महलों में रहने वाले नेहरू जैसे VIP स्वतंत्रता सेनानी प्रधानमंत्री बन गए, पर देश के असली स्वतंत्रता सेनानियों को क्या मिला?
🔹देश की स्वतंत्रता के लिए बटुकेश्वर दत्त का संघर्ष
8 अप्रैल 1929 को दिल्ली की सेंट्रल असेंबली में वीर भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने अपनी आवाज बहरे अंग्रेजों तक पहुंचाने के लिए एक खाली जगह पर बम फेंका, जहां किसी को चोट न लगे। अंग्रेजों ने बटुकेश्वर दत्त को "काला पानी" में आजीवन कारावास की सजा सुनाई। उन्हें 1938 में रिहा किए गए और 1942 में फिर से गिरफ्तार किया गए और भारत को आजादी मिलने तक 4 साल तक जेल में रखा गया। एक तरह से बटुकेश्वर दत्त ने अपनी जवानी देश की आजादी के लिए जेल में बिताई।
🔹देश की स्वतंत्रता के बाद बटुकेश्वर दत्त को नहीं मिला कोई सम्मान
लेकिन इस वीर सपूत को वो दर्जा कभी ना मिला जो हमारी सरकार और भारतवासियों से इन्हें मिलना चाहिए था।
आज़ाद भारत में बटुकेश्वर नौकरी के लिए दर-दर भटकने लगे। कभी सब्जी बेची तो कभी टूरिस्ट गाइड का काम करके पेट पाला। कभी बिस्किट बनाने का काम शुरू किया लेकिन सब में असफल रहे।
कांग्रेस की नेहरू सरकार ने ना कोई योग्य सम्मान दिया या कोई सरकारी नौकरी !
एक बार पटना में बसों के लिए परमिट मिल रहे थे ! उसके लिए बटुकेश्वर दत्त ने भी आवेदन किया ! परमिट के लिए जब पटना के कमिश्नर के सामने इस 50 साल के अधेड़ की पेशी हुई तो उनसे कहा गया कि वे स्वतंत्रता सेनानी होने का प्रमाण पत्र लेकर आएं..!
भगत के साथी की इतनी बड़ी बेइज़्ज़ती भारत में ही संभव है।
🔹 जब राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद को जब यह बात पता चली तो कमिश्नर ने बटुकेश्वर से माफ़ी मांगी थी ! 1963 में उन्हें विधान परिषद का सदस्य बना दिया गया । लेकिन इसके बाद वो राजनीति की चकाचौंध से दूर गुमनामी में जीवन बिताते रहे । सरकार ने इनकी कोई सुध ना ली।
🔹1964 में जीवन के अंतिम पड़ाव पर बटुकेश्वर दिल्ली के सरकारी अस्पतालों में कैंसर से जूझ रहे थे तो उन्होंने अपने परिवार वालों से एक बात कही थी।
"कभी सोचा ना था कि जिस दिल्ली में मैंने बम फोड़ा था उसी दिल्ली में एक दिन इस हालत में स्ट्रेचर पर पड़ा होऊंगा।"
मै देशवासियों का ध्यान इनकी ओर दिलाया चाहता हूँ कि-"किस तरह एक क्रांतिकारी को जो फांसी से बाल-बाल बच गया जिसने कितने वर्ष देश के लिए कारावास भोगा, वह आज नितांत दयनीय स्थिति में अस्पताल में पड़ा एड़ियां रगड़ रहा है और उसे कोई पूछने वाला नहीं है।"
🔹जब भगतसिंह की माँ अंतिम वक़्त में उनसे मिलने पहुँची तो भगतसिंह की माँ से उन्होंने सिर्फ एक बात कही- "मेरी इच्छा है कि मेरा अंतिम संस्कार भगत की समाधि के पास ही किया जाए। उनकी हालत लगातार बिगड़ती गई।
17 जुलाई को वे कोमा में चले गये और 20 जुलाई 1965 की रात एक बजकर 50 मिनट पर उनका देहांत हो गया !
🔹भारत पाकिस्तान सीमा के पास पंजाब के हुसैनीवाला स्थान पर भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु की समाधि के साथ ये गुमनाम शख्स आज भी सोया हुआ है।
मुझे लगता है भगत ने बटुकेश्वर से पूछा तो होगा- दोस्त मैं तो जीते जी आज़ाद भारत में सांस ले ना सका, तू बता आज़ादी के बाद हम क्रांतिकारियों की क्या शान है भारत में।