क्या स्तन कर भी सनातन संस्कृति को बदनाम करने की साजिशों में से एक था?
क्यों स्तन कर के इतिहास का कोई भी साक्ष्य उपलब्ध नहीं है?
जो इतिहास हमें बताया जा रहा है क्या वह तर्कसंगत है या फिर काल्पनिक?
क्या इसका भी वामपंथियों, कम्युनिस्टों,
मुगलों और ब्रिटिशों के साथ कोई सम्बंध है?
सनातन धर्म,
एक ऐसा धर्म जहां प्रत्येक मनुष्य को समभाव से देखा जाता है अर्थात सभी मनुष्यों को समानता की दृष्टि से देखा जाता है। और सिर्फ मनुष्य ही नहीं अपितु पशु,
पक्षी, प्रकृति, आदि सभी के प्रति समभाव की दृष्टि रखी जाती है। ना जात में कोई ऊंचा होता था ना कोई नीचा होता था। ना कोई गरीब होता था ना कोई अमीर होता था। सभी को एक दूसरे के प्रति प्रेम भाव था।
ऐसी श्रेष्ठतम संस्कृति को बदनाम करने के लिए अनेकों प्रयास किए गए। प्रत्येक विदेशी आक्रान्ताओं का भारत आने का एक ही लक्ष्य रहता था,
भारत को लूटना और उसकी संस्कृति को नष्ट करना। क्योंकि भारतीय संस्कृति की श्रेष्ठता अन्य देशों को भाती नहीं थी। इसीलिए इसको बदनाम करने के लिए,
इसे नष्ट करने के लिए भरसक प्रयास किए गए और ऐसा करने के लिए साम, दाम,
दंड, भेद आदि सभी नीतियों को अपनाया गया।
इन्हीं नीतियों में से एक था “स्तन कर”। जिसका इतिहास तर्कहीन है, जिसको सही साबित करने के कोई पक्के सबूत उपलब्ध नहीं हैं। परंतु फिर भी इसे लोगों के दिमाग में ऐसे बैठाया गया है कि वह उसे सच मानने लगे। कम्युनिस्टों ने नांगेली की कहानी को इस प्रकार रचा की सभी लोग इसे सच मानने लगे और सनातन धर्म पर आघात करने लगे। जिसके कारण लोगों के बीच मतभेद होने लगे, ऊंच नीच का भेदभाव होने लगा। परिणाम स्वरूप अनेकों हिन्दुओं ने अपना धर्म परिवर्तन कर लिया। यही तो कम्युनिस्ट चाहते थे!
परंतु सच बहुत देर तक छुपा नहीं रह सकता, वह कभी ना कभी सामने आ ही जाता है। या फिर उसे सामने लाने के लिए कोई ना कोई व्यक्ति सामने आ जाता है। स्तन कर की सच्चाई बताने वाले लोगों का कोटि-कोटि धन्यवाद। इसमें कुछ योगदान मैं भी करना चाहता हूँ!
“स्तन कर” की सच्चाई जानने से पहले हमें यह जानना जरूरी है कि अखिर स्तन कर का झूठा इतिहास क्या था? इस विषय में बनाई गई झूठी कहानियों का आधार क्या था?
और इसके पीछे अंग्रेजों का राजनीतिक कारण क्या था? और जब हम, इस झूठे इतिहास की कड़ी से कड़ी मिलाकर देखेंगे तो सच्चाई अपने आप हमारे सामने आ जाएगी। और हमारी आंखों पर ढंका हुआ झूठ का यह पर्दा हट जाएगा।
स्तन कर: एक काल्पनिक कहानी
सर्वप्रथम “स्तन कर” के विषय में वामपंथियों ने जो इतिहास बनाया और हमें बताया, उसे जानने की कोशिश करते हैं। वामपंथी इतिहास के अनुसार त्रावणकोर राज्य में राजा मार्तंड वर्मा के काल खंड (1729-1758)
में निचली जाति की महिलाओं पर “स्तन कर” लगाया गया था जिसके तहत उन्हें शरीर से ऊपर का हिस्सा ढंकने की अनुमति नहीं थी। इस कर को “मुलक्करम” के नाम से जाना जाता था। यह कर नादर और एझावा समुदाय की महिलाओं पर लगाया गया था। यह जाती भेद को बनाए रखने के लिए नायर और नंबूदिरी ब्राह्मणों द्वारा निचली जातियों पर लगाया गया एक कर था। अनेकों विद्रोहों के बाद नांगेली ने जब अपने स्तन काट कर, कर स्वरूप पेश किए तब विद्रोह और अधिक भड़का जिसके परिणाम स्वरूप 1924 में यह कर पूर्णतया हटा दिया गया। इसमें टीपू सुलतान और अंग्रेजों का बहुत बड़ा योगदान रहा। बाद में अंग्रेजों के बढ़ते प्रभाव के कारण वहाँ के हिंदू परिवारों ने सनातन धर्म को छोड़कर ईसाई पंथ अपना लिया। क्योंकि उनसे कहा गया था कि, “अगर आप ईसाई पंथ अपना लें तो आप पर यह कर नहीं लगेगा क्योंकि तब आप हिंदू नहीं रहेंगे”। अंग्रेजों की चिकनी चुपड़ी बातों में आकर अनेकों हिंदू परिवारों ने ईसाई पंथ अपना लिया।
यह झूठा इतिहास अधिकतर इतिहासकारों द्वारा बताया जाता है, परंतु इसका कोई भी तथ्य उपलब्ध नहीं है। क्योंकि उस समय इतिहास लिखने वाले भी अंग्रेज थे और
इतिहास बताने वाले भी अंग्रेज थे। और उन्होंने कम्युनिस्टों की सहायता से
और लोक कथाओं के माध्यम से स्थानीय लोगों के मन-मस्तिष्क में यह बात इस तरीके से बैठा दी थी कि उनको ऐसा लगने लगा था कि उनके पूर्वजों के साथ ऐसा हुआ होगा और उन्होंने अत्यंत कष्ट झेले जो कि ऊंची जातियों द्वारा दिए गए। परंतु जिस सनातन धर्म में ऊंची-नीची जातियाँ ही नहीं थीं, तो वह कष्ट कहाँ से देंगी।
अगर आपको यही झूठा इतिहास पढ़ना है तो आप किसी अन्य जगह से पढ़ सकते हैं। परंतु हम झूठे इतिहास पर ज्यादा ध्यान ना देते हुए तर्कों पर बात करते हैं।
स्तन कर कब लागू किया गया था, इसकी जानकारी आपको कहीं नहीं मिलेगी, क्योंकि वामपंथियों द्वारा यह बताया ही नहीं गया। परंतु वामपंथी इतिहास के अनुसार यह राजा मार्तंड वर्मा के काल खंड में लगा था जो कि 1729 से 1758 तक था। तो इससे हम यह अनुमान लगा सकते हैं कि यह कर 1729 के बाद ही आया होगा।
परंतु वामपंथियों का कहना था कि यह अनंतकाल से एक प्रथा के रूप में चला आ रहा है और इसी कारण वे सनातन धर्म पर कुठाराघात करते थे। परंतु यह तर्क तो यहीं समाप्त हो गया,
क्योंकि यह कर 1729 के बाद आया था और सनातन धर्म तो 1729 से पहले भी था। इस प्रकार हम यह कह सकते हैं कि यह सनातन धर्म की देन नहीं है। इसके पीछे अंग्रेजों की कुटिल नीतियाँ शामिल थीं, जिसके अनेक पहलू हैं और इसे समझने के लिए सर्वप्रथम हमें राजा मार्तंड वर्मा के बारे में जानना अति आवश्यक है।
राजा मार्तंड वर्मा कौन थे?
राजा मार्तंड वर्मा का जन्म 1706 में हुआ था और इन्होंने 1729 में त्रावणकोर राज्य की स्थापना करी थी और 1758 में इनकी मृत्यु हो गई थी। वे आधुनिक त्रावणकोर के निर्माता कहे जाते हैं। ये इतने शक्तिशाली थे कि इनके काल खंड में अंग्रेज कभी त्रावणकोर में घुस नहीं पाए। उनके शासन के तहत त्रावणकोर दक्षिणी भारत में सबसे शक्तिशाली बन गया था।
उन्होंने पड़ोसी राज्यों से अपने पैतृक क्षेत्र का विस्तार करने और पूरे दक्षिणी केरल को एकीकृत करने में अत्यधिक योगदान दिया है। डचों की विस्तार वादी नीति को खराब करने के लिए उन्होंने 1741 में डचों को कुचल दिया। उन्होंने एक पर्याप्त स्थायी सेना का गठन किया और नायर अभिजात वर्ग (जिस पर केरल के शासक सैन्य निर्भर हो गए थे) की शक्ति को कम कर दिया और त्रावणकोर राज्य की उत्तरी सीमा को मजबूत किया।
मार्तंड वर्मा के शासन काल में त्रावणकोर दक्षिण भारत का सबसे अधिक शक्तिशाली राज्य था। शक्तिशाली होने का अर्थ यह नहीं कि उसके पास सैन्य शक्ति अधिक थी अपितु सैन्य शक्ति के साथ-साथ वहां का समाज एकजुट था, समाज के लोग एकजुट थे,
उनमें किसी प्रकार का मतभेद नहीं था। वे आर्थिक और धार्मिक दोनों ही दृष्टि से संपूर्ण थे। किसी भी राज्य की शक्ति का सही मायने में यही अर्थ होता है कि वहां के नागरिकों में एकता हो क्योंकि एकता में ही शक्ति है।
अत्यधिक शक्तिशाली होने के कारण सिर्फ सैन्य बल के द्वारा अंग्रेजों का मार्तंड वर्मा पर विजय प्राप्त करना अत्यधिक मुश्किल कार्य था। इसी वजह से उन्होंने अपनी कुटिल नीतियों का प्रयोग किया और उनके प्रति समाज के लोगों में एक गलत अवधारणा बना दी। जिसके कारण त्रावणकोर का समाज खोखला हो गया उनमें जाति के आधार पर भेदभाव अत्यधिक बढ़ गया। जिसका फायदा अंग्रेजों ने उठाया और 1795 में त्रावणकोर के तत्कालीन राजा कार्तिका तिरुनाल रामा वर्मा (1724-1798) को ब्रिटिशों के साथ एक सहायक गठबंधन स्वीकार करना पड़ा। जिसकी शर्तें निम्नलिखित थीं :-
अंग्रेजों के साथ सहायक गठबंधन में प्रवेश करने वाले हर एक भारतीय शासक को अपने क्षेत्र में ब्रिटिश सेना को स्वीकार करना पड़ता था और उनके रखरखाव के लिए भुगतान करने पर भी सहमत होना पड़ता था।
एक सहायक गठबंधन में प्रवेश करने वाला भारतीय शासक किसी अन्य शक्ति के साथ आगे कोई गठबंधन नहीं करेगा और न ही वह अंग्रेजों की अनुमति के बिना किसी शक्ति के खिलाफ युद्ध की घोषणा करेगा।
शासक अंग्रेजों के अलावा किसी भी यूरोपीय को नियुक्त नहीं करेगा, और यदि वह पहले से ही ऐसा कर रहा था, तो वह उन्हें बरखास्त करेगा।
किसी अन्य राज्य के साथ संघर्ष की स्थिति में, वह अंग्रेजों द्वारा तय किए गए प्रस्ताव से सहमत होगा।
शासक ईस्ट इंडिया कंपनी को भारत में सर्वोच्च शक्ति के रूप में स्वीकार करेगा।
शासक द्वारा उसकी शर्तों को स्वीकार करने के बदले में,
कंपनी ने राज्य को बाहरी खतरों और आंतरिक विकारों से बचाने कि जिम्मेदारी उठाई।
यदि भारतीय शासक गठबंधन द्वारा आवश्यक भुगतान करने में विफल रहे, तो उनके क्षेत्र का एक हिस्सा दंड के रूप में ले लिया जाता था।
इसके पश्चात समाज में जातिगत भेदभाव और अधिक मात्रा में बड़े और अंग्रेज इस बात का फायदा लगातार उठाते रहे। उन्होंने त्रावणकोर की संस्कृति की मूल भावना को खोखला बना दिया। और इस कार्य को करने के लिए अंग्रेजों का साथ देने वाले, बहुत से देश के ठेकेदार थे जो अपने फायदे के लिए किसी भी चीज का सौदा करने को तत्पर रहते थे। ऐसे ही कुछ कम्युनिस्ट थे जिनके कारण "स्तन कर" जैसी काल्पनिक कहानियाँ सामने आईं। जिसको सही साबित करने के लिए इतिहास के साथ-साथ शब्दों में भी फेरबदल कर दिए गये।
कम्युनिस्टों द्वारा लिखित इतिहास में बताया गया कि “स्तन कर” का विरोध 19 वीं सदी में नांगेली द्वारा अपने स्तन काट कर किया गया। साथ ही, उसने अपने स्तनों को टैक्स कलेक्टर के सामने बतौर कर यानी टैक्स पेश किया था। स्तन काटने के कारण उसका खून बहुत अधिक बह गया था, जिससे उसकी मौत हो गई थी। इसके बाद, उसका पति भी दुःखी होकर उसकी चिता में ही कूदकर जान दे देता है।
परंतु नांगेली का यह चरित्र भी काल्पनिक लगता है क्योंकि नांगेली का जन्म और मृत्यु कब हुए, इसका कोई भी तथ्य हमारे इतिहास में नहीं मिलता क्योंकि यह कम्युनिस्टों द्वारा बताया ही नहीं गया। नांगेली के माता-पिता कौन थे इसकी जानकारी भी उपलब्ध नहीं है क्योंकि कहानी तो काल्पनिक है ना!
इस कहानी की शुरुआत पत्रकार सी. राधाकृष्णन ने की। इस कहानी में उन्होंने नांगेली और कडप्पन नामक किरदारों को गढ़ते हुए बेहतरीन कहानी लिखी। इसमें मसाला डालने के लिए उन्होंने नांगेली के पति की आत्महत्या की कहानी को भी जोड़ दिया। यह कहानी पहली बार 8 मार्च,
2007 को ‘पायनियर’ में प्रकाशित हुई थी। इसका मलयालम अनुवाद उसी दिन ‘मातृभूमि’ और ‘मनोरमा’ में भी प्रकाशित हुआ था।
इसके बाद,
इसे वागाबॉन्ड,
बी.बी.सी और टाइम्स ऑफ इंडिया समेत कई अन्य मीडिया संस्थानों ने इस कहानी को सच मानते हुए फैलाने की कोशिश की।
जिस कहानी को हम बार-बार सुनते हैं वह कहानी हमारे मन-मस्तिष्क में बस जाती है। ठीक उसी प्रकार बिना तथ्यों वाली नांगेली की यह कहानी हमारे मन-मस्तिष्क में बैठा दी गई जिससे हमें यह लगे की यह एक असली कहानी है। और ऐसा हुआ भी परंतु सच्चाई कुछ और ही थी! चलिए जानते हैं।
मलयालम में कर को “थल्लाकरम” कहा जाता है। थल्लाकरम शब्द का उपयोग वोटिंग कर जैसे करों के लिए उपयोग किया जाता था। त्रावणकोर में भी मतदान के लिए टैक्स लगाया जाता था। हालाँकि,
इसमें महिलाओं से अपेक्षाकृत कम टैक्स लिया जाता था। क्योंकि मलयालम में “मुला”को “स्तन”कहा जाता है। इसलिए सनातन धर्म को बदनाम करने के लिए रची गई कहानी में, “थल्लाकरम” को “मुल्लाकरम” और फिर “स्तन कर” के रूप में चित्रित किया गया।
लेकिन फिर भी एक प्रश्न मन में उठता है कि ऐसी कल्पना करना इतना सरल कार्य तो नहीं था तो फिर इसकी प्रेरणा कहाँ से मिली?
अगर जलवायु की दृष्टि से देखा जाए तो केरल एक उष्णकटिबंधीय जलवायु वाला क्षेत्र है अर्थात केरल की जलवायु गर्म है। इसी गर्मी से बचने के लिए केरल की महिलाएं व पुरुष दोनों ही कमर से ऊपर कपड़े नहीं पहनते थे। यह सुनने में थोड़ा अजीब लगेगा, परंतु यह सत्य है। उस समय केरल में लिंग के आधार पर भेदभाव नहीं था इसीलिए महिलाएं और पुरुष दोनों ही कमर से ऊपर कपड़े नहीं पहनते थे।
इस बात का जिक्र कई विदेशी यात्रियों ने भी किया है जैसे 17 वीं, शताब्दी में भारत आए एक डच यात्री "विलियम वैन निउहोफ" ने त्रावणकोर की तत्कालीन रानी "अश्वती थिरुनल उमयम्मा" की पोशाक के बारे में बात करते हुए लिखा है, “मुझे महारानी के सामने पेश किया गया था। उनके पास 700 से अधिक नायर सैनिकों का पहरा था,
जो मालाबार शैली के कपड़े पहने हुए थे। रानी की पोशाक उसके बीच में लिपटे कॉलिको के एक टुकड़े से ज्यादा कुछ नहीं है। उसके शरीर का ऊपरी हिस्सा नग्न दिखाई देता है।”
विलियम वैन निउहोफ और अश्वती थिरुनल उमयम्मा
त्रावणकोर की रानी से हुई मुलाकात को लेकर विलियम वैन ने एक चित्र भी बनाया था। इस चित्र में यह स्पष्ट देखा जा सकता है कि रानी और उनके साथ मौजूद लोगों ने अपने सीने को या तो कपड़े से नहीं ढँका है या फिर काफी छोटा कपड़ा डाला हुआ है।
इसके अतिरिक्त,
17 वी और 18 वी शताब्दी में आने वाले यात्री "पिएत्रो डेला वैले" और "जॉन हैरी ग्रोस" के अनुसार, केरल में पुरुष और महिला दोनों ही ऊपरी कपड़े नहीं पहनते थे। एक अन्य यात्री "अब्बे डुबोइस" ने 1815 में लिखे अपने लेख "Hindu Manners,
Customs and Ceremonies" (हिंदू शिष्टाचार,
सीमा शुल्क और समारोह) में लिखा है कि वेश्याएँ ग्राहकों को आकर्षित करने के लिए अपनी छाती को ढँकती हैं। वहाँ, स्तन ढँकना एक मोहक कार्य माना जाता था।
ऐसे ही एक मानव विज्ञानी "फ्रेड फावसेट" ने उल्लेख किया है कि मालाबार में रहने वाला कोई भी स्थानीय निवासी अपने स्तनों को या छाती को ढँकने का शौक नहीं रखता।
इसके अतिरिक्त कुछ उदाहरण और देखते हैं :-
श्री लंका के रोडिया पेरिस की महिलाएं:
समाज की महिलाएं 1868
अफ्रीका की वाई लड़कियां: 1910
अब 20 वीं सदी के कुछ उदाहरण देखते हैं :-
कनिपय्युर शंकरन नंबूदरीपाद की 20वीं शताब्दी की एल. के. अनंत कृष्ण अय्यर द्वारा लिखित ‘द कोचीन
मलयालम पुस्तक से एक नंबूदिरी ब्राह्मण महिला ट्राइब्स एंड कास्ट्स’ से नंबूदिरी ब्राह्मण महिलाएँ
ऐसी कई तस्वीरें और साक्ष्य उपलब्ध हैं जिनके आधार पर यह कहा जा सकता है कि यह सब सिर्फ एक काल्पनिक कहानी मात्र है। नीचे की तस्वीरों में दिखाया गया है कि नंबूदिरी परिवारों और समृद्ध नायर परिवारों की महिलाओं ने खुद स्तन नहीं ढका हुआ है। वास्तव में, इन महिलाओं को स्तन ढकने की आवश्यकता ही नहीं थी। इसे ऐसे भी समझ सकते हैं तब वहाँ स्तन ढकने की ‘परंपरा’ ही नहीं थी।
ऊपर की तस्वीरें उस समय की उच्च जाति की महिलाओं की तस्वीरें हैं। वहीं, आगे दी हुई तस्वीरें मशहूर चित्रकार राजा रवि वर्मा द्वारा बनाई गई तस्वीरें हैं। इन तस्वीरों में भी इस झूठी कहानी की पोल खुलती दिखती है।
राजा रवि वर्मा द्वारा त्रावणकोर की जूनियर रानी,
भरणी 19 वीं सदी की तस्वीर, राजा रवि वर्मा द्वारा
तिरुनाल रानी पार्वती बाई की 19 वीं सदी की तस्वीर ‘मालाबार ब्यूटी’
इन तस्वीरों को ध्यान से देखने पर पता चलता है कि महिलाओं ने अपने सीने पर एक बिना सिला हुआ कपड़ा डाल रखा है। यह तो तब है जब महिलाओं ने तमाम तरह के गहने पहने हुए हैं। इससे हम यह कह सकते हैं कि उनका शोषण तो नहीं होता था।
नांगेली की कहानी हिंदू विरोधी मानसिकता को साफ दर्शाती हैं। सनातन धर्म को बदनाम करने के लिए ही ऐसी कहानियाँ जन्म लेती हैं जिनका कोई तथ्य नहीं होता,
जो तर्कहीन होती हैं।
हाल ही में नांगेली की कहानी को टी. मुरली नामक एक मलयाली चित्रकार ने अपने द्वारा बनाई गईं तस्वीरों में उकेरा है। परंतु जब हम टी मुरली के विषय में गहराई से जानने की कोशिश करेंगे तो हमें पता चलेगा कि टी. मुरली अपने ब्लॉग में हिंदू देवी देवताओं के बारे में बहुत गलत बोलता है। जिससे टी. मुरली की हिन्दू विरोधी मानसिकता साफ दिखाई देती है। जिसे बी. बी. सी जैसे समाचार माध्यम प्राथमिकता देते हैं और उन्हें प्रसिद्ध करने में उनकी सहायता करते हैं। परंतु यह अभिव्यक्ति की आजादी सिर्फ सनातन धर्म के खिलाफ ही प्रयोग की जाती है, इसका वास्तविकता से कोई लेना देना नहीं है।
फिर आते हैं कुछ नारीवादी संगठन जिन्होंने संसार की सभी नारियों के सम्मान का ठेका ले रखा है। अच्छी बात है, नारियों का सम्मान करना भी चाहिए परंतु जिस सनातन धर्म में सदा से ही नारियों को पूजा जाता है,
उनका सम्मान किया जाता है, उस सनातन धर्म के विरोध में बोलने से पहले ऐसे संगठनों को सोचना चाहिए। और चलो मान भी लेते हैं कि निचली जातियों की महिलाओं पर ऐसा कोई लगा भी होगा,
तो इसका समर्थन करने वाली उच्च वर्ग की महिलाएं भी तो शामिल थीं। इसमें "पितृ प्रधान समाज" की बात कहाँ से आती है। सनातन धर्म कभी पितृ प्रधान नहीं था। दरअसल तिल का ताड़ बनाने की आदत सी हो गयी है! हालांकि ऐसा कोई कर था नहीं, यह सिर्फ एक काल्पनिक कहानी है जिसे सी. राधाकृष्णन ने स्वयं स्वीकार किया है।
और अगर ये अंग्रेज स्त्रियों के सम्मान की चिंता करते ही हैं,
तो इनसे पूछना चाहिए कि यूरोप में जब सर्दी खतम होती है और कुछ दिनों के लिए गर्मी आती है तब वहाँ समुद्री तट पर सभी यूरोपीय नागरिक चाहे स्त्री हो या पुरुष, सभी कपड़े उतार कर बैठते हैं। क्योंकि वहाँ की जलवायु ही ऐसी है। वहाँ तो सवाल नहीं उठाए गए! और फिर ये "पोर्न इंडस्ट्री" के विषय में क्या बोलेंगे?
अब बात करते हैं अंग्रेजों द्वारा स्थापित जाति व्यवस्था की।
अंग्रेजों ने सिर्फ उन हिंदूओं को ही राजनीतिक पदों पर नियुक्त किया था जिनका समाज में आदर था,
इसीलिए नहीं कि वे उच्च जाति के थे बल्कि इसलिए कि उनके कर्म अच्छे थे जिसके कारण समाज में उनका आदर था। ऐसा करने से वे भारत में रहकर उनका समर्थन प्राप्त कर सकते थे। धीरे-धीरे उन्होंने सनातन धर्म को बदनाम करने के लिए एक जाति व्यवस्था बना दी, जिसमें ब्राह्मणों को सर्वप्रथम रखा गया और उनके नीचे क्षत्रिय, उनके नीचे वैश्य और उनके नीचे शूद्र,
जो सनातन धर्म की वर्ण व्यवस्था के ठीक विपरीत थी,
जिसमें कर्म को प्रधानता दी गई थी ना कि जन्म के आधार पर जाति व्यवस्था को।
शूद्रों को सबसे नीचे रखे जाने के कारण उनको शिक्षा से वंचित कर दिया गया। और अंग्रेजी जाति व्यवस्था के अनुसार जो उच्च जाति के थे, उनको शिक्षा में यही जाति व्यवस्था बताई जाती थी, जिससे उनके मन में यह जाति व्यवस्था बैठ गई थी जिसके कारण शूद्रों का शोषण हुआ। इसमें सनातन धर्म का कोई कसूर नहीं क्योंकि अंग्रेजों ने गुरुकुलों पर प्रतिबंध लगा दिया था जहाँ सभी को समान शिक्षा दी जाती थी चाहे वह किसी भी वर्ण का हो।
इसी अंग्रेजी शिक्षा व्यवस्था के कारण अस्पृश्यता जैसी गंभीर समस्या भारत में जन्मी और अंग्रेजों ने इसे सनातन धर्म पर थोप दिया। जिसके परिणाम स्वरूप अंग्रेजों द्वारा बनाई गई निचली जाति के लोगों का मंदिरों में प्रवेश वर्जित था। इतना ही नहीं उन लोगों को मंदिरों के बाहर से भी नहीं जाने दिया जाता था। और फिर हुआ मालाबार विद्रोह!
मालाबार विद्रोह की कुछ तस्वीरें: 1921
मालाबार का यह विद्रोह हुआ तो अंग्रेजों के विरोध में था, परंतु अंग्रेजों की "फूट डालो,
राज करो" की नीति के कारण यह विरोध हिंदूओं के विपक्ष में हो गया और यही अंग्रेज चाहते थे!
मालाबार की इस विद्रोह को "मोपला विद्रोह" भी कहा जाता है। कुछ इतिहासकार मानते हैं कि यह अंग्रेजों के विरुद्ध आंदोलन था,
कुछ इतिहासकारों का मानना है कि यह हिंदुओं के विपक्ष में मुस्लिमों का एक आंदोलन था,
कुछ इतिहासकार इसे सामाजिक भेदभाव के विरुद्ध आंदोलन में कहते हैं। परंतु सच्चाई क्या थी? इस बात पर हमें खुद विचार करना चाहिए और अपना दिमाग लगाना चाहिए।
दरअसल प्रथम विश्वयुद्ध में तुर्की की हार हुई थी। इसके बाद अंग्रेजों ने वहां के खलीफा को गद्दी से हटा दिया था। अंग्रेजों की इस कार्रवाई से दुनिया भर के मुसलमान नाराज हो गए। तुर्की के सुलतान की गद्दी वापस दिलाने के लिए ही खिलाफत आंदोलन की शुरुआत हुई।
अब प्रश्न यह उठता है कि जब गुस्सा अंग्रेजों के लिए था तो विद्रोह हिंदुओं के विरुद्ध कैसे हो गया?
यही फूट की खाई अंग्रेजों द्वारा बनाई गई थी।
भारत में दोगले लोगों की कमी नहीं थी। अंग्रेजों द्वारा उन लालची लोगों को ही उच्च पदों पर बिठाया गया था। और अंग्रेजों का समर्थन प्राप्त करने के लिए ही वह अन्य लोगों पर अत्याचार करते थे क्योंकि उनको ऐसा करने के लिए अंग्रेज कहा करते थे। जिसके बदले में उन्हें इनाम दिया जाता था।
और इसी अत्याचार के कारण मालाबार में विद्रोह हुआ जो अंग्रेजों के खिलाफ कम और हिंदुओं के खिलाफ अधिक था। जिसके कारण लाखों हिंदुओं के घर तोड़ दिए गए, गायों को मार दिया गया, हजारों हिंदुओं को धर्म परिवर्तन करना पड़ा और तकरीबन 10000 से अधिक लोग इस विद्रोह में मारे गए।
इस विद्रोह को अंग्रेजों द्वारा कुचल दिया गया। परंतु यह जो विद्रोह हुआ था वह सनातन धर्म के खिलाफ नहीं था, अपितु अंग्रेजों द्वारा बनाई गई व्यवस्था के खिलाफ था। इसमें सभी समुदाय के लोग शामिल थे। परंतु वामपंथी इस बात को हमेशा सनातन धर्म से ही जोड़कर देखते हैं क्योंकि उस सामंती व्यवस्था में कुछ हिंदू परिवार भी शामिल थे।
इसी विद्रोह की तर्ज पर शुरू हुआ वैकोम सत्याग्रह जो वैकोम महादेव मंदिर में प्रवेश पाने के लिए था। स्थिति इतनी खराब थी कि निचली जाति के लोगों को मंदिर में प्रवेश करना तो दूर, मंदिर के आसपास भी नहीं भटकने दिया जाता था। और यह स्थिति सनातन धर्म की देर नहीं अपितु अंग्रेजों द्वारा बनाई गई जाति व्यवस्था के कारण थी। क्योंकि किसी व्यक्ति को बचपन से ही बताया जाए कि यह निचली जाती है, इससे तुम्हें दूर रहना है, तो वह बड़ा होकर वही कार्य करेगा। वैकोम सत्याग्रह एक अहिंसक आंदोलन था जिसका नेतृत्व कांग्रेस के कई नेता कर रहे थे। महात्मा गांधी भी इसी में शामिल थे।
यह सत्याग्रह अंग्रेजों द्वारा बनाई गई जाति व्यवस्था के खिलाफ था ना कि सनातन धर्म के खिलाफ। परंतु कुछ वामपंथियों द्वारा इसे सनातन की उपज कहा गया और लगातार सनातन धर्म पर प्रहार किया गया। सनातन धर्म में कभी जाति के आधार पर भेद भाव नहीं किया जाता है। यहाँ कर्म और चरित्र के आधार पर व्यक्ति की पहचान होती है।
तो हम बात कर रहे थे स्तन कर की, वामपंथियों द्वारा जो इतिहास हमें बताया गया उसमें कहा गया कि स्तन कर 1924 में समाप्त हो गया जिसके लिए काफी विद्रोह हुए। परंतु अगर इतिहास को देखा जाए तो ऐसा कोई विद्रोह सामने नहीं आता। 1924 में हुआ वैकोम सत्याग्रह ही एकमात्र ऐसा आंदोलन था जो अस्पृश्यता के विरुद्ध हुआ था। परंतु यह अस्पृश्यता भी अंग्रेजों की देन थी ना कि सनातन धर्म की। लेकिन इतिहास तो वामपंथी और कम्युनिस्टों के हाथ में ही था, इसीलिए उन्होंने स्तन कर की समाप्ति भी 1924 को ही कर दी क्योंकि अन्य कोई तिथि बता नहीं सकते थे!
जितना इतिहास आज तक हमने पड़ा उस पर सवाल उठाना बहुत आसान हो जाता है क्योंकि जो हमारे शास्त्रों में लिखा है, जो हमारे धर्म ग्रंथों में लिखा है, ठीक उसके विपरीत हमारे धर्म को हमें बताया गया। तो सवाल करना हमारा अधिकार बन जाता है!
नांगेली की जो कहानी बताई गई है, अगर उसमें थोड़ी सी भी सच्चाई है और ऐसा हुआ भी हो तो वह सनातन धर्म के कारण नहीं हुआ होगा। यह उस जाति व्यवस्था के कारण हुआ जिसे अंग्रेजों ने बनाया, यह उस भेदभाव के कारण हुआ जिसका सनातन धर्म से कोई लेना-देना नहीं है।
परंतु भारतीय परंपरा और संस्कृति से जलने वाले लोग इस बात को सहन न कर सके कि भारतीय संस्कृति इतनी उन्नत कैसे है। इसीलिए उन्होंने आर्यव्रत की संस्कृति को बदनाम करने के लिए तमाम हथकंडे अपनाए और यह भी उन्हीं में से एक था।
एक और उदाहरण देखते हैं:-
मार्तंड वर्मा को "मार्तंड वर्मा" ही क्यों कहा जाता था?
"मार्तंड" तो उसका नाम था और "वर्मा" उसके पीछे लगाने वाली उपाधि थी।
परंतु क्या आप जानते हैं कि वर्मा का अर्थ मलयालम में क्या होता है?
"वर्मा" का अर्थ होता है "रक्षक" अर्थात जो राज्य के नागरिकों की रक्षा करे, जो देश की रक्षा करे। अब आप सोच सकते हैं कि इस उपाधि को प्राप्त करने वाले "मार्तंड" समाज के रक्षक थे, जिसे समाज ने अपनाया था। परंतु अंग्रेजों द्वारा "वर्मा" उपनाम को ही एस. सी और एस. टी में विभाजित कर दिया गया।
कमाल का खेल खेला गया अंग्रेजों द्वारा और हम भी उनके द्वारा बनाए गए जाल में फंसते चले गए, इसका कारण क्या था यह हमें अपने आप से पूछना चाहिए!
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आप जो बोल रहे है वो सब सही है मे आप से कुछ सवाल पूछता हु जवाब देना मे एक कटर हिंदू हु लेकिन मैं SC कैटगिरी से हु जिसके वजह से मेरे हिंदू भाइयो ने हम हेमशा नीची जाती का और छुआछूत किया है तो सनातन धर्म मे इसके बारे आप का क्या कहना है
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