अति दुर्लभ रहस्य जिसमें आप भय से रोमांचित हो उठेंगे !!किस्से कहानियों के नही ‘असली वाले दानव-प्रेत- पिशाचों’ की सनातन वेद आख्या पढ़िए !!
☠️👹 पिशाचवेद 👹☠️
सनातन वैदिक प्रसंगोपात्त पिशाच वेद पर संक्षिप्त विचार में बताया गया है की लोक व्यवहत संस्कृत के उपलब्ध प्रथम कोष अमरसिंह कृत 'नामलिङ्गानुशासनम्' में पिशाच को देवयोनि कहा गया है। पिशाच विषयक प्रसिद्ध धारणा उसे भूत-प्रेतों के तुल्य मानते हुए हानिकारक प्राणि-विशेष मानने की है जो अमर के निम्नलिखित वाक्य के प्रतिकूल है -
विद्याधराप्सरोयक्षरक्षोगन्धर्वकिन्नराःपिशाचो गुह्यकः सिद्धो भूतोऽमी देवयोनयः ।। १.१.११ ।।
यहाँ विद्याधर, अप्सरा, यक्ष, राक्षस, गन्धर्व, किन्नर, पिशाच, गुह्यक, सिद्ध और भूत इन दस को देवयोनि कहा गया है। प्रसिद्धि है कि अमरसिंह बौद्ध था अतः उसका कथन अनार्ष कोटि में आता है, फलस्वरूप यह प्रमाण नहीं है, ऐसा भी नहीं माना जा सकता है।
वायु पुराण भी यही कहता है:-
सुपर्णयक्षगन्धर्वाःपिशाचोरगराक्षसाः। अष्टौ ते पितृभिः सार्धं नासत्या देवयोनयः ।। ३१.१२ ।।
१ सुपर्ण, २ यक्ष, ३ गन्धर्व, ४ पिशाच, ५ उरग (नाग, सर्प), ६ राक्षस, ७ पितृगण तथा ८ नासत्य (अश्विनी कुमार युगल) ये आठ देवयोनि हैं। यही पुराण इन्हें साधकों के प्राप्य स्थानविशेष बताता है -
वर्णाश्रमाचारयुक्ताः शिष्टाः शास्त्राविरोधिनः ।वर्णाश्रमाणां धर्मोऽयं देवस्थानेषु कारणम् ।।
-उत्तरार्ध ४०/९६
वर्ण और आश्रम के आचरण में युक्त शास्त्रों का विरोध न करने वाले शिष्ट हैं। वर्णाश्रमों का धर्म देवस्थानों में कारण होता है।
वे स्थान यहाँ बिना गणना के निर्दिष्ट किये गये हैं -
ब्रह्मादीनि पिशाचान्तान्यष्टौ स्थानानि देवताः ।ऐश्वर्यमणिमाद्यं हि कारणं ह्यष्टलक्षणम् ।। ९७ ।।
ब्रह्मा से पिशाच तक आठ देवस्थान हैं। अष्टलक्षण अणिमादि ऐश्वर्य के कारण हैं। इसी पुराण के पूर्वार्ध के १२वें अध्याय में पैशाच, राक्षस, गान्धर्व, कौबेर, ऐन्द्र, सौम्य, प्राजापत्य तथा ब्राह्म रूप में ये स्थान-नाम गिनाये गये हैं। (३७-३९)
इसे पौराणिक कल्पना कहकर टालना भी सम्भव नहीं है, महाभारत अनुशासन पर्व में भगवान् शिव के उपासकों में भी इनका निर्देश है -
ब्रह्मादयः पिशाचान्ता यं हि देवा उपासते । १४/४।।
ब्रह्मा से पिशाच तक (सभी) देव जिन शिव की उपासना करते हैं।
इनका आधार स्वयं वेद है -
यो अन्तरिक्षेण पतति दिवं यश्चातिसर्पति ।भूमिं यो मन्यते नाथं तं पिशाचं प्रदर्शय ।।
अथर्व ४/२०/९
अन्तरिक्ष से जो गमन करता है, जो द्युलोक का अतिसर्पण करता है, भूमि को जो नाथ मानता है मुझे उस पिशाच को दृष्टिगत कराओ।
पिशाच के इस सर्वत्र व्यापक प्रभाव से उसके अन्य भी कई विशिष्ट गुण दृष्टिगत होते हैं। महाभारत के खिल हरिवंशपुराण के भविष्य पर्व में पिशाचों को विराट् प्रभु की पादांगुलि कहा गया है।
अपने द्वारा याचित एवं बलि से प्रतिश्रुत तीन पद भूमिदान का संकल्पजल हाथ से गिरते ही वामन अवामन होकर अपना सर्वदेवमय रूप प्रकट करते हैं :-
भूः पादौ द्यौः शिरश्चास्य चन्द्रादित्यौ च चक्षुषी। पादाङ्गल्यः पिशाचाश्च हस्ताङ्गल्यश्च गुह्यकाः। ७१.४४-५५
तस्य देवमयं रूपं दृष्ट्वा विष्णोर्महासुराः। अभ्यसर्पन्त सङ्क्रुद्धाः पतङ्गा इव पावकम् ।। ५६ ।।
भूमि उनका पदद्वय थी, द्यौ शिर था, चन्द्रसूर्य चक्षु थे, पिशाच पादाङ्गुलि तथा गुह्यक हस्तांगुलि थे। उन विष्णु के देवमयरूप को देखकर क्रोध में भरे महासुर पावक (अग्नि) की ओर पतिङ्गों की भाँति उन पर टूट पड़े। देवमय रूप का यह वर्णन ४४ से ५५ तक पद्यों में है, उद्धृत पद्य प्रथम है जिसमें भूमि, द्यौ, सूर्यचन्द्र के साथ पिशाचों को गिना गया है। इससे उनके स्वरूप का अनुमान लगाया जा सकता है कि वे हम जैसे मानव रूप नहीं हैं।
पिशाच राजस सत्त्वविशिष्ट प्रकृति का रूप है। मनुष्यों में भी प्रमुखतया इस वृत्ति के रूप होते हैं जो पिशाच का दूसरा अर्थ है। भगवान् कृष्णात्रेय पुनर्वसु ने १ असुर, राक्षस, ३ पैशाच, ४ सार्प, ५ प्रेत तथा ६ शाकुन रूप में राजस वृत्ति के प्राणियों की गणना की है। इनमें ऐसे मनुष्यों के विषय में कहा गया है -
महालसं स्त्रैणं स्त्रीरहस्कामम् अशुचिं शुचिद्वेषिणं भीरु भीषयितारं विकृतिविहाराहारशीलं पैशाचं विद्यात्।
-चरक संहिता शारीरस्थान ४/५५
घोर आलसी, स्वीकामी, स्त्रियों के साथ एकान्त का प्रेमी, अशुचि, शुचिजनों से द्वेष रखने वाला, डरपोकों को डराने वाला, विकृति युक्त विहार और आहार का अभ्यासी पिशाचवृत्ति का व्यक्ति होता है।
अश्वशास्त्रियों ने घोड़ों में भी इन सत्त्वों की सत्ता मानी है।
स्थान विशेष के निवासियों की संज्ञा भी पिशाच है फलतः ये मनुष्य ही हैं तथा वैदिक संस्कृति के अनुयायी रहे हैं। यही कारण है कि भगवान् मनु ने आठ प्रकार के विवाहों में पैशाच विवाह को भी माना है। पिशाच जनपद के योद्धा महाभारत युद्ध में युधिष्ठिर के पक्ष में थे। भीष्म पर्व ५०/५० से ज्ञात होता है कि ये क्रौञ्चव्यूह के दाहिने पक्ष के स्थान पर स्थित थे। इधर दुर्योधन की सेना में भी भगदत्त के साथ पिशाच थे यह भी भीष्मपर्व ८७/८ का उल्लेख है। द्रोण पर्व (११.१६) से विदित होता है कि श्रीकृष्ण ने भी पिशाच देश के योद्धाओं को पराजित किया था।
शान्तिपर्व से ज्ञात होता है कि ब्रह्मजन्मा होने से मानव ब्राह्मण ही था। कालान्तर में जब इनमें से जो लोग ब्रह्म अर्थात् वेद को छोड़ते गये, वैदिक संस्कारों से हीन होते गये तो अद्विज होकर अन्त में पिशाच, राक्षस, प्रेत जैसी विभिन्न जातियों का रूप लेते चले गये।
न विशेषोऽस्ति वर्णानां सर्व ब्राह्यमिदं जगत्।ब्रह्मणा पूर्वसृष्टं हि कर्मभिर्वर्णतां गतम् ।१८८/१० ब्रह्म चैव परं सृष्टं ये न जानन्ति तेऽद्विजाः।तेषां बहुविधास्त्वन्यास्तत्र तत्र हि जातयः ।।१७।।
पिशाचा राक्षसाः प्रेता विविधा मनेच्छजातयः प्रणष्टज्ञानविज्ञानाः स्वछन्दाचारचेष्टिताः ।। १८ ।।
भगवान् भृगु भरद्वाज को कह रहे हैं कि वर्ण मानवों के भेदक नहीं है क्योंकि सम्पूर्ण जगत् ब्रह्मा के द्वारा उत्पादित होने से ब्राह्म है जो कालान्तर से वर्णभाव को प्राप्त हुआ है। जिनको भिन्न-भिन्न स्थानों पर नाना प्रकार की जातियाँ हुई। जो ज्ञान-विज्ञान से सर्वचा शून्य, स्वच्छन्द आचार और चेष्टाओं वाली पिशाच, राक्षस और प्रेत आदि विविध म्लेच्छ जातियों में प्रसिद्ध हुई।
म्लेच्छत्व प्रथम भाषा में तदनन्तर सम्पूर्ण सांस्कृतिक जीवन में व्याप्त हो जाता है। भगवान् पाणिनि ने 'पश्र्वादियौधेयादिभ्यामणनौ' (५.३.११७) सूत्र में पश्वादिगण में अन्य जातियों के साथ असुर, रक्षस् तथा पिशाच शब्द पड़े हैं।
१४७ डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल ने 'पाणिनि कालीन भारत वर्ष' में पिशाच के लिये लिखा है:-
यद्यपि कच्चा माँस खाने वालों के लिये यह सामान्य शब्द था, पर खोजी ग्रियर्सन ने सिद्ध किया है कि उत्तर-पश्चिमी सीमान्त प्रदेश में दरदिस्तान, चितराल के लोगों का व्यापक नाम पिशाच था क्योंकि उनमें कच्चा माँस खाने का किसी समय बहुत रिवाज था। वहीं दूसरे खोजी हर्नली ने काफिरिस्तान के दक्षिण आधुनिक लमगान (प्राचीन लम्पाक) के पड़ौसी पशाई काफिरों की पहचान पिशाचों से की थी जिसे ग्रियर्सन ने भी ध्वनिशास्त्र की दृष्टि से समीचीन माना था (पिशाच जे आर ए एस १९५०, २८५-८८)। पार्जिटर ग्रियर्सन से सहमत थे। उनका कथन है कि पिशाच वास्तविक जाति की संज्ञा थी, उसी का विकृतरूप दैत्य, दानववाची पिशाच शब्द में आ गया। (जे आर ए एस १९१२, पृ. ७१२)। पैशाची प्राकृत की अनुश्रुति इतनी पुष्ट है कि उसके बोलने वालों के अस्तित्व में सन्देह का कारण नहीं। (पृ. ४३१)
जिस प्रकार 'अत्त्रि' शब्द वेद में हानिकर कोट आदि के लिए भी व्यवहत हुआ है वैसे ही पिशाच भी कुछ ऐसे ही अर्थ में भी प्रयुक्त है।
ऐसे अन्य भी अनेक रूप हैं उन सबका अध्ययन 'पिशाचवेद' के स्वरूप तक पहुँचने व समझने में सहायक है।