लोमश ऋषि ने कागभुशुण्डि जी को श्राप दे दिया ।
कि,जा कौवा हो जा।
कौवे की भांति कांव कांव करके मेरी बात का खंडन कर रहा है।
क्योंकि लोमस ऋषि निर्गुण ब्रह्म का ज्ञान समझा रहे थे।
और काग भूसुंडी जी के हृदय में परमात्मा का सगुण साकार रूप बसा हुआ था।
इसलिए कागभुशुण्डि जी लोमश ऋषि की बात का खंडन करते रहे
जब श्राप स्वीकार करके कागभुसुंडि जी उड़कर जाने लगे
तब लोमस ऋषि को बड़ी दया लगी ।
और उन्होंने उन्हें बुलाया।
संत कहते हैं भगवान का जो भक्त होता है ।
वह हर स्थिति में भगवान की कृपा ही देखता है।
उसके साथ यदि अच्छा होता है तब भी भगवान की कृपा मानता है ।
और यदि कुछ बुरा होता दिखाई देता है।
तब भी भगवान की कृपा ही मानता है।
कागभुशुण्डि जी ने भी इस श्राप को भगवान की कृपा ही माना।
हमारे सनातन धर्म में संतों का बड़ा उल्लेख मिलता है।
संत तुकाराम जी, संत एकनाथ जी, और संत नरसी मेहता जी, तीनों ही महान संत हुए।
संत तुकाराम जी के यहां स्थिति बिल्कुल विपरीत थी।
उनकी पत्नी बड़े क्रोधित स्वभाव की थी ।
हमेशा लड़ना झगड़ना कलह करना, यह उनका स्वभाव था। किंतु तुकाराम जी इस बात को भी भगवान की बड़ी कृपा ही मानते थे।
उन्हें लगता था कि प्रभु आपने बड़ी कृपा की है।
जो ऐसी पत्नी दी ।
यदि पत्नी अनुकूल होती ।
तो हो सकता है।
मेरा मन आप में नहीं लगता पत्नी में ही लगा रहता ।
पत्नी के इस रुखे स्वभाव के कारण मेरी प्रीति पत्नी में नहीं रही।
मेरा मन आपकी भक्ति में लग गया।
यह आपकी बड़ी कृपा है।
एक दूसरे तरह के संत हुए एकनाथ जी ।
एकनाथ जी की भार्या बिल्कुल अनुकूल थी।
एकनाथ जी के कहे अनुसार चलती थी ।
पूजा पाठ दान धर्म हर समय अपने पति के अनुकूल ही रहती थी।
एकनाथ जी इसमें भी भगवान की बड़ी कृपा मानते थे।
कहते थे ,प्रभु अच्छा ही हुआ आपने मुझे अनुकूल पत्नी दी। ताकि भक्ति भजन में मुझे कभी कोई रोक टोक नहीं है।
कोई प्रतिकूल पत्नी होती तो शायद आपके भजन में विघ्न वाधा पहुंचाती।
यह तो आपकी बड़ी कृपा है। पत्नी अनुकूल है ।
उधर भक्त नरसी जी हुए। जिनकी पत्नी का स्वर्गवास हो गया ।
अब नरसी जी इसे भी भगवान की कृपा मानने लगे ।
प्रभु अच्छा ही हुआ ।
जो पत्नी का स्वर्गवास हो गया थोड़ा बहुत झंझट था।
वह भी खत्म हो गया ।
अब तो मैं केवल आपका भजन ही निश्चिंत होकर करता रहूंगा।
दूसरा कोई काम ही नहीं है।
अब कोई झंझट नहीं है।
पत्नी प्रतिकूल थी ।
तब भी भगवान की कृपा।
पत्नी अनुकूल थी।
तब भी भगवान की कृपा।
पत्नी का स्वर्गवास हो गया तब भी भगवान की कृपा।
संत कहते हैं।
भगवान के जो भक्त होते हैं ।
वह हर परिस्थिति को भगवान की इच्छा ही मानते हैं।
एक महात्मा जी अन्य लोगों के साथ गंगा जी में नौका से भ्रमण कर रहे थे ।
और अचानक नाव के अंदर पानी प्रवेश करने लगा।
लोगों में घबराहट बढ़ गई।
किंतु वह महात्मा जी अपना कमंडल लेकर गंगा जी में से कमंडल भर भर कर नाव में जल डालने लगे।
लोगों ने देखा और कहा ।
अरे यह क्या कर रहे हो?
यह तो पागलपन है ।
ऐसे में तो नाव नही डूबती होगी तो भी डूब जाएगी।
लोगों ने उन्हें ऐसा करने से रोका नाविक ने जैसे तैसे करके नौका को किनारे पर लाया ।
जैसे ही नौका किनारे के पास आई ।
महात्मा जी वापस कमंडल से वह जल गंगा जी में डालने लगे। किनारे पर जाकर लोगों ने उन्हें बड़ी फटकार लगाई।
कहा तुम पागल हो क्या?
जब नाव में पानी भर रहा था।लोग घबरा रहे थे।
नाव डूबने का खतरा बढ़ रहा था और तुम बड़े मजे से उस नाव में पानी डाले जा रहे थे।
तुम्हें मरने का भी डर नहीं था।
महात्मा जी ने बड़ी सहजता से उत्तर दिया ।
भाई मुझे ऐसे लगा कि भगवान इस नाव को डुबोना चाहते हैं ।जब भगवान की ऐसी ही इच्छा है तो मैने विचार किया।
कि इसमें भगवान का सहयोग करना चाहिए ।
भगवान की इच्छा नाव डुबोने की है ।
तो मैं भी उसमें और जल डालकर इस कार्य को अति शीघ्र पूर्ण कर देना चाहता था।
और जब नौका किनारे पर आ गई ।
तब मुझे लगा कि भगवान इस नाव को डुबाना नहीं चाहते हैं।
तो मैं भी उस नौका से जल बाहर निकलने लगा ।
उसमें भी मैं भगवान का सहयोग ही कर रहा था।
लोगों ने तो उस महात्मा जी के हाथ जोड़ लिए।
धन्य हो प्रभु फिर कभी ऐसा मत करना।
भगवान के भक्त और आम जनों के बीच बस यही अंतर है।
भगवान के भक्त तो हर परिस्थिति को भगवान की कृपा ही मानते हैं।
भगवान की इच्छा ही मानते हैं।
कागभुसुंडि जी ने लोमश ऋषि से कहा।
गुरुदेव इसमें आपका कोई दोष नहीं है।
यह तो भगवान ने मेरे प्रेम की परीक्षा ली है।
इस कारण आपके द्वारा मुझे श्राप दिलवा दिया।
किंतु आपने मुझे यह श्राप देकर मेरे ऊपर बहुत बड़ा उपकार किया।
ऋषि लोमस महात्मा जी ने पूछा?
इसमें तुम्हारा हित किस प्रकार है?बताऔ?
कागभुसुंडि जी गुरुदेव लोमस ऋषि को, विस्तार से समझाते हैं कि उनका इसमें किस तरह का हित है।
*यह प्रसंग अगली पोस्ट में जय श्री राम।*