योगिक शब्दावली
अग्नि पुराण ३७१—३७६ के कथानानुसार,
१) प्राणायाम भीतर रहनेवाली वायुको 'प्राण' कहते हैं। उसे रोकनेका नाम है- 'आयाम'। अतः 'प्राणायाम का अर्थ हुआ - 'प्राणवायुको रोकना।
२) ध्यान 'ध्यैचिन्तायाम्'– यह धातु है। अर्थात् 'ध्यै' धातुका प्रयोग चिन्तनके अर्थ में होता है। ('ध्यै 'से ही 'ध्यान' शब्दकी सिद्धि होती है) अतः स्थिरचित्तसे भगवान् विष्णुका बारंबार चिन्तन करना 'ध्यान' कहलाता है।समस्त उपाधियोंसे मुक्त मानस्वरूप आत्माका ब्रह्मविचारमें परायण होना भी 'ध्यान' ही है। ध्येयरूप आधारमें स्थित एवं सजातीय प्रतीतियोंसे युक्त चित्तको जो विजातीय प्रतीतियोंसे रहित प्रतीति होती है, उसको भी 'ध्यान' कहते हैं।जिस किसी प्रदेशमें भी ध्येय वस्तुके चिन्तनमें एकाग्र हुए चित्तको प्रतीतिके साथ जो अभेद-भावना होती है, उसका नाम भी 'ध्यान' है।
३)समाधि अग्निदेव कहते हैं— जो चैतन्यस्वरूपसे युक्त और प्रशान्त समुद्रकी भाँति स्थिर हो, जिसमें आत्माके सिवा अन्य किसी वस्तुकी प्रतीति न होती हो,उस ध्यानको 'समाधि' कहते हैं। जो ध्यानके समय अपने चित्तको ध्येयमें लगाकर वायुहीन प्रदेशमें जलती हुई अग्निशिखाकी भाँति अविचल एवं स्थिरभावसे बैठा रहता है, वह योगी 'समाधिस्थ' कहा गया है।जो न सुनता है, न सूँघता है, न देखता है, न रसास्वादन करता है, न स्पर्शका अनुभव करता है, न मनमें संकल्प उठने देता है, न अभिमान करता है और न बुद्धिसे दूसरी किसी वस्तुको जानता ही है केवल काष्ठकी भाँति अविचलभावसे ध्यानमें स्थित रहता है,ऐसे ईश्वरचिन्तनपरायण पुरुषको 'समाधिस्थ' कहते हैं।
४) आसन पद्मासन आदि नाना प्रकारके 'आसन' बताये गये हैं। आसन बाँधकर परमात्माका चिन्तन करना चाहिये।
५) धारणा ध्येय वस्तुमें जो मनकी स्थिति होती है, उसे 'धारणा' कहते हैं। ध्यानकी ही भाँति उसके भी दो भेद हैं- 'साकार' और 'निराकार'।भगवान्के ध्यानमें जो मनको लगाया जाता है, उसे क्रमशः 'मूर्त' और 'अमूर्त' धारणा कहते हैं। इस धारणासे भगवान्की प्राप्ति होती है। जो बाहरका लक्ष्य है, उससे मन जबतक विचलित नहीं होता, तब तक किसी भी प्रदेशमें मनकी स्थितिको 'धारणा' कहते हैं।