हर वर्ष वैशाख माह के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि पर भगवान परशुराम का जन्मोत्सव बड़े ही धूमधाम के साथ मनाया जाता है। भगवान परशुराम महर्षि जमदग्नि और रेणुका की संतान हैं।
भगवान परशुराम वैदिक और पौराणिक इतिहास में सबसे शक्तिशाली और बड़े व्यापक चरित्र वाले हैं। उनका वर्णन सतयुग के समापन से कलियुग के प्रारम्भ तक मिलता है।
इतना लम्बा चरित्र, इतना लम्बा जीवन किसी और अवतार का नहीं मिलता। मान्यताओं के अनुसार भगवान परशुराम का प्राकट्य काल प्रदोष काल में हुआ था और ये 8 चिरंजीवी पुरुषों में एक हैं। ऐसी मान्यता है कि भगवान परशुराम आज भी इस धरती पर हैं। परशुराम जयंती और अक्षय तृतीया पर किया गया दान-पुण्य कभी क्षय नहीं होता।
रामायण में परसुराम
जब राम भगवान ने सीता जी के स्वयंवर में पहुँच कर भगवान शंकर का धनुष तोड़ा था, तो उसकी गर्जना सुन परशुराम जी वहाँ पहुँच गए। उन्होंने अत्यंत क्रोधित होकर श्री राम को चुनौती दे दी और लक्ष्मण जी के साथ बहुत बहस की। परन्तु जब उन्हें एहसास हुआ कि श्री राम और कोई नहीं बल्कि भगवान विष्णु का अवतार हैं, तो उन्होंने स्वयं ही समर्पण कर दिया। उसके पश्चात् वे पुनः महेन्द्रगिरि पर्वत में जाकर तपस्या करने लगे।
महाभारत में परसुराम
महाभारत के युद्ध के कई महान योद्धाओं को परशुराम जी ने अस्त्र-शस्त्र की शिक्षा प्रदान की थी। उन महारथियों में सूर्यपुत्र कर्ण, पितामह भीष्म, और गुरु द्रोणाचार्य शामिल हैं ।
परशुराम जी के गुरु स्वयं महादेव शंकर थे। वे भगवान शंकर के परम भक्त थे और उन्होंने शंकर जी को तप से प्रसन्न कर उनसे शास्त्रों और युद्ध कौशल की शिक्षा प्राप्त की थी। भगवान शिव के द्वारा ही परशुराम जी को इच्छा मृत्यु का वरदान प्राप्त है। उनके चिरंजीवी कहलाने का यही कारण है ।
राम से परशुराम बनने की कथा
भगवान परशुराम का जन्म माता रेणुका की कोख से हुआ था। जन्म के बाद इनके माता-पिता ने इनका नाम राम रखा था। बालक राम बचपन से ही भगवान शिव के परम भक्त थे। ये हमेशा ही भगवान की तपस्या में लीन रहा करते थे। तब भगवान शिव ने इनकी तपस्या से प्रसन्न होकर इन्हें कई तरह के शस्त्र दिए थे जिसमें एक फरसा भी था । फरसा को परशु भी कहते हैं इस कारण से इनका नाम परशुराम पड़ा
भगवान श्रीकृष्ण से परशुरामजी का मिलना, और सुदर्शन देना
भगवान विष्णु ने जब द्वापर में श्रीकृष्ण अवतार लिया तब परशुरामजी और भगवान श्रीकृष्ण की भेंट उस समय हुई जब भगवान श्रीकृष्ण गुरु सांदीपनि के आश्रम में शिक्षा प्राप्त कर वापस अपने घर लौटने की तैयारी में थे। उस समय परशुरामजी ऋषि संदीपनी के आश्रम में पधारे और भगवान श्रीकृष्ण को उनका सुदर्शन चक्र लौटाते हुए कहा कि अब यह युग आपका है। आप अपना यह सुदर्शन चक्र संभालिए और धरती पर पाप का भार बहुत बढ़ गया है उस भार को कम कीजिए।
पिता के वध का प्रतिशोध
हैहय क्षत्रिय वंश के अधिपति सहस्त्रार्जुन ने भगवान नारायण के अंशावतार दत्तात्रेय को कठिन तपस्या कर प्रसन्न कर लिया था। वह दत्तात्रेय से से सैंकड़ों भुजाओं और कभी पराजित ना होने का वरदान पाकर घमंड में चूर हो गया था। एक बार वह वन में आखेट करते हुए ऋषि जमदग्नि के आश्रम जा पहुँचा। वहाँ मिले आदर सत्कार और खातिरदारी को देख वह बहुत प्रफुल्लित हो उठा।
जब उसने यह पाया कि इन सब का कारण कामधेनु गाय है तो वह कामधेनु गाय को बलपूर्वक ऋषि जमदग्नि के आश्रम से छीनकर ले गया। जब परशुराम जी को इस बात का पता चला तो उन्होंने क्रोधवश फरसा अस्त्र से प्रहार कर सहस्त्रार्जुन की सारी भुजाएं काट दी।
तत्पश्चात सहस्त्रार्जुन के पुत्रों ने प्रतिशोधवश परशुराम जी की अनुपस्थिति में उनके पिता जमदाग्नि की हत्या कर दी। तब परशुराम जी ने प्रतिज्ञा ली और 21 बार इस पृथ्वी से हैहय वंशीय क्षत्रियों का विनाश कर दिया। उन्होंने लगभग सारी पृथ्वी पर विजय प्राप्त कर ली थी। अंत में उन्होंने पूरा साम्राज्य ऋषि कश्यप को सौंप दिया और स्वयं महेन्द्रगिरि पर्वत पर जाकर घोर तप में लीन हो गए।