पारिवारिक संस्कारों के दूषित होने से गड़बड़ हो गई। लोगों को ठीक से समझाया ही नहीं जाता कि धर्म और धार्मिक कृत्यों के आवश्यक नियम और योग्यता क्या है??? जबकि अभी से साठ सत्तर वर्ष पहले तक लोगों को इस संबंध में थोड़ा बहुत ज्ञान था।
नये जमाने के अनुसार अपडेट होते लोग वर्णाश्रम धर्म के नियमों का उल्लंघन करने लगे। धीरे धीरे अनिवार्य नियम (शर्तें)ही भूल गए।अब धार्मिक कृत्य मात्र औपचारिकता रह गये, श्रध्दा विश्वास आदर का भाव नहीं रहा। पंडित और यजमान दोनों को ही धार्मिक अनुष्ठानों के लिए आवश्यक अनिवार्य योग्यता के विषय में ज्ञान नहीं रहा। पंडित का ध्यान केवल दक्षिणा पर और यजमान का ध्यान जैसे तैसे धार्मिक कर्मकांड को पूरा करने में होता है।
पुरोहित के मन में यजमान के प्रति करुणा कल्याण का भाव नहीं होता, केवल दक्षिणा प्राप्ति लक्ष्य होती है। यजमान के मन में पुरोहित के प्रति आदर सम्मान श्रद्धा नहीं होती वह कम से कम खर्च में दिखावे के लिए सामाजिक पारिवारिक दबाव में धार्मिक अनुष्ठान करवाते हैं। इससे किसी को भी शुभ फल प्राप्त नहीं होते। और धीरे-धीरे लोगों की धर्म के प्रति अरुचि बढ़ती जा रही है। इसमें ब्राह्मण और यजमान दोनों का ही दोष है। लोग स्वयं में सुधार न करके एक दूसरे को दोषी ठहराते रहते हैं।
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पुरोहित और यजमान के बीच तादात्म्य होना आवश्यक है। यदि उनके बीच स्नेह का संबंध नहीं है तो भाव ऊर्जा का सदुपयोग होगा ही नहीं। क्योंकि धार्मिक क्रियाओं में भाव महत्वपूर्ण है। जिन लोगों ने तंत्र का थोड़ा बहुत अध्ययन किया है वे जानते हैं कि भाव अनुसार मंत्रों के प्रभाव में परिवर्तन हो जाता है।
यदि पुरोहित के मन में यजमान के प्रति करुणा कल्याण का भाव नहीं हुआ तो हवन पूजन का कोई फल नहीं मिलेगा, बल्कि कई बार विपरीत फल मिलने की संभावना बढ़ जायेगी। जैसे कि यजमान से रुष्ट पंडित जब मंत्र पढ़ते हुए हवन करेगा तो अभिचार कर्म जैसा फल मिल सकता है।
इसीलिए परंपरा थी कि ब्राह्मण से मिलने पर उनके चरण स्पर्श कर आदर श्रद्धा भाव व्यक्त किया जाता था। सम्मान मिलने पर पुरोहित के हृदय में यजमान के प्रति करुणा और कल्याण का भाव होता था। ऐसे संबंधों में धार्मिक अनुष्ठानों में पुरोहित के लिए दक्षिणा गौण हो जाती थी। जबकि यजमान यथा संभव अधिक देने का प्रयास करते थे। और सही विधान से किये गए अनुष्ठान का उचित प्रतिफल प्राप्त होता भी था।
अतः जिसके हृदय में ब्राह्मण पुरोहित के प्रति श्रद्धा आदर का भाव न हो उसे धार्मिक अनुष्ठान करवाना ही नहीं चाहिए।
और जिस पुरोहित पंडित के हृदय में यजमान के कल्याण का भाव न हो, यजमान के प्रति द्वेष भाव हो ऐसे यजमान के धार्मिक अनुष्ठान नहीं करवाना चाहिए। केवल दक्षिणा के लोभ में धार्मिक अनुष्ठान को दिखावे के लिए करने से पंडित पुरोहित स्वयं प्रज्ञापराधी हो जायेंगे। ऐसे में दोनों को हानि ही होगी। लोभी
गुरु लालची चेला,होंय
नरक में ठेलम ठेला।
जय श्री सीताराम जी
राम आ रहे हैं 🙏🙏🚩🚩