बाथरूम में नहाते वक्त साबुन जब घिस कर छोटा सा टुकड़ा बन जाता है, तब उसे फेंकते नहीं, नए साबुन में जोड़कर नहाते हैं! जब यह साबुन भी घिस जाता है तब बचे छोटे टुकड़े को तीसरे साबुन से जोड़ लेते हैं और बाथरूम की लाइफ फिर चल पड़ती है! मतलब मजाल है कि कोई चीज बेकार चली जाए!
यह हिन्दुस्तान है साहब, यहां जुगाड चलता है! यहां स्कूटर या बाइक या कार कभी कटान को नहीं जाते, रेहड़ी या छोटे हाथी में बदल जाते हैं! हमें पुरानी चीजों से भी इतनी मुहब्बत है कि उन्हें संभाल संभालकर स्टोर रूम में रखते जाते हैं! यदि कभी सफाई में चीजें कबाड़ी को देनी भी पड़ जाएं तो बड़ा दर्द होता है!
क्या करें साहब हम हिंदुस्तानी हैं हमें अपनों से ही नहीं, अपनी दीवारों से भी मुहब्बत हो जाती है! तभी तो पुराने मोबाइल फोन तक नहीं बेचते, बेशक आलमारी में ढेर लगा रहे! अब यह आदत हम हिन्दुस्तानियों को है तो फिर है!
दरअसल हिंदुस्तान में कुछ ऐसा है जो बाकी दुनिया में नहीं है। बचपन में हाथ धोकर पोंछने के लिए हम तौलिए का नहीं, मां के पल्लू का इस्तेमाल किया करते थे। आज तो बेशक भारत की जुगाड तकनीकी को इनोवेशन, नवाचार या नवोन्वेषण कहा जाने लगा है। आपने सड़क पर जाते हुए कईं बार ऐसे वाहन देखे होंगे, जिनका नाम ही जुगाड पड़ गया है। जिस काम को करने के लिए मिनी ट्रक चाहिए, वह काम मोटरसाइकिल पर बना जुगाड बहुत मजे से कर रहा है।
ट्रकों का काफी काम देश भर में ट्रैक्टर ट्रालियों ने ले लिया हैं। ईंट, रेत, बजरी, पत्थर, आड़त का सामान, मंडियों में लाने और मंडियों से साग सब्जी फल आदि ले जाने का 60% काम इन्हीं ट्रालियों द्वारा किया जा रहा है। सच कहें तो छोटे शहरों, कस्बों, बाजारों और गावों तक माल पहुंचाने का काम भारत के इन्हीं जुगाड़ों द्वारा किया जा रहा है। मजे की बात है कि देश के लाखों जुगाड धारियों को न ड्राइविंग लाइसेंस की जरूरत है, न आरटीओ ऑफिस जाकर वाहन पंजीकरण की और न ही पॉल्युशन प्रमाणपत्र की।
क्या आप जानते हैं की भारतीय जुगाड तकनीकी पर अलीगढ़ विवि और रुद्रपुर स्नातकोत्तर कालेज में कार्यशालाएं हो चुकी हैं? अगर जानते हों तो शायद यह नहीं जानते होंगे कि भारत की सबसे प्रमुख आईआईटी बॉम्बे, आईआईटी मद्रास और आईआईटी खड़गपुर ने भारतीय जुगाड पद्धति पर सेमिनार और वेबीनार आयोजित किए हैं। आईआईएम अहमदाबाद ने भी अनपढ़ अथवा कम पढ़े लिए ग्रामीण या कस्बाई भारतवासियों के ज्ञान पर अध्ययन किया है।
आपने कईं बार सुना होगा कि हमारे स्कूली और कालेजों के छात्रों ने कैसे कैसे मॉडल बनाकर टाटा और महेंद्रा जैसे उद्योगों का ध्यान आकर्षित किया है। निश्चय ही हमारे अशिक्षित और शिक्षित युवाओं के काम को प्रोत्साहन की आवश्यकता है। उम्मीद है कि स्टार्टअप और मेक इन इंडिया कार्यक्रमों के तहत हमारा परंपरागत ज्ञान सम्मान पाएगा तथा देश में अब आम आदमी के मूल नैसर्गिक ज्ञान की भी कद्र होगी।