद्रा करने से कान का दर्द मिटता है। कान में से पस निकलता हो अथवा बहरापन हो तो यह मुद्रा चार से पांच मिनट करना चाहिए।