सुग्रीव जी ने भगवान की शरणागति तो प्राप्त की किंतु प्रारंभ में कपट का त्याग नहीं किया। भगवान से कपट किया।भगवान की बातों पर विश्वास ही नहीं किया। भगवान से ही परीक्षा देने को कहा।
परमात्मा तो स्वयं कहते हैं,कि,
निर्मल मन जन सो मोहि पावा।
मोहि छल छिद्र कपट नहीं भावा।
जिसका मन निर्मल होगा वही मुझे पा सकता है।छल कपट करने वाला मुझे प्राप्त नहीं कर सकता है।
रामजी अपने भक्तों पर कृपा करके उसके दोषों का हरण कर ही लेते हैं। प्रभु ने मन में विचार किया, अभी इसने कपट का त्याग किया नहीं है। कुछ प्रशिक्षण की आवश्यकता है। चलो पहले इसी की व्यवस्था की जाए।
भगवान तो बड़े कौतुकी हैं, अपने भक्तों का अभिमान दूर करने में विलम्ब नहीं करते हैं।
सुग्रीव के कहे अनुसार भगवान ने परीक्षा दी ।और एक ही बाण से ताड़ के सातों वृक्षों को ढहा दिया।
सुग्रीव जी को विश्वास हो गया कि, रामजी अवश्य बाली का वध कर देगें।और जब भगवान ने पूछा अब क्या विचार है? तो सुग्रीव जी भगवान का धन्यवाद करने के स्थान पर ज्ञान और वैराग्य की बातें करने लगे।
जबकि सुग्रीव जी को चाहिए था कि प्रभु मुझे क्षमा कीजिए । मैंने आपकी बातों पर विश्वास नहीं किया। आपसे परीक्षा देने को कहा।किंतु अब मुझे पूर्ण विश्वास है। शरणागत हो जाना चाहिए था। किंतु सुग्रीव जी तो भगवान को ही ज्ञान समझाने लगे।रामजी ने कहा वह तो ठीक है। यह बात तो हम आगे भी करेंगे ।
और करना ही चाहिए ।किंतु तुम्हारा बाली के विषय में क्या ख्याल है ?बाली तुम्हारा शत्रु है या नहीं? सीधे सीधे व्यवहार की बात करो वेदांत की नहीं। सुग्रीव जी ने कहा हां बाली है तो सही मेरा शत्रु। रामजी ने कहा फिर जाओ। जाकर उससे युद्ध करो।
रामजी सुग्रीव जी को साथ में लेकर चले।
ले सुग्रीव संग रघुनाथा।
चले चाप सायक गहि हाथा।।
सुग्रीव जी मन में निशचिंत थे।कि मुझे तो कुछ करना है नही । जो कुछ करेंगे राम जी करेंगे। सुग्रीव जी ने जाकर बाली को ललकारा। बाली ने जब सुग्रीव की ललकार सुनी तो बड़ा आश्चर्यचकित हुआ ।उसने विचार किया कि। आज सुग्रीव को क्या हो गया है। इतना साहस इसमें कहां से आ गया ?।बाली अपने महल से निकल कर दौड़ा ।
बाली की पत्नी तारा ने बाली के चरण पकड़ कर विनती की ।कि है स्वामी , सुग्रीव जी जिनसे मिलें हैं वह कोई साधारण पुरुष नहीं है ।वह दोनों भाई काल को भी जीत सकते हैं ।
कोशलेश सुत लछिमन रामा।
कालहु जीति सकहिं संग्रामा।।
बालि नहीं माना तारा को समझाया ।
भगवान समदर्शी है, शत्रु मित्र में भेद नहीं रखते हैं। फिर भी यदि वह मुझे मारते हैं तो मैं अनाथ से सनाथ हो जाऊंगा।
कह बाली सुनु भीरु प्रिय,
समदर्शी रघुनाथ ,
जौं कदापि मोहिं मारहिं,
तो पुनि होंऊं सनाथ।।
अभिमान में भरकर बाली चला।
अस कहि चला महा अभिमानी।।
और आकर सुग्रीव को एक मुक्का जमाया ।अब तो सुग्रीव को जैसे ही मुक्का लगा। त्यों ही सुग्रीव जान बचाकर भागा,। सुग्रीव को वह
मुक्का वज्र के समान लगा।
तब सुग्रीव बिकल होइ भागा।
मुष्टि प्रहार वज्र सम लागा।।
राम जी के पास गया ।और आकर कहने लगा। मरवा दिया ना आपने मुझे। देखो मैं कह रहा था कि, बाली महाबली है ।वह मेरा भाई नहीं दुश्मन है।
बंधु न होइ मोर यह काला।।
वह मुझे अभी मार ही डालता। वह तो मैं भागने में होशियार हूं। जान बचाकर भाग आया। नही तो आपने तो मुझे अभी मरवा ही दिया था।
आपने तो मुझे विश्वास दिलाया था कि मैं उसे मार दूंगा ।फिर आपने उसे मारा क्यों नहीं? भगवान हंसते हुए बोले सुग्रीव जी ।तुम ही तो कह रहे थे, कि बाली मेरा शत्रु नहीं, वह तो मेरा परम हितैषी है। तो मैं यह देखना चाह रहा था कि वह तुम्हारा परम हितेषी तुम्हारे प्रति कैसा व्यवहार करता है ।
और तुम कह रहे थे कि सुख दुःख यह सब होते नहीं है,।यह सब सपने की भांति है। जब तुम ज्ञानी हो तो दुःखी क्यों हो रहे हों?।
सुग्रीव जी बोले प्रभु व्यंग मत करो।मेरा ज्ञान तो मुक्का लगते ही पता नहीं कहां गया। मुझे बहुत पीड़ा हो रही है।
भगवान ने सुग्रीव जी का अपने हाथों से स्पर्श किया। सुग्रीव जी की पीड़ा खतम हो गई।
कर परसा सुग्रीव शरीरा।
तनु भा कुलिस गई सब पीरा।।
श्री राम जी ने कहा कि मुझे भ्रम हो गया था। क्योंकि तुम दोनों भाई एक ही रूप रंग के हो ।मैं तुम्हें पहचान नहीं पाया। सुग्रीव जी ने कहा प्रभु। क्यों व्यंग करते हो। आपको भी कहीं भ्रम हो सकता है? रामजी ने व्यंगात्मक रुप में कहा। सुग्रीव जी ,जब तुम जैसे लोगों को ज्ञान हो सकता है ।तुम वेदांत और बैरागय की बातें करने लग जाते हो। तो क्या हमें भ्रम भी नहीं हो सकता है ।तुम ज्ञानी हो गए थे। तो मै ब्रह्म हो गया था। और ब्रह्म तो दृष्टा है।केवल देखता है । कुछ करता कहां है?सुग्रीव जी ने कहा नहीं प्रभु मैं ज्ञानी नहीं हूं। मैं तो आपका सेवक ही हूं। भक्त ही हूं ।भगवान ने कहा ठीक है। जब तुम अपने आप को ज्ञानी से हटाकर भक्त मानते हो। तो फिर मैं भी ब्रह्म से हटकर अब भगवान हो जाता हूं । अब तुम मेरे भक्त हो गये हो, तो अब मैं तुम्हारा भगवान हो गया हूं।जाओ अब जाओ ।फिर से जाकर उससे युद्ध करो ।अब मैं तुम्हें यह माला पहना कर भेज रहा हूं। जिससे कि मैं तुम्हें पहचान पाऊं। सुग्रीव जी ने कहा प्रभु पहले भी आपने ही मुझे भेजा था ।और मुझे जान बचाकर भागना पड़ा था। रामजी ने कहा अब नहीं भागना पड़ेगा। अब मैं तुम्हें अपना बल देकर भेज रहा हूं जाओ!
मेली कंठ सुमन के माला।
पठवा पुनि बल देइ बिसाला।।
सुग्रीव जी फिर से गए। और जाकर बाली को ललकारा। सुग्रीव की आवाज सुनकर बाली फिर से दौड़ा। बाली की पत्नी तारा ने बाली को रोका ।कहा स्वामी जरा विचार करो। सुग्रीव जी का इतना साहस नहीं कि वह तुम्हें ललकार सके। उन्हें भगवान श्री राम जी का आश्रय मिला हुआ है। और भगवान स्वयं उसके रक्षक बन कर उसके साथ आए हुए हैं।
हनुमान जी ने सुग्रीव जी की सिफारिश की है। आप सुग्रीव जी से बैर छोड़ दीजिए ।उनसे युद्ध करने मत जाइए ।वह भगवान के शरणागत हो चुके हैं। बाली ने पत्नी तारा की बात नहीं मानी ।कहने लगा नहीं नहीं। भगवान का अवतार तो धर्म के लिए हुआ है। वह मुझे अधर्म पूर्वक क्यों मारेंगे ?और यदि मारेंगे भी तो उनके द्वारा में सद्गति को प्राप्त हो जाऊंगा। ऐसा कहकर वाली सुग्रीव के ऊपर दौड़ा। दोनों भाइयों में युद्ध प्रारंभ हो गया। तुलसीदास जी इस प्रसंग में सुग्रीव जी के माध्यम से व्यक्ति के मन की कुटिलता का वर्णन कर रहे हैं ।इसलिए वह कहीं कहीं सुग्रीव जी के स्थान पर कपि शब्द का प्रयोग करते हैं। कपि का अर्थ होता है बंदर। और गोस्वामीजी का बंदर से अभिप्राय मन की दशा से है। कि यह हमारा मन भगवान के प्रति समर्पित तो रहता है ।किंतु टिक नहीं पाता है ।बार-बार बदलता रहता है । बन्दर से इस मन की उपमा इसलिए दी है कि बन्दर भी एक स्थान पर अधिक देर टिकता नहीं है।जब भगवान ने सुग्रीव जी से कह दिया था कि मैंने अपना बल तुम्हें दे दिया है। और अब तुम्हारी निश्चित विजय होगी ।इसके पश्चात भी सुग्रीव जी ने भगवान के बल का प्रयोग नहीं किया।
विश्वास ही नहीं किया भगवान की बातों का। अपनी ही तरकीब से लडने लगा।सुग्रीव जी अपने विवेक से ही छल बल करके बाली से लड़ाई लड़ रहे हैं।
बहु छल बल सुग्रीवहिं कीन्हा।।
जब भगवान ने देखा कि यह जब तक अपने बल का प्रयोग कर रहा है करने दो। मैं भी क्यों अपने बल को अनुमति दूं । करने दो इसे इसकी चतुराई।और हुआ भी वही ।सुग्रीव जी की चतुराई कपट चल नहीं पाया। बाली ने उसे भूमि पर पटक दिया। और जब उसके सीने पर बैठकर अपनी गदा का प्रहार करना चाहा। तब जाकर सुग्रीव जी ने अपने सारे कपट का त्याग कर दिया।उसे लगा अब तो भगवान ही बचा सकतें हैं। और जैसे ही भगवान के प्रति समर्पित हुए ।भगवान ने जब यह देखा कि सुग्रीव ने अपना कपट त्याग दिया है। और वह केवल मेरे पर आश्रित है ।तभी भगवान ने एक वृक्ष के आड़ से बाली के ऊपर वाण का प्रहार किया। और बाली वही विदीर्ण होकर भूमि पर गिर गया।
बहु छल बल सुग्रीव कर,
हियं हारा भय मानि
मारा बालि राम तब,
हृदय मांझ सर तानि।।
इसके आगे का प्रश्गं अगली पोस्ट में।
जय श्री राम।।