Good Night #शुभ_रात्रि
इन्द्रियों का संयम तो आवश्यक है। चटोरेपन और कामवासना पर तो कड़ा नियंत्रण होना ही चाहिए। साथ ही स्वभाव और विचारों का संयम भी आवश्यक है। विचारों को अनुपयुक्त दिशा में जाने से रोकने के लिए उनके विरोधी विचार करने की आदत डालनी चाहिए। बुद्धि का झुकाव उन्हीं की ओर जाता है और यह नितान्त आवश्यक कि कुविचारों के ठीक विरोधी सद्विचारों वाला पहलू भी हम बुद्धिरूपी अदालत के सामने निरन्तर प्रस्तुत करते रहें। हर बात के दो पहलू होते हैं, दोनों पर विचार कर लेने से बौद्धिक संयम का लाभ प्राप्त होता फिर हम आवेश उत्तेजना या भावुकता में कोई एक पक्षीय निर्णय कर बैठने के खतरे में नहीं पड़ते। स्वभाव का संयम आवेश और उत्तेजना से सम्बद्ध है। छोटी-छोटी बातों पर कई व्यक्ति बहुत अधिक उत्तेजित हो उठते हैं। क्रोध, आवेश, द्वेष, मैत्री, उदारता, भावुकता आदि की दुर्गति कर देते हैं। उस आवेश से उत्पन्न होने वाले दुष्परिणामों के सम्बन्ध में विचार नहीं करते और समय निकल जाने पर पछताते रहते हैं। स्वभाव का छिछोरापन छुड़ाकर उसे संजीदा और गम्भीर बनाना मानसिक संयम और प्रमुख प्रक्रिया है । जब हमारा संयम इन्द्रिय निग्रह तक ही नहीं, विचार और स्वभाव के नियन्त्रण क्षेत्र में भी कारगर होता है तब ही संयमशीलता की सफलता मानी जाती है।
संयम के अपने अनुरूप सुनिश्चित चरण निर्धारित करने चाहिए। ब्रह्मचर्य की अवधि निर्धारित करना, स्वादेन्द्रिय को नियन्त्रित करने के लिए उपवास, अस्वाद व्रत जैसे नियम बनाना, वाणी के लिए मितभाषण एवं मौन का अभ्यास, समय एवं धन का बजट बनाकर चलना, विचार एवं भावनाओं के स्तर पर पैनी दृष्टि रखकर उनके अनुपात को सही बनाकर रखने की तत्परता बरतना, अपनी आवश्यकताओं को औसत भारतीय स्तर की सीमा तक खींच लाना आदि समय के व्यावहारिक स्वरूप हैं, जिन्हें हर व्यक्ति अपने ढंग से • अपनाकर लाभान्वित हो सकता।
सेवा - मनुष्य का आत्मिक विकास कितना हुआ है, इसका प्रमाण उसकी सेवावृत्ति से लगाया जा सकता है। सेवा वह अग्नि है जिसमें तपे बिना कोई अन्तःकरण शुद्धता, निर्मलता, उदारता एवं आध्यात्मिकता की कसौटी पर खरा उतर सकने योग्य नहीं बन सकता । संन्यास लेने से पूर्व जीवन का एक चौथाई भाग वानप्रस्थ में रहकर समाज सेवा करने के लिए नियत किया हुआ है। जो लोग सेवा धर्म की अत्यन्त आवश्यक प्रक्रिया से कतराते हैं और केवल भजन करके आत्मिक प्रगति की आशा करते हैं वे वैसे ही बालक हैं जो प्रथम कक्षा से छलांग मारकर अन्तिम कक्षा उत्तीर्ण करना चाहते हैं और बीच की सभी कक्षाओं को छोड़ देना चाहते हैं। सद्विचारों का क्रियात्मक रूप सेवा है। आत्म शुद्धि का प्रत्यक्ष चिन्ह सेवा एवं परमार्थ में रुचि होना ही है।
सेवा का आत्म सन्तोष से सीधा सम्बन्ध है। परोपकार की दृष्टि से निस्वार्थ भावना से हम जो कुछ करते हैं उसकी प्रतिक्रिया आत्म सन्तोष के रूप में तुरन्त ही परिलक्षित होने लगती है। आत्म-सन्तोष को ही शास्त्रों में सोम रस कहा गया है, उसे ही पीकर ऋषि-मुनि देवपद प्राप्त किया करते थे। सत्कार्यों द्वारा आत्म-सन्तोष की कुछ बूंदें जिन्हें उपलब्ध होती रहती हैं वे अपने को कृतकृत्य माने बिना नहीं रह सकते। समाजिक दृष्टि से भी सेवा एक अत्यन्त उपयोगी प्रक्रिया है उससे पिछड़े हुए लोगों को ऊपर उठने और दीन-दुखियों को राहत प्राप्त करने का अवसर मिलता है। दुख और सुख को बांट लेना आध्यात्मिक साम्यवाद है । सुखी लोग अपने सुख का एक अंश दुखियों को बांट दें तो उनके ऊपर लदा हुआ सुविधाओं का अनावश्यक भार घट सकता है और मोटे पेट वाले रोगी को वादी छूट जाने से जैसी प्रसन्नता होती है वैसी ही उन्हें भी मिल सकती है। इसी प्रकार दुखियों का दुख थोड़ा-थोड़ा वे लोग बांट लें तो उन बेचारों का सुख भी हल्का हो सकता है।
एक के पास नमक दूसरे के पास शक्कर हो और दोनों अपने-अपने से ही काम चलावें तो दोनों के भोजन अस्वादिष्ट रहेंगे पर यदि वे दोनों आपस में बांट लें तो नमकीन और मीठा स्वाद का व्यंजन दोनों को ही मिल सकता है। धन के बंटवारे की मांग भौतिक साम्यवाद के क्षेत्रों में उठ रही है। आध्यात्मिक साम्यवाद की मांग दुख और सुख के बटवारे की है। इसी का सक्रिय रूप सेवा धर्म है। सेवा सदाचार का अंग है, अध्यात्म का प्रमुख सोपान और समाज की प्रगति का इसे आधार स्तम्भ कह सकते हैं। सहयोग और सामूहिकता की सत्प्रवृत्तियां सेवा वृद्धि की उदारता होने पर ही पनप सकती हैं और उनके पनपने पर ही कोई राष्ट्र सुसम्पन्न एवं समुन्नत हो सकता है।
साधना, स्वाध्याय, संयम एवं सेवा कार्यों में आलस्य, प्रमाद न होने देने की बात पर जोर दिया गया है। आलस्य, प्रमाद जीवन की किसी भी धारा को कुंठित कर देते हैं, अतः इनसे जितना बचा जाय उतना ही अच्छा है। किन्तु जीवन विकास के इन मूल आधारों की सीमा में उनका आना सर्वाधिक हानिकारक सिद्ध होता है। अस्तु इन अपने ही अन्दर बसने वाले महा-शत्रुओं को इन नियमों पर आघात करने का अवसर नहीं देना चाहिए।
उनमें व्यतिक्रम न आने पावे इसके लिए नियमों में कठोरता बरतनी चाहिए । उपासना बिना भोजन न करना स्वाध्याय किए बिना सोना नहीं, संयम एवं सेवा का नियम टूटने पर उसे दण्ड स्वरूप कुछ बढ़ाकर लागू करना, ऐसे सूत्र हैं जिनके आधार पर आलस्य प्रमाद को उस दिशा में हावी होने से बखूबी रोका जा सकता है।
. 🚩जय जगदम्बे 🚩