जटायु जी, घायल पड़े हुए राम-राम का उच्चारण कर रहे हैं।
किसी ने जटायु जी से कहा कि, अब तो तुम्हारे पंख कट चुके हैं,। अब तो तुम तुम्हारे राम जी के पास जा भी नहीं सकते हो।
जटायु जी ने कहा अच्छा ही हुआ कि मेरे पंख कट गए।
यदि मेरे पंख होते तो राम जी के पास जाने की जिम्मेदारी मेरी रहती।
अब मेरे पंख नहीं है तो मेरे पास आने की जिम्मेदारी अब प्रभु श्री राम जी की है।
वह अवश्य आएंगे मेरे पास।
उधर श्री राम जी मायावी मृग मारीच को मारकर वापस लौटे।
तो देखा कि लक्ष्मण जी आ रहे हैं। राम जी ने लक्ष्मण जी से कहा लक्ष्मण ,तुम्हारा संदेह सही निकला। वह मृग एक राक्षस ही था।
तुम श्री जानकी जी को अकेला छोड़ कर यहां चले आये मेरी आज्ञा का पालन नहीं किया।
जनकसुता परि हरिहु अकेली।
आयऊ तात वचन मम पेली।।
मुझे संदेह हो रहा है कि हमारे साथ छल हुआ है।। मेरा मन कह रहा है सीता अब हमें आश्रम में नहीं मिलेगी।
मम मन सीता आश्रम नहीं।।
अति शीघ्र दोनों भाई लौटकर आते हैं। और देखते हैं कि कुटिया में सीता जी नहीं है। श्री सीता जी को कुटिया में न पाकर
श्री राम जी बहुत विलाप करते हैं।
आश्रम देखि जानकी हीना।
भए बिकल जस प्राकृत दीना।।
पागलों की भांति वृक्षों से, लताओं से, पशु पक्षियों से पूछते हैं कि क्या तुमने श्री जानकी जी को देखा है?।
हे खग मृग है मधुकर श्रेनी।
तुम्ह देखी सीता मृग नैनी।।
इस तरह विलाप करते हुए मार्ग में जा रहे हैं।
उधर पंचवटी में जो ऋषि मुनि सन्यासी थे। जिन्होंने राम जी से पत्थरों को छुआ कर नारी बनवाने की भूमिका तैयार कर रखी थी। जब उन्होंने राम जी की यह दशा देखी तो आपस में एक दूसरे से पूछने लगे ।इन्हें क्या हुआ है?।
किसी ने बताया कि इनके साथ जो इनकी परिणिता थी।
उनका किसी राक्षस ने हरण कर लिया है। सन्यासी आपस में विचार करने लगे। यह तो सर्वज्ञ है स्वामी है भगवान है। जब इनकी पत्नी का कोई दुष्ट राक्षस हरण कर सकता है तो, हमारी तुम्हारी नारियों की कहां कुशलता रहने वाली थी। अच्छा ही हुआ कि हमने श्री राम जी से हमारे द्वारा बनाए गए पत्थरों को राम जी से छुआ कर नारी नहीं बनवाए। नहीं तो हमारी भी यही दशा होती। यह तो सर्वज्ञ है इनकी नारी को ढूंढ भी लेंगे। और राक्षस को सजा भी देंगे। यदि हमारे साथ ऐसा हो जाता तो हम क्या कर लेते।यह तो धनुष वाण धारी वीर धुरंधर है। हमारे पास तो केवल एक एक बीते के चीमटों के सिवा और कुछ है भी नहीं।
हम जैसे लोग क्या कर सकते थे।
भगवान जो करते हैं अच्छा ही करते हैं। हमारे साथ भी अच्छा ही हुआ कि, हम वन में अकेले है। कोई एक कहने लगा कि जो हमने पत्थरों में नारी की आकृति बनाई है। उन पत्थरों को किसी गुप्त स्थान पर छुपा दो। कहीं गलती से भी भगवान के चरण उन पत्थरों में लग गया तो वह नारी बनकर जबरदस्ती हमारे गले पड़ जाएगी। सबने अपने-अपने पत्थरों को गुप्त स्थान में छुपा दिए। भगवान श्री राम जी ने जब यह देखा कि सन्यासियों को शिक्षा मिल चुकी है। सन्यास धर्म की मर्यादा यथावत रह गई है। अब सन्यासियों के मन से नारी को साथ में रखने का भूत उतर चुका है। भगवान मन ही मन प्रसन्न हुए। सीता जी का हरण करवाने के पीछे भी, भगवान का मुख्य उद्देश्य इन साधू सन्यासियों को शिक्षा देना ही था।
श्री राम जी लक्ष्मण जी के साथ विलाप करते हुए, वन में सीता जी की खोज कर रहे हैं। उधर जब नारद जी ने देखा कि, भगवान मेरे द्वारा श्राप दिए जाने के कारण नारी के विरह में व्याकुल है। नारद जी को बड़ी चिंता हुई।
बिरहवंत भगवंतहि देखी।
नारद मन भा सोच विषेषी।।
मैंने ही इन्हें श्राप दिया था ।जिसके कारण ही यह इतना कष्ट उठा रहे हैं।
मोर शाप करि अंगीकारा।
सहत राम नाना दुख भारा।।
मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए था। किंतु जो हुआ सो हुआ। अब मुझे भगवान के पास जाकर कुछ क्षमा याचना करना चाहिए ।उन्हें सांत्वना देना चाहिए। इस उद्देश्य से नारद जी भगवान के समक्ष गए। नारद जी जब भगवान के पास गए ।तब भगवान एक् शिला पर बैठे हुए मंद मंद मुस्कुरा रहे थे। नारद जी ने भगवान को प्रणाम करते हुए कहा ।प्रभु आपकी यह क्या लीला है ?अभी कुछ समय पहले तो आप बहुत विलाप कर रहे थे। रो रहे थे ।और अब यहां बैठकर आप मुस्कुरा रहे हो। मेरे कुछ समझ में नहीं आ रहा है। भगवान ने मुस्कुराते हुए कहा नारद जी ।आपने जो पहले देखा था वह पर्दे के सामने का दृश्य था। स्टेज कार्यक्रम था। और अब जो देख रहे हो वह स्टेज के पीछे का दृश्य है ।पर्दे के पीछे का दृश्य है ।यह मेरी लीला है। मैं नरलीला कर रहा हूं। नारद जी कहने लगे प्रभु। आप मेरे द्वारा दिए हुए श्राप के कारण इतना कष्ट उठा रहे हैं। भगवान ने कहा नहीं नारद जी। इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं है। वनवास आना यह मेरा संकल्प था। और सीता हरण यह भी मेरी नरलीला का ही एक हिस्सा है। मैंने ही देवताओं को आश्वासन दिया था कि मैं वनवास में आकर राक्षसों का सर्वनाश करूंगा। और तुम्हारे यज्ञ की रक्षा करूंगा।
नारद जी ने भगवान को प्रसन्न जाना तब कहा। प्रभु मैं आपसे कुछ मांगना चाहता हूं दोगे?
रामजी बोले मुनिवर ऐसी कौन-सी वस्तु है जो मैं तुम्हें नहीं दे सकता?
कवन बस्तु अस प्रिय मोहि लागी
जो मुनिवर न सकहु तुम्ह मागी।।
नारद जी ने कहा प्रभु यूं तो आपके अनेक नाम हैं । किंतु मैं आपसे वरदान स्वरूप यह मांगता हूं कि, राम नाम सब नामों में श्रेष्ठ हों।
भगवान ने एवमस्तु कहा।
एवमस्तु मुनि सन कहउ कृपा सिंधु रघुनाथ।।
नारद जी ने भगवान को प्रसन्न जानकर प्रश्न किया।? भगवान एक बात बताओ? जब मैं विवाह करना चाह रहा था ।तब आपने मेरा विवाह क्यों नहीं होने दिया?
तब विवाह मैं चाहऊं कीन्हा।
प्रभु केहि कारन करै न दीन्हा।।
बंदर का रूप दे दिया। और मेरा विवाह नहीं होने दिया।
यदि उस समय आप मेरा विवाह हो जाने देते। तो मैं आपको श्राप नहीं देता। और आप इस तरह कष्ट नहीं उठाते ।जबकि भगवान शिव विवाह नहीं करना चाहते थे। फिर भी आप उनके पास गए और उनसे प्रार्थना की। कि विवाह कर लो।उनके आपने हाथ जोड़ें। और जब मैं विवाह करना चाह रहा था तो मेरा विवाह होने नहीं दिया ।आप मुझे यह बताओ मेरा विवाह क्यों नहीं होने दिया? और शिवजी से विवाह करने के लिए आपने इतना आग्रह क्यों किया?
यह कथा अगली पोस्ट में जय श्री राम।
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