. #शुभ_रात्रि
आश्रम शब्द श्रम धातु से निकला है जिसका अर्थ होता है प्रयत्न या परिश्रम। इस प्रकार एक आश्रम तुलनात्मक रूप से श्रम का एक उल्लेखनीय भाग या कर्मस्थली है जिसमे व्यक्ति अपनी योग्यता व क्षमता के अनुसार किन्ही वैयक्तिक व सामाजिक लक्ष्यों की प्राप्ति ( या धार्मिक कर्तव्यों के निर्वाह) के लिए प्रयत्न करता है।
आश्रम का अर्थ वैसे चाहे कुछ भी हो, जन समाज मे इसका अर्थ विश्राम स्थान के रूप मे ग्रहण किया गया। उपनिषद्काल मे आर्य लोग जीवन को अनन्त यात्रा मानते है थे, जिसमे स्थान-स्थान पर विश्राम करके आगे बढ़ते थे अथवा आगे बढ़ने की तैयारी करते थे।
यह यात्रा मोक्ष की ओर होती थी। लोगों के जीवन का चरम लक्ष्य था मोक्ष की प्राप्ति, जिसके बाद आवागमन के बन्धन से मुक्ति मिल जाती थी। प्रत्येक आश्रम एक ऐसी व्यवस्था थी, जिसमे कुछ अवधि के लिए रूककर व्यक्ति आगे की यात्रा के लिए प्रस्थान करता था।
वैदिक व्यवस्था मे मनुष्य की आयु १०० वर्ष मानी गई है। इन १०० वर्षों को चार बराबर भागों मे विभाजित किया गया है। ये चार भाग इस प्रकार है--
१. ब्रह्राचर्य आश्रम २. गृहस्थ आश्रम ३. वानप्रस्थ आश्रम ४. सन्यास आश्रम।
इन्ही चार भागों को चार आश्रमों की संज्ञा दी गयी है। प्रत्येक आश्रम की अवधि २५ वर्ष मानी गई है।
१. ब्रह्राचर्य आश्रम : यह आश्रम साधारणतः २५ वर्ष की आयु तक माना गया है। ब्रह्राचर्य आश्रम, विद्या और शक्ति की साधना का आश्रम है। इसमें एक व्यक्ति ब्रह्राचर्य व्रत का पालन करते हुए विभिन्न विद्याओं मे निपुणता प्राप्त करने का प्रयत्न करता है। मनुष्य का शारीरिक, मानसिक तथा आध्यात्मिक विकास इसी आश्रम मे होता है। ब्रह्राचर्य आश्रम का आयोजन और महत्व विशेष रूप से द्विजों के लिए है जिन्हें विभिन्न वेदशास्त्रों और विद्याओं की साधना की अनुमति है। इस आश्रम मे यज्ञोपवीत या उपनयन संस्कार के पूर्ण होने पर द्विज प्रवेश करता है, जिसकी आयु सामान्यतः ८ से १६ वर्ष की होती है। प्राचीन ग्रन्थों के अनुसार एक ब्राह्मण साधारणतः ८ से १० वर्ष, क्षत्रिय १० से १४ वर्ष की और वैश्य १२ से १६ वर्ष की आयु के बीच उपनयन संस्कार के माध्यम से ब्रह्राचर्य आश्रम मे प्रवेश कर सकता है।
ब्रह्राचर्य जीवन तप और इंद्रिय संयम का जीवन है। मनु के अनुसार ब्रह्माचारी को गुरू के पास रहता हुआ इंद्रियों को वस मे कर तपवृद्वी के लिए नियमों का पालन करे। वह नित्य पूजन करे तथा प्रातः एवं सायंकाल हवन करे। ब्रह्राचर्य भोजन के लिए गृहस्थों से भिक्षा प्राप्त करे किन्तु निम्न व पातकी लोगों से तथा साधारणतः अपने कुल बान्धवों, जाति व गुरू कुल से भिक्षा प्राप्त न करे।
वह प्रतिदिन भिक्षा मांगे परन्तु किसी एक का ही अन्न ग्रहण न करे और न ही भोजन का संचय करे। ब्रम्हचारी को गुरू की आज्ञा का पालन करना चाहिए।
2. गृहस्थ आश्रम : सामाजिक जीवन का आरंभ तथा अन्त इसी आश्रम से होता है। सामाजिक दृष्टिकोण से गृहस्थ आश्रम सबसे अधिक महत्वपूर्ण माना गया है।
साधारणतः ब्रह्राचर्य आश्रम के समाप्त होने यानि की २५ वर्ष की आयु तक व्यक्ति शारीरिक और मानसिक दृष्टि से इतना समर्थ हो जाता है कि वह जीवन मे अर्थ और काम की उचित साधना और विभिन्न पारिवारिक व सामाजिक उत्तरदायित्वों का निर्वाह कर सके। सामान्यतः इस आयु तक व्यक्ति अपनी शिक्षा पूर्ण कर विवाह करके, गृहस्थ मे प्रवेश करता है। जीवन की यही २५ से ५० वर्ष का भाग गृहस्थाश्रम कहलाता है।
इस आश्रम मे प्रवेश करने के पश्चात व्यक्ति सन्तान उत्पन्न करता है। वह अपनी पत्नी तथा बच्चों का पालन-पोषण करता है। इस आश्रम मे रहकर व्यक्ति अपने माता-पिता की सेवा करता है। उन्हें सभी तरह से सन्तुष्ट रखता है। इस आश्रम मे व्यक्ति पितृ यज्ञ करता है। पितृ यज्ञ एक महत्वपूर्ण यज्ञ कहलाता है। गृहस्थ आश्रम मे व्यक्ति अनेक व्यक्तियों को भोजन कराता है। अनेक प्राणी गृहस्थ के सहारे जीवित रहते है। इसी कारण यह आश्रम सबसे अधिक महत्वपूर्ण माना गया है। इस आश्रम मे व्यक्ति के 2 महत्वपूर्ण कर्तव्य बताए गए है। प्रथम प्रकार के कर्तव्यों का सम्बन्ध धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष से है। द्वितीय प्रकार के कर्तव्यों का सम्बन्ध विभिन्न ऋणों से उऋण होना है। विभिन्न प्रकार के यज्ञ करके ही एक व्यक्ति इन ऋणों से उऋण हो सकता है।
मनु के अनुसार जिस प्रकार सब लोग वायु के सहारे जीवित रहते है, उसी प्रकार सब आश्रम गृहस्थाश्रम के सहारे निर्वाह करते है। गृहस्थाश्रम के इस महत्व को देखते हुए मनु ने इसे सभी आश्रमों मे श्रेष्ठ निरूपित किया है।
यस्मात्त्रयोउप्याश्रमिणो ज्ञानेनात्रेन चान्वहम्।
गृहस्थेनैव धार्यन्ते तत्याज्जेष्ठाश्रमों गृही।। (मनुस्मृति, २:७८)।
. *🚩जय सियाराम 🚩*
. *🚩जय हनुमान 🚩*
क्रमशः..👉. https://www.prashasaksamiti.com/2023/05/blog-post_295.html