नारद जी ने गरुड़ जी को ब्रह्मा जी के पास अपना संसय मिटाने के लिए भेज दिया ।
कहा कि मैं तो तुम्हें समझा नहीं सकता।
मेरा एक ही मुख है।
जिससे मैं दिन रात भगवान के नाम का भजन करता हूं।
ब्रह्मा जी के पास जाओ।
उनके चार मुख् हैं।
वह तुम्हें समझा सकते हैं।
गरुड़ जी ब्रह्मा जी के पास गए और, जाकर ब्रह्मा जी से अपना
वही प्रश्न दोहराया।
कि,राम जी भगवान हैं कि नहीं?।
ब्रह्मा जी ने कहा देखो।
मेरे चार मुख है।
इन चारों मुखों से मैं वेदों का उच्चारण करता रहता हूं ।
और कुछ मैं बखान करता ही नहीं हूं।
मैं तुम्हें समझा नहीं सकता ।
गरुड़ जी बोले ,तो फिर मुझे बताओ मैं कहां जाऊं?
कौन है जो मेरे इस संसय को मिटा सकते हैं?।
कि रामजी भगवान है य नहीं।
ब्रह्मा जी बोले।
तुम एक काम करो।
भगवान शंकर के पास जाओ। उनके पांच मुख है।
वह तुम्हारे प्रश्न का उत्तर देंगे।
नारद जी एकानन है।
मैं चतुरानन हूं।
और भगवान शिव पंचानन है।
यह सुनकर गरुड़ जी का अभिमान और बढ़ गया।
कि मेरा प्रश्न इतना महत्वपूर्ण है जिसका उत्तर ब्रह्मा जी भी नहीं दे पाए ।
नारद जी नहीं समझा पाए।
ब्रह्मा जी नहीं समझा पाए।
संत कहते हैं,
यह अभिमान का रोग बहुत दुखदाई है।
हर किसी अभिमानी को हो जाता है।
कभी-कभी कई लोगों को अपनी बीमारी का अभिमान हो जाता है।
जैसे कि यह कोई बहुत बहादुरी का काम है।
लोगों से कहते फिरते हैं।
मुझे ऐसी बीमारी हुई साहब।
की कोई समझ ही नहीं पाया ।यहां के डॉक्टरों ने तो साफ मना कर दिया ।
कहा कि हमारे बस से बाहर है ।
उन्होंने लखनऊ रेफर कर दिया ।लखनऊ वाले भी नहीं समझ पाए ।
उन्होंने कहा कि दिल्ली जाओ।
उन्होंने दिल्ली रेफर किया।
दिल्ली में भी कोई नहीं समझ पाया ।
वह तो वहां अमेरिका का एक डॉक्टर आया हुआ था।
उसने थोड़ा बहुत समझा कर कहा कि तुम्हें यह रोग है।
यही हाल गरुड़ जी के हो रहे हैं।
संत कहते हैं यही हाल अध्यात्म का तुच्छ ज्ञान रखने वाले लोगों का है।
वह भी अपने कुतर्क भरे प्रश्नों को लेकर घूमते रहते हैं।
उनके कुतर्क भरे प्रश्नों का उत्तर कोई विद्वान देना नहीं चाहते हैं। तब उन अल्प बुद्धि वाले लोगों को यह लगता है कि मेरा प्रश्न बहुत महत्वपूर्ण है।
इसका उत्तर छोटे मोटे महात्मा तो जानते ही नहीं है।
इस बात का वह प्रचार भी करते हैं ।
कि मेरे प्रश्न का कोई उत्तर नहीं दे पाया।
कई संत महात्माओं से मैंने पूछा किसी के पास उत्तर नहीं था।
वह तो एक स्थान पर एक विद्वान आचार्य के आचार्य थे। उन्होंने मुझे कुछ समझाया।
इस तरह का अभिमान हो जाता है।
गरुड़ जी मार्ग में चले जा रहे थे। और भगवान शिव गरुड़ जी को मार्ग में ही मिल गए।
गरुड़ जी ने भगवान शिव को प्रणाम किया ।
और अपना प्रश्न दोहराया। भोलेनाथ मुझे यह बताओ?
राम जी भगवान है कि नहीं।?
मुझे नहीं लगता है कि राम जी भगवान है।
और कभी कभी लगता भी है कि शायद हों भी सकते हैं।
भगवान है तो फिर बंधन में कैसे बंध गए।?
उनको बंधन से मुक्त मैंने किया।
मैं नारद जी के पास गया ।
वह मुझे नहीं समझा पाए।
ब्रह्मा जी भी मुझे नहीं समझा पाए।
आप मुझे समझाओ।
भगवान शिव ने कहा।
देखो गरुड़ जी तुम मुझे रास्ते में मिले हो ।
और रास्ते में मैं तुम्हें समझा नहीं सकता।
संत कहते हैं इन रास्तों में मिलने वालों को समझाना बड़ा कठिन है रास्ते में मिले हैं से अर्थ है कि,
न तो यह ज्ञान के सम्बन्ध में कुछ जानते हैं।
और न ही ऐसा है कि कुछ जानते भी न हो।
इनमें दोनों चीज थोड़ी थोड़ी होती है।
क्योंकि ना तो यह बिल्कुल नासमझ होते हैं ।
और ना ही समझदार होते है। अधूरे होते हैं ।
इधर में भी नहीं और इधर में भी नहीं।
शिवजी ने कहा कि देखो गरुड़ जी।
या तो तुम वहीं रहते जहां थे। भगवान शिव का इस तरह कहने के पीछे भाव यह था कि,या तो तुम बिल्कुल अज्ञानी रहकर मुझसे यह प्रश्न करते।
यदि अज्ञानी रहते तो ,
मैं तुम्हें वहां आकर समझा सकता था।
या फिर तुम वहां आ जाते जहां मैं था।
इसका आशय यह था कि, जिस तरह मेरी रामजी के प्रति निष्ठा है वही निष्ठा तुम्हारी हो जाती ।
तुम्हें ज्ञान हो जाता।
तो भी कोई परेशानी नहीं थी।
वहां तक तुम पहुंचे नहीं।
यदि वहां तक पहुंच जाते,
तो समझाने की आवश्यकता ही नहीं होती।
किंतु तुम मुझे रास्ते में मिले हो ।इधर ना उधर ।
न ही अज्ञानी हो।
और न ज्ञानी,
मैं तुम्हें किस तरह समझाऊं ।
इसलिए रास्ते में मैं तुम्हें समझा नहीं सकता ।
संत कहते हैं की अपने अल्प ज्ञान का जिन्हें अभिमान होता है। उनके साथ बड़ी समस्या होती है।
ऐसे लोग अपने मन में समझते हैं कि, मुझ में बहुत कुछ ज्ञान आ चुका है।
बस थोड़ा बहुत ही बाकी है।
यदि मुझे कोई अच्छा गुरु मिल जाए तो मैं इसमें पारंगत हो सकता हूं।
किंतु वह यह नहीं जानते हैं ।
कि, जो ज्ञान उन्होंने अर्जित किया है वह सही है भी या नहीं?
यदि उनका ज्ञान सही नहीं है तो फिर उनके उस ज्ञान को पहले तो भुलाना आवश्यक है।
तब जाकर फिर वह नया कुछ सीख पाएंगे।
एक महात्मा जी एक किस्सा सुना रहे थे।
एक व्यक्ति संगीत के विद्वान के पास संगीत सीखने के लिए गया।
और जाकर कहा कि गुरुदेव मुझे संगीत सीखना है।
मुझे संगीत का बिल्कुल भी ज्ञान नहीं हैं।
सिखाने वाले ने कहा अवश्य सिखाऊंगा।
किंतु400रु मासिक शुल्क देना होगा।
सीखने वाले ने कहा अवश्य बड़ी श्रद्धा से दूंगा।
वहीं पर फिर एक दूसरा व्यक्ति गया।
उसने कहा गुरुदेव संगीत तो मुझे भी सीखना है।
वैसे तो मैं बहुत कुछ सीखा हुआ हूं।
सा रे गा मा पा ध नि सा। और भी थोड़ा-थोड़ा बहुत कुछ जानता हूं।
सिखाने वाले ने कहा कि अवश्य सिखाऊंगा
किंतु तुम्हारी फीस ८००रु रहेगी।
उसने कहा गुरुदेव जिसे कुछ नहीं आता है उससे आप केवल ₹400 ले रहे हो।
और मैं तो बहुत कुछ सीखा हुआ हूं फिर मुझसे 800 क्यों ले रहे हो?
संगीत सिखाने वाले गुरु ने कहा कि, तुमसे ₹800 इसलिए ले रहा हूं कि, तुम जो कुछ सीखे हुए हो, पहले उसे भुलाना पड़ेगा।
400 रु भुलाने के और फिर 400 रु सिखाने के।
इस तरह यह अधूरा ज्ञान बड़ा दुखदाई है।
यह कई तरह के संशय को जन्म देता है।
सिखाने वाले को भी बहुत परिश्रम करना पड़ता है।
भगवान शिव भी जानते थे कि,
गरुड़ जी इतनी सहजता से समझ नहीं पाएंगे।
इसलिए कह दिया कि मैं तुम्हें रास्ते में नहीं समझा सकता।
गरुड जी ने कहा फिर मुझे कोई उपाय बताओ ।
जहां जाकर में समझ सकूं।
कौन है जो मेरे संसय को दूर कर सकता है?।
*यह प्रसंग अगली पोस्ट में जय श्री राम।।*🏹🚩