#शुभ_रात्रि
आज का मनुष्य औरों की अपेक्षा अपने प्रति अधिक भयानक हो गया है। उसके अपने हृदय में द्वेष, द्वन्द्व, दल-कपट ईर्ष्या और मत्सरता के इतने बीज बोलिये हैं कि उसकी सुगन्धित हृदय-वाटिका विषैली वनस्थली बन गई है। इसका मुख्य कारण है उसकी कामशक्ति।
जो मनुष्य जितनी अधिक कामना रखता है, वह उतना ही अधिक दरिद्र रखता है। उसकी व्यग्रता उतनी बढ़ जाती है और उसका मन विविध तृष्णाओं की ओर दौड़ता रहता है। मनुष्य की विषय विविधता ही उसको पतन की ओर जाती है और पतनोन्मुख मनुष्य से किसी सदाशयता की आशा नहीं की जा सकती। उसका सन्तोष नष्ट हो जाता है और इस प्रकार उसे संसार में सभी प्राणी अपने से अधिक सुखी दिखाई देते हैं, जिससे उसे औरों से ईर्ष्या और अपने से खीझ होने लगती है। वह हर समय हर बात पर असंतुष्ट रहता है, जिससे उसमें क्रोध का बाहुल्य ही हो जाता है। क्रोध से विवेक नष्ट हो जाता है और विवेक के विनाश से वह सर्वनाश की ओर बड़ी तीव्र गति से अग्रसर हो पड़ता है।
मनुष्य को अपना विनाश रोकने के लिए कामनापूर्ण विषयासक्ति को छोड़ना ही पड़ेगा। मनुष्य की विषय वृत्ति की सन्तुष्टि नहीं हो सकती। इसके विषय में प्रकृति का कुछ ऐसा नियम है कि विषयों को जितना सन्तुष्ट करने का प्रयत्न किया जाता वे उतने ही अधिक बढ़ते हैं। अस्तु इनका त्याग ही इनसे पीछा छुड़ाने का एक मात्र उपाय है।
विषय वासनायें हाथ में पकड़ी हुई छड़ी की तरह तो हैं नहीं कि हाथ खोल दीजिए वह स्वतः गिर जायेगी। यह जन्म-जन्मान्तर का कलुष है, जो मनोदर्पण पर संचित हो कर स्थायी बन जाता है। इसे मल-मल कर ही धोना पड़ेगा। जिस प्रकार मैल को मैल से साफ नहीं कर सकते उसी प्रकार विषयों को वासनात्मकता से नहीं धोया जा सकता। इनको धोने के लिए निर्मल भावनाओं की आवश्यकता होगी।
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