चाणक्य उसे कहते हैं, जो पद पर न होकर भी देश की दिशा, दशा और रीतिनीति का रूख मोड़ दे।
पर आज धूर्तता और बेईमानी को चाणक्य नीति का दर्जा मिल चुका है, तो भारत की दिशा बार बार बदलने वाले, चंद्रशेखर को बस नेपथ्य का बादशाह ही कहना ठीक होगा।
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नेहरू के अवसान के बाद, चंद्रशेखर हर बदलाव के केन्द्र मे रहे।
शुरू करें बैंक नेशनलाइजेशन, प्रिवीपर्स के खात्मे, और गरीबी हटाओ से।
श्रेय तो अवश्य इंदिरा गांधी को है, कि उन्होंने इस यंग तुर्क को आर्थिक नीतियों पर एक नोट तैयार करने के लिए कहा।
आंख से आंख मिलाकर बात करने वाले चंद्रशेखर तब इंदिरा के सरदर्द थे, विश्वासपात्र थे और संकटमोचक भी थे।
कार्यसमिति में इंदिरा से ज्यादा मतों से चुने गए थे। वे कांग्रेस में समाजवादी धड़े का चेहरा थे, तो कुछ अर्थशास्त्रियों की मदद से एक नोट बनाया। ये नोट बैंगलोर के एआइसीसी सेशन मे टेन प्वांट प्रोग्राम कहा गया।
असल मे ये युवा तुर्क के प्रस्ताव थे,
और कांग्रेस के ओल्ड गार्ड को चुनौती भी।
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अगर बैंक नेशनलाइजेशन, प्रिवीपर्स खात्मे, और गरीबी हटाओ की गंगोत्री यहां थी, तो कांग्रेस में टूट, नीलम संजीव रेड्डी की हार की जड़ भी इन्हे समझिये।
इन फैसलो पर चढकर इंदिरा ने समय पूर्व चुनाव करवाया, और बहुमत से सत्ता मे लौटीं। ताकतवर हुई। खुदमुख्तार भी। अब एक नई कोटरी ने घेर लिया।
तो जब चंद्रशेखर ने जेपी से टकराव की जगह संवाद की सलाह दी, वो ठुकरा दी गई। चंद्रशेखर कांग्रेस में रहते हुए भी, लगातार मुखर आलोचना करते रहे। नतीजतन 1975 में उन्हें भी बंदी बनाया गया, तब वे कांग्रेस एआईसीसी और कार्यसमिति सदस्य थे।
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1927 में बलिया के इब्राहिमपट्टी गांव में एक निर्धन घर मे पैदा चंद्रशेखर, इलाहाबाद युनिवर्सिटी में पढ़ने के दौरान आचार्य नरेंद्र देव के प्रभाव में आए। सोशलिज्म की राह पकड़, 1952 में बलिया में प्रजा समाजवादी पार्टी के सचिव बने।
अगले दशक तक वे पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में आ चुके थे।1
962 में राज्यसभा पहुँचे। पर 1964 में, अशोक मेहता सहित कुछ नेताओं के साथ कांग्रेस में आ गए। जलवा कायम रहा और 1967 में, वे कांग्रेस संसदीय दल (सीपीपी) के महासचिव बने।
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साथ मे इंदिरा के विश्वासपात्र, सरदर्द और संकटमोचक भी। पर 1975 तक समीकरण बदल चुके थे। जेल से रिहाई के बाद अब वे जनता पार्टी मे थे। 1977 मे बलिया से सांसद जनता पार्टी के अध्यक्ष हुए।
1988 तक वही अध्यक्षजी बने रहे।
इस दौरान, चरण सिंह की राजनीति से मोरारजी सरकार गिर गई। दोहरी सदस्यता का मुद्दा उठा। अध्यक्ष चंद्रशेखर जनसंघ घटक के लोगो की आरएसएस से सम्बद्धता पर सख्त थे, जो उनकी निगाह में उत्पाती और घातक संगठन था।
तो कई चेतावनियों के बावजूद, इससे सम्बद्धता खत्म न करने पर, उन्होंने प्रमुख जनसंघियों को जनता पार्टी से धकिया कर बाहर दिया। अब संघी घटक में भारतीय जनता पार्टी बना ली, जानो मानो, वे पहले किसी विदेशी जनता पार्टी मे मंत्री बने थे।
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बहरहाल, 1980 की हार के बाद कई नेता जनता पार्टी छोड़ गए। अपनी पार्टी बनाई, या कांग्रेस जॉइन कर ली। मगर घरतीपकड़ चन्द्रशेखर, अपने दम पर किला लड़ाते रहे।
ब्लूस्टार ने इंदिरा के सितारे गर्दिश मे ला दिए थे। कांग्रेस के पास अब संजय जैसा संगठक भी न था।
देश मे एंटी-इनकंबेंसी का मूड था। चंद्रशेखर ने 6 जनवरी से 25 जून 1983 तक कन्याकुमारी से राजघाट तक, 4260 किलोमीटर पैदल यात्रा की। देश भर में 15 भारत यात्रा केंद्र बिठाए। जमीनी स्तर पर काम हो रहा था।
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पर किस्मत साथ न थी।
जबरदस्त यात्रा की खबर कपिल देव की के विश्वकप विजय ने दबा दी। कछ माह बाद, दो सिख अंगरक्षकों ने आसन्न चुनाव के नतीजे बदल दिये।
कांग्रेस 400 पार थी, और 15 सांसद वाली तेलगु देशम, उसके सम्मुख मुख्य विपक्षी थी। भाजपा को 2 सीटे मिली, जीतने वालों के नाम, न तो अटल था, आडवानी।
चन्द्रेशखर खुद बलिया हार गए।
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पर बड़ी राजनीतिक हार 1989 में मिली
जब देवीलाल ने अपना ताज वीपी सिंह को सौप दिया।
1988 में उन्होंने, जनता पार्टी तथा अन्य राजनीतिक दलों को मिलाकर जनता दल बनवाई थी। वीपी का भौकाल तो था, पर उनका कोई संगठन न था।
जनता दल से जीतकर आए, उनके अपने सहयोगी बहुत कम थे। भीतरी सहमति देवीलाल को प्रधानमंत्री बनाने की हुई थी, पर खेला हो गया।चंद्रशेखर वही से शॉल फटकारते निकल गये।
और वीपी सरकार की छोटी आयु रेखा वहीं उजागर हो गयी।
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ये बेहद असफल, और भारतहंता सरकार थी।
पंजाब तो जल रहा था, कश्मीर भी सुलग गया। धू धू करके जलने लगा। कश्मीरी पंडितो का पलायन, और बाकी देश मे भी सांप्रदायिक उन्माद और जातिगत हिंसा का विस्फोट हुआ।
दरअसल भारत आर्थिक इतिहास में 1% ग्रोथ का अकेला वर्ष 1990 है।ये वीपी का वर्ष है।
भाजपा द्वारा समर्थन खींचने से, वीपी का पतन हुआ। भारी राजनीतिक उथल-पुथल और अनिश्चितता के दौर में, कांग्रेस के अनुरोध पर चंद्रशेखर ने 54 सांसदों के साथ सरकार बनाई।
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नेपथ्य का बादशाह, मंच पर था।
लेकिन हाथ मे था खाली खजाना, जलता देश, सूक्ष्ममत सरकार। चन्द्रशेखर ही गृहमंत्री थे, रक्षामन्त्री थे, प्रधानमंत्री थे। इसे कायदे से कमजोर, टाइमपास सरकार होना था।
पर कमजोरी चंद्रशेखर की तासीर नही.....
अर्थव्यवस्था मरणासन्न थी। भुगतान संतुलन का संकट 70 के दशक के अंतिम वर्षों में शुरू हो चुका था। मगर राजीव ने न सिर्फ इसे मैनेज करके रखा, बल्कि 1988 तक वे 8-9% की ग्रोथ भी ला रहे थे। 1989-90 के वीपी दौर में यह नाजुक संतुलन टूट गया।
चंद्रशेखर ने कटोरा नही फैलाया। रिजर्व बैंक का सोना गिरवी रखकर धन की व्यवस्था की, देश को दीवालिया होने से बचाया। और आर्थिक सर्जरी की तैयारी मे लग गए। उदारीकरण का दिशासूचक चन्द्रशेखर ने बनाया,
वही शख्स जिसने ने 40 बरस पहले समाजवादी नीतियों का ड्राफ्ट बनाया था।
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हांलांकि उदारीकरण की शुरुआत 1986 से हो गयी थी।
तब के अखबारों ने उसे ड्रीम बजट कहा था।
याने कुछ खिड़कियां खुल गई थी, 1988 तक ग्रोथ बढ़ी थी। पर अब संकट था, अब दरवाजे पूरे खोलने थे। सुधारो के पुरोधा मनमोहन सिंह को खोजकर इकॉनमिक एडवाइजर बनाने वाले, उन्हें कैबिनेट में स्थायी आमंत्रित बनाने वाले चन्द्रशेखर थे।
रिटायर आईएएस, यशवंत सिन्हा, जो एनजीओ बनाने जा रहे थे, उन्हें वित्त मंत्री बनाने वाले भी चन्द्रशेखर थे। मनमोहन और यशवंत, आगे के बीस साल भारत को आर्थिक प्रगति के आर्किटेक्ट हूए।
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तो नई आर्थिक नीति का ड्राफ्ट बनने लगा।
लेकिन राजनीति एक दूसरा मोर्चा है। राजीव गांधी ने हरियाणा के दो पुलिसकर्मियों द्वारा जासूसी का मुद्दा उठाया। बड़ा हंगामा हुआ, समर्थन वापसी की धमकी दी। कहा जाता है कि राजीव का इरादा, कांग्रेस पूछे ताछे बिना, अपनी मर्जी से सरकार चला रहे चंद्रशेखर को एक झटका देना था।
लेकिन अक्खड़ चन्द्रशेखर ने इस्तीफा फेंक दिया। राजीव के दूतों उन्हें इस्तीफा न देने के लिए एप्रोच किया, तो वे बोले- मेरा नाम चन्द्रशेखर है। मै दिन में तीन बार फैसले नही बदलता।
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उन्होंने मार्च 1991 में इस्तीफा दे दिया। चुनवा घोषित हुए, और नई सरकार आने तक उन्हे कार्यवाहक रहने को कहा गया। इसके बाद वे बलिया निर्वाचन क्षेत्र से लोकसभा के लिए फिर से चुने गए।
राजीव की हत्या, उनके प्रधानमंत्रित्व मे हुई।
यह उतना ही बड़ा दाग है, जितना कि गांधी की हत्या नेहरू के प्रधानमंत्रित्व मे हुई।
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1995 में उन्हें उत्कृष्ट सांसद पुरस्कार से सम्मानित किया गया। वे आठ बार लोकसभा, भारत की संसद के निचले सदन के लिए और तीन बार राज्यसभा के लिए चुने गए।
एकमात्र चुनाव वे हारे, वह 1984 में कांग्रेस के जगन्नाथ चौधरी से हारे। वे 40 से अधिक वर्षों तक संसद सदस्य रहे। 8 जुलाई 2007 को नई दिल्ली में उनका निधन हो गया।
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चंद्रशेखर डरे किसी से नही।
न व्यक्ति से, न हालात से, न आलोचना से।
निजी संबंध छुपाते न थे - वो कोल माफिया सूर्यदेव सिंह (हां जी गैग्स आफ वासेपुर का रामाधीर सिह) हो चंद्रास्वामी, या अदनान खाशोगी.. । इसके लिए उनकी खूब आलोचना हुई,..
जो उन्होनेे ठेंगे पर ली।
सैफुद्यीन सोज की बेटी कश्मीरियों ने अगवा कर ली। वीपी ने ऐसे ही मामले मे घुटने टेक दिये थे। लेकिन प्रधानमंत्री चंद्रशेखर ने पाक पीएम को फोन लगाया, और खरी खरी सुनाई। कहा बेटी सुरक्षित वापस आ जानी चाहिए। और बेटी सुरक्षित लौटकर आ गई।
वे यारों के यार थे।
सख्त मिजाज, सिद्धांतो पर अडिग, पर हर शख्स के लिए अभिभावक और शुभाकांक्षी। न इंदिरा के मंत्री हुए, न मोरारजी के, न वीपी के। मगर जनता पार्टी और जनता दल से निकले हर नेता के कॅरियर पर उनका कोई न कोई कर्ज रहा, उनकी छाप रही।
उनके सामने आवाज उठाना भी कठिन होता। जो शख्स सुब्रहमण्यम स्वामी जैसे रिस्की, बदजुबान, षड्यंत्रकारी जीनियस से उपयोगी काम निकाल ले, उसका असर सोच लीजिए। स्वामी उनके कामर्स मिनिस्टर और आर्थिक मामलो मे सलाहकार भी थे।
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उनकी राजनीतिक विरासत छोटे पुत्र नीरज शेखर ने उठाई।
पिता की मृत्यु के बाद बलिया से लड़े, जीते।
और आने वाले दौर मे नरेंद्र मोदी के आगे पीछे दौड़ते हुए उन्होने बाबू साहब की विरासत मिट्टी मे मिला दी। यकीन ही नही होता कि यह रीढहीन आदमी, चंद्रशेखर सिंह का लड़का है।
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चंद्रशेखर भुला दिये गए है। आज फोटो गूगल किया तो चन्द्रशेखर खोजने पर चन्द्रशेखर आजाद दिखते हैं, चन्द्रशेखर रावण।
उनकी समाधि स्थल को जननायक स्थल कहा जाता है,
और मजे की बात जननायक आजकल राहुल गांधी कहे जाते हैं।
वही सैद्धांतिक शुद्धता की जिद, वही निर्भिकता, वही अक्खडपन, वही दूर पर साफ नजर। पद प्रतिष्ठा की फिक्र किये बगैर, वे कर्म यात्रा पर वे भी कन्याकुमारी से कश्मीर तक चल चुके है।
सत्ता से दूरी उन्हे नर्म नही, सख्त बना रही है।
मगर सांगठनिक सख्ती, राजनीतिक चातुर्य और प्रहार मे निर्ममता का अभाव है।
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लेकिन चंद्रशेखर होना आसान भी तो नही।
चापलूसी के इस दौर मे हर दूसरे धूर्त और और बेईमान को चाणक्य का नाम दे दिया जाता है। लेकिन जो पद पर न होकर भी, बार बार देश की दिशा, दशा और रीति-नीति का रूख मोड़ता रहा हो..
उस चंद्रशेखर को नेपथ्य का बादशाह ही कहना ठीक होगा।

