. #शुभ_रात्रि
युग निर्माण सत्-संकल्प के पहले वाक्य में आस्तिकता एवं कर्तव्य परायणता को अंगीकार करने की बात कही गयी है। उसे मानव जीवन के 'धर्म कर्तव्य' के रूप में स्वीकार करने एवं अपनाने की घोषणा की गयी है। धर्म-कर्तव्य यहां किन्हीं सम्प्रदायगत सीमित अर्थों में प्रयुक्त नहीं किया गया है। भारतीय संस्कृति में धर्म बड़ा व्यापक अर्थ रखता है। वह नियम जिन्हें धारण करने से व्यक्ति एवं समाज का सर्वांगीण हित साधन होता है, उसे धर्म कहा गया है। 'धारणात् धर्म इत्याहु' आदि से यही भाव निकलता है। अन्य परिभाषा में धर्म को लौकिक अभ्युदय एवं आत्मिक उत्कर्ष का आधार कहा गया है। "यतोभ्युदयः निश्रेयः सिद्धिः सः धर्म" वाक्य का यही निष्कर्ष है ।
अस्तु धर्म कर्तव्य सामान्य कर्तव्यों से ऊपर वह कर्तव्य है जिनको जीवन में अपनाकर व्यक्ति से लेकर समाज तक और लौकिक से लेकर आत्मिक उत्कर्ष के मार्ग प्रशस्त होते हैं। इसीलिए धर्म कर्तव्यों को कष्ट सहकर भी, विपरीत परिस्थितियों में भी अपनाए रखने का आग्रह शास्त्रों एवं विचारकों द्वारा किया जाता रहा है। नव युग के अवतरण के लिए आस्तिकता एवं कर्तव्य परायणता को पूरी निष्ठा एवं दृढ़ता पूर्वक अपनाये रखने का मर्म यहां उभारा गया है। क्योंकि उसके अभाव में कोई उपयुक्त एवं स्थायी समाधान निकालना सम्भव नहीं है। ईश्वर में आस्था रखे बिना हमारी दुष्प्रवृत्तियां बिना नकेल के ऊंट की तरह, बिना लगाम के घोड़े की तरह, बिना नाथ के बैल की तरह, बिना अंकुश के हाथी की तरह, उच्छृंखलता अनीति और उद्दण्डता की ओर द्रुतगति से दौड़ने लगती हैं। पानी को ऊंचा चढ़ाने के लिए अनेक प्रयत्न करने पड़ते हैं पर नीचे की ओर तो वह बिना किसी प्रयास के ही बहने लगता है। मन की गति भी पानी के समान है, उसे सत्मार्ग पर चलाना हो तो अत्यधिक श्रमसाध्य साधन प्रयत्न करने पड़ते हैं, पर कुमार्ग की ओर तो वह सहज ही सरपट दौड़ने लगता है। आस्तिकता मन को कुमार्ग पर दौड़ने से रोकने के लिए सबसे बड़ा अंकुश सिद्ध होता है।
पाप को छिपा लेने और राजदण्ड से बचे रहने की अगणित तरकीबें मनुष्य ने ढूंढ़ निकाली हैं। यों अदालत पुलिस, जेल, कचहरी सब कुछ व्यवस्था अपराधों के लिए मौजूद है, पर उनसे बचे रहकर अनीति बरतते रहने की जितनी कुशलता मनुष्य को प्राप्त है उसकी तुलना में राजदण्ड के सारे साधन तुच्छ मालूम पड़ते हैं। रिश्वत को ही लीजिए वह एक बड़ा अपराध माना गया है और उसके लेने एवं देने वाले के लिए कई वर्ष की जेल का विधान है। इतने पर भी अदालतों तक में, पुलिस तक में, जेल तक में रिश्वत कितने प्रचण्ड रूप में मौजूद हैं उसे हर कोई जानता है। अपराधों को रोकने वाले जब अपराध करने से नहीं रुकते तो जन साधारण से तो आशा ही क्या की जाय? डर दिखाते रहने के लिए मर्यादा माध्यम के रूप में यह सब मौजूद है, उसे मौजूद रहना भी चाहिए, पर समस्या का हल इनके द्वारा होने वाला नहीं।
जब तक मनुष्य अपने कर्तव्य धर्म को कठोरता पूर्वक पालन करने के लिए स्वयं ही श्रद्धा और विश्वास पूर्वक कटिबद्ध न होगा तब तक उसे बलात् सन्मार्गगामी बनाया जा सकना कठिन है। अधिनायकवाद के नृशंस आतंक द्वारा कुछ हद तक पापों की रोक-थाम संभव है। चोर के हाथ काट देने और व्यभिचारी का शिर उड़ा देने जैसे आतंकपूर्ण दण्ड लोगों को डरा तो देते हैं, पर जिनके हाथ में ऐसी दण्ड व्यवस्था रहती है वे ही आतंकित जनता से प्रतिरोध के बारे में निश्चिंत होकर स्वयं ही अनीति करने लगते हैं। डिक्टेटरशाही का इतिहास यही बताता है। फिर आतंकित जनता भीरु और कायर बनती है, उसकी आत्मिक स्थिति बहुत दुर्बल होती जाती है जिससे उसके स्वभाव में छोटे-बड़े अनेकों दोष दुर्गुण प्रविष्ट हो जाते हैं, जिसके फलस्वरूप मनुष्य का व्यक्तित्व दिन-दिन दीन-हीन बनता चला जाता है। आतंकित लोगों में से महापुरुषों एवं नररत्नों का उत्पन्न होना भी सम्भव नहीं रहता । फिर यह आतंकपूर्ण स्थिति समाप्त होते ही वह दबी हुई अपराधी मनोवृत्ति जब अनेकों गुने भयंकर वेग से विकसित होती है तब उसका रोका जा सकना अतीव कठिन हो जाता है।
सदाचार के ऊपर हमारी व्यक्तिगत और सामूहिक सुख-शान्ति निर्भर रहती है। यह सदाचार तभी निभता है जब उसका उद्गम भीतर से प्रस्फुटित होता हो । बाहरी दबाव कोई क्षणिक परिणाम उत्पन्न कर सकते हैं पर स्थायी हल तो अन्तःकरण पर ही निर्भर रहेगा। कर्तव्य पालन को मानव जीवन का आदर्श लक्ष्य एवं धर्म मानकर श्रेष्ठ आचरण करने की प्रवृत्ति तभी विकसित हो सकती है, जब मन की कुबुद्धि पर आत्मा के विवेक का नियन्त्रण बना रहे। इस नियंत्रण के वैज्ञानिक स्वरूप को ही आस्तिकता कहते हैं।
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