आज चीन ने श्रीनगर में आयोजित जी-20 सम्मेलन में भाग होने से यह कहकर इंकार कर दिया कि वह किसी विवादित क्षेत्र में मीटिंग में शामिल नहीं होगा।
अब भारत को भी तिब्बत और ताइवान नीति तथा वन चाइना पॉलिसी नीति पर फिर से विचार करना चाहिए और इसके लिए संसद में कानून बनाकर पहले के समझौते को तोड़ देना चाहिए।
चीन को लेकर भारत के दो प्रधानमंत्रियों ने भारी भूल की है एक जवाहरलाल नेहरू और दूसरे अटल बिहारी वाजपेई जी।
1914 में जो भारत पर अंग्रेजों का राज था तब अंग्रेजी वायसराय और चीन के शासक के बीच में एक समझौता हुआ था, जिसके तहत मैकमोहन रेखा को अंतरराष्ट्रीय रेखा अंतर्राष्ट्रीय सीमा मान लिया गया था, यानी 1914 में भारत ने यह मान लिया था कि तिब्बत एक अलग देश है, फिर आजादी के बाद नेहरू ने 1953 में चीन से एक समझौता किया, जिसके तहत 8 साल के लिए भारत में तिब्बत को चीन का हिस्सा मान लिया था और वन चाइना नीति पर भारत ने दस्तखत कर लिए वन चाइना पॉलिसी यानी तिब्बत ताइवान हांगकांग मकाउ यह सब चीन का हिस्सा होंगे।
उसके बाद 2003 में अटल बिहारी वाजपेई जी जब चीन गए, तब भारत और चीन के बीच में एक समझौता हुआ, जिसके तहत चीन ने हमेशा के लिए सिक्किम को भारत का हिस्सा मान लिया और बदले में भारत ने तिब्बत को हमेशा के लिए चीन का हिस्सा मान लिया और यह ऐतिहासिक समझौता भारत की सबसे बड़ी भूल थी।
अब चूंकि चीन भारत के अंदरूनी मामलों में दखल दे रहा है, इसलिए भारत के पास इस समझौते को तोड़ने का एक बहाना है और भारत जवाहरलाल नेहरू और अटल बिहारी वाजपेई जी के समझौते को संसद के द्वारा कानून बनाकर तोड़ सकता है और यह कह सकता है कि भारत और तिब्बत को अलग देश मानेगा और वन चाइना पॉलिसी का भारत समर्थन नहीं करेगा और भारत में ताइवान दूतावास को खोलने की मंजूरी देना चाहिए ताकि चीन को भी पता चले कि अब यह पहले वाला भारत नहीं है।