गतांक से आगे.......
. #शुभ_रात्रि
३. वानप्रस्थ आश्रम: ५० वर्ष की आयु पूरी करने के बाद वानप्रस्थ आश्रम मे प्रवेश करता है। यह गृहस्थाश्रम के बाद की स्थिति है। मनु के अनुसार गृहस्थाश्रम व्यतीत करने के पश्चात जब व्यक्ति के बाल पक जायें, चेहरे पर झुरियाँ दिखाई पड़ने लगें, उसके प्रौत्र उत्पन्न हो जायें तब वह विषयों से रहित होकर वन का आश्रय ले। यदि उसकी पत्नी उसके साथ जाना चाहे तो ले जाए अन्यथा उसे पुत्रों के उत्तरदायित्व पर छोड़ दें। उसे अपने साथ कोई भी गृह सम्पत्ति नही ले जानी चाहिए। अपने साथ अग्निहोत्र तथा तथा उसकी सामग्री लेकर अपने ग्राम का त्याग करे। जटा, दाढ़ी, मूँछ और नख धारण करे तथा प्रातः फल एवं मूल का सेवन करे। साधारणतः वानप्रस्थी को बस्तियों मे केवल भिक्षा के लिए ही जाना चाहिए। वर्षा के अतिरिक्त वानप्रस्थी को किसी ग्राम मे एक से अधिक रात्रि के लिए विश्राम नही करना चाहिए।
४. सन्यास आश्रम
सन्यास शब्द का अर्थ है- 'सम्यक रूप से त्याग'--
सम्यक न्यासः प्रतिग्रहाणां सन्यासः।' (बौधायन घ. सू. १०.१)।
लेकिन भौतिक पदार्थों का त्याग मात्र सन्यास नहीं है बल्कि यह राग-द्वेष, मोह-माया जैसे आन्तरिक भावों का त्याग भी है।
भगवद्गीता (५.३) में भगवान श्रीकृष्ण ने स्पष्ट रूप से कहा है कि सन्यासी वह है जो न किसी से द्वेष करता है और न ही स्नेह
'ज्ञेयः स नित्यं संन्यासी यो न द्वेष्टि न काङ्क्षति।'
महाभारत में ही लिखा है कि सन्यासी की दृष्टि में पाषाण और कांचन, शत्रु मित्र उदासीन आदि सब समान होते है।
गृह्यसूत्रों एवं धर्मसूत्रों में सन्यास आश्रम का उल्लेख न होने की वजह से रीज डेविड जैसे कुछ विद्वानों की मान्यता है कि इसका प्रचलन बुद्ध काल के बाद ही हुआ होगा लेकिन डाॅ. रोमिला थापर ने सन्यास अथवा योग के इतिहास को प्राक्-इतिहासकालीन माना है तथा हड़प्पा संस्कृति से प्राप्त पशुपति की मुहर को इसका प्रारम्भिक चरण दिखाया है। डाॅ. रोमिला थापर ने सन्यास अपनाने वाले दो वर्गों का उल्लेख किया है-- एक वह जो व्यक्तिगत रूप से अपने को पूर्णतः अलग करके सन्यासी हो जाता था और दूसरा वह जो संसार त्यागियों के समूह में मिलकर रहता था। पहला वर्ग योगी का था और दूसरा वर्ग त्यागी का ऐसे त्यागी सन्यासी की श्रेणी से सम्बन्धित थे किन्तु पहले वर्ग के योगी समाज में विरले ही पाये जाते सन्यासी के कर्तव्यों का उल्लेख करते हुए मनुस्मृति में कहा गया है कि इसमें व्यक्ति यज्ञोपवीत शिक्षा आदि चिह्नों तथा पंचमहायज्ञ के लिए स्वीकृत गृहाग्नि का त्यागकर गेरुआ (काषाय) वस्त्र धारण करता था। वह निरपेक्ष तथा एकाकी जीवन बिताये इन्द्रियों को विषयों से दूर करने के लिए अल्पभोजन तथा एकान्तवास करे दिन में केवल एक बार भिक्षा ग्रहण करें गाँव में एक दिन तथा नगर में पाँच दिन से अधिक न रुके, अहिंसा को अपनाते हुए सभी प्राणियों के परोपकार के लिए कार्य करे। इस तरह समूचा विश्व उसका अपना परिवार तथा आत्मा की खोज और मोक्ष की प्राप्ति करना उसका लक्ष्य बन जाता था।
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