जय श्री राम।।
कागभुशुण्डि जी गरुड़ जी को कथा सुना रहे हैं कि,
जब एक समय में भगवान शिवजी के मंदिर में बैठकर शिवजी के नाम का जप कर रहा था।
तभी वहां गुरु जी का आगमन हुआ ।
मेरे हृदय में अभिमान भरा था।
मैंने उठकर गुरुजी को प्रणाम नहीं किया।
*एक बार हर मंदिर,जपत रहेऊं शिव नाम गुर आयउ अभिमान तें,उठि नहिं कीन्ह प्रणाम।।*
मेरी दृष्टि में गुरु जी का कोई महत्व नहीं था ।
केवल दिखावा था ।
जैसे ही गुरु जी का आगमन हुआ तो मैंने देखा गुरु जी आ रहे हैं। मुझे प्रणाम करने के लिए उठना पड़ेगा ।
इसलिए जानबूझकर नेत्र बंद करके बैठा रहा।
ताकि गुरु जी को ऐसा लगे कि, मैं ध्यान में बैठा हूं।
इसलिए गुरु जी को देख नहीं पाया।
मैंने गुरुजी को प्रणाम नहीं किया
तो गुरु जी ने तो मुझे कुछ नहीं कहा
उन्हें इस बात का जरा भी बुरा नहीं लगा।
और ना ही क्रोध आया।
किंतु गुरु के इस अपमान को भगवान शिव बर्दाश्त नहीं कर सके।
*सो दयाल नहि कहेउ कछु उर न रोष लवलेष अति अघ गुरु अपमानता सहि नहिं सके महेश।।*
भगवान शिव तो भोलेनाथ है भोले अवश्य हैं।
किंतु जान गए की मैंने , जानबूझकर गुरु जी का अपमान किया है।
गुरु जी को उठकर प्रणाम नहीं किया है ।
मंदिर में आकाशवाणी हुई।
*मंदिर माझ भई नभबानी।*
*रे हतभाग्य अग्य अभिमानी।।*
अरे पापी तेरे गुरु को क्रौध नहीं आया।
क्योंकि उन्हें यथार्थ ज्ञान है।
गुरु जी के आगमन पर तू जानबूझकर अपने नेत्र बंद करके अजगर की भांति बैठा रहा।
गुरु जी का सम्मान नहीं किया। गुरु जी को प्रणाम नहीं किया। तुझे श्राप मिलना आवश्यक है। यदि तुझे श्राप नहीं मिलेगा।
तो गुरु शिष्य की यह परंपरा ही नष्ट हो जाएगी ।
शास्त्रों की मर्यादा मिट जायेगी।
*जौं नहिं दंड करौं खल तोरा।*
*भ्रष्ट होइ श्रुतिमारग मोरा।।*
इसलिए मैं तुझे श्राप देता हूं।
तू अजगर की भांति बैठा रहा। इसलिए हजार जन्म तू सर्प की योनि को धारण करेगा।
*बैठि रहेसि अजगर इव पापी।*
*सर्प होहि कल मल मति ब्यापी।*
आकाशवाणी सुनकर गुरुदेव ने हाहाकार किया।
मुझे कांपता हुआ देखकर गुरु जी के मन में बड़ा संताप हुआ।
*हाहाकार कीन्ह गुर,दारुन शिव सुनि साप।।*
गुरुदेव बड़े दयालु थे ।
उन्होंने मुझे हृदय से लगा लिया।
मेरी भयंकर गति का विचार करके गुरुदेव ,
भगवान शिव से दोनों हाथ जोड़कर प्रार्थना करने लगे।
*करि दंडवत सप्रेम द्विज,शिव सम्मुख कर जोरि।।*
गुरुदेव के द्वारा भगवान शिव जी की स्तुति रामचरितमानस के उत्तरकांड में पृष्ठ संख्या ९९५पर हैं।
वैसे तो आप सब लोग भक्ति परायण हो सब जानते ही हो।
फिर भी यदि किसी को नहीं मालूम हो तो जानकारी के लिए मैंने यह बताया है।
*नमामि शमीशान निर्वाण रूपं विभुं व्यापकम ब्रह्म वेद स्वरूपम*
यह सम्पूर्ण स्तुति मोबाइल पर सर्च करने पर भी आ जाती है।
भगवान शिवजी के मंदिरों में इस स्तुति का प्रदिदिन पाठ किया जाता है।
गुरुदेव की इस प्रार्थना पर भगवान शिव प्रसन्न हुए।
मंदिर में आकाशवाणी हुई कि वरदान मांगों।
ब्राह्मण ने कहा ।
है प्रभु यदि आप मुझ पर प्रसन्न हो तो अपने चरणों की भक्ति दीजिए।
फिर दूसरा वरदान में यह मांगता हूं
यह अज्ञानी जीव आपकी माया के वस होकर निरंतर भूला रहता है ।
कृपा करके इस बालक को जो आपने श्राप दिया है।
उसे इससे मुक्त कीजिए।
ब्राह्मण देवता की बातें सुनकर फिर आकाशवाणी हुई।
कि इसने भयानक पाप किया है। और मैंने भी इसे क्रोध में आकर श्राप दिया है।
यह श्राप मिथ्या नहीं हो सकता है।
किंतु है ब्राह्मण।
तुम्हारी प्रार्थना से प्रसन्न होकर में इसके श्राप में कुछ संशोधन कर देता हूं।
इसे जन्म तो हजार ,सर्प के लेने ही पड़ेंगे । यह मिथ्या नहीं हो सकता है।
किंतु यह स्वेच्छा से अपनी देह का त्याग कर सकेगा।
जन्म और मरण का इसे दुख नहीं होगा
*जनमत मरत दुसह दुःख होई।*
*एहि स्वल्पउ नहिं ब्यापिहि सोई।।*
कागभुशुण्डि जी गरुड़ जी को आगे सुनाते हैं कि,
आकाशवाणी ने एक बात और बड़ी अच्छी कही।
कि इसका किसी भी जन्म में ज्ञान मिटेगा नहीं।
इसे अपने हर जन्म का ज्ञान रहेगा।
*कवनेऊं जन्म मिटिहि नहि गयाना*
मैं यही इसके श्राप में संशोधन कर रहा हूं ।
गुरु जी कितने दयालु थे।
यदि उनके स्थान पर कोई और होता तो यही कहता।
है भोलेनाथ आपने ठीक ही किया ।
मैंने इसे कई बार समझाया।
कि किसी का विरोध मत करो। लेकिन यह माना ही नहीं।
आपने इस श्राप देकर अच्छा ही किया ।
यह दंडनीय ही था ।
किंतु मेरे गुरुदेव ने मुझ पर बड़ी कृपा की ।
इसके पश्चात मैं गुरुदेव के आश्रम से चलकर आ गया।
काल की प्रेरणा से में मृत्यु को प्राप्त हुआ।
और फिर मैं विंध्याचल में जाकर सर्प हुआ।
सर्प की योनि धारण करने के पश्चात में जल्दी-जल्दी इस योनि से मुक्त होता गया।
गरुड़ जी ने यहां पूछा कि?
शरीर त्यागने और धारण करने में तुम्हें कष्ट नहीं होता था?
कागभुशुण्डि जी ने कहा नहीं होता था।
मैं शरीर का त्याग इस तरह करता जैसे पुराने वस्त्र उतारकर नये वस्त्र धारण करना।
*जिमि नूतन पट पहिरयी।*
*नर परिहरई पुरान।।*
है गरुड़ जी सब कुछ तो बिल्कुल ठीक था ।
किंतु एक बात का दुख मुझे हमेशा सताता रहता था।
गरुड़ जी ने पूछा कौन सा दुख सताता था?
मेरे गुरु का सील स्वभाव।
*गुरु कर कोमल सील सुभाऊ।*
*एक सूल मोहि बिसर न काऊ।।*
मेरे गुरु का कोमल स्वभाव जिसका मैंने बहुत अपमान किया।
बस यही दुख मुझे सूल की भांति चुभता रहता है।
मैंने अपना अंतिम जन्म ब्राह्मण परिवार में पाया।
*यह प्रसंग अगली पोस्ट में जय श्री राम।।*