⚡ तत्व नवरात्रि (वैदिक एवं वैज्ञानिक विश्लेषण)
सनातन संस्कृति में दिन रात्रि गोचर तिथियों में सर्वोच्च स्थान आदिशक्ति के नवरात्रि काल का है। नवरात्र में दो शब्द है। नव-रात्र । नव शब्द संख्या का वाचक है और 'रात्र' का अर्थ है रात्रि-समूह,काल विशेष। इस 'नवरात्र' शब्द मे संख्या और कालका अद्भुत सम्मिश्रण है। यह 'नवरात्र' शब्द नवानां रात्रीणां समाहारः नवरात्रम्। रात्राह्नाहाः पुंसि (पाणि ० 2.4.29) तथा संख्या पूर्व रात्रम्। (क्लीबम् लिं० सू० 131 से) बना है। यो ही द्विरात्रं निरात्रं पाञ्चरात्रं गणरात्रम् आदि द्विगु समासान्त शब्द है। इस प्रकार इस शब्द से जगत् के सर्जन-पालनरूप अग्नीषोमात्मक द्वन्द्व (मिथुन) होने की पुष्टि होती है। नवरात्र में अखण्ड दीप जलाकर हम अपनी इस 'नव' संख्या पर रात्रि का जो अन्धकार, आवरण छा गया है, अप्रत्यक्षतः उसे सर्वधा हटाकर विजया के रूप में आत्म-विजय का उत्सव मनाते है। ध्यान रहे कि यह 'नव' संख्या अखण्ड, अविकारी एकरस ब्रह्म ही है। आप 'नौं' का पहाड़ा पढ़िये और देखिये कि पूरे पहाड़े में नौ ही नौ अखण्ड ब्रह्म की तरह चमकते रहेंगे- 9, 18 (1 + 8 = 9), 27 (2 + 7 = 9), 36 (3 + 6 = 9), 45 (4 + 5 = 9) 63 (6 +3 = 9), 72 (7 + 2 = 9) और 81 (8 + 1 = 9) अंततः यही 9' ब्रह्म- 90 बन जाता है। इसी प्रकार वर्ष के सामान्यतः 360 दिनो को 9 की संख्या में बाँट दे, भाग दें तो 40 नवरात्र हाथ लगेगे। तान्त्रिकों की दृष्टिमें 40 संख्या का भी बड़ा महत्त्व है। 40 दिनो का एक' मण्डल' कहलाता है और कोई जप आदि करना हो तो 40 दिनों तक बताया जाता है।
नवरात्रों के 9 दिनों का संशय करने के पहले जान लें दुर्गा माता नवविधा है, अतएव नौ दिन रखे गये। दूसरा, अभी नवरात्र को वर्ष के दिनों का ४० वाँ भाग बताया गया, जिसमें दुर्गा पूजा के नौ दिनों का विधान सिद्ध हुआ है, तीसरा, ये की शक्ति के गुण तीन हैं सत्त्व, रज, तम। इनको त्रिवृत (तिगुना) करने पर नौ ही हो जाने हैं। जैसे यज्ञोपवीत में तीन बड़े धागे होते हैं और उन तीनों में प्रत्येक धागा तीन-तीन से बना है, वैसे ही प्रकृति, योग माया का त्रिवृत् गुणात्मक रूप नवविध ही होता है। महाशक्ति दुर्गा की उपासना में उसके समग्र रूपकी आराधना हो सके, इस अभिप्राय से भी नवरात्र के नौ दिन रखे गये हैं।
कदाचित् हमारे ये नवरात्र वर्ष भर के 40 नवरात्रों की एकांश उपासनार्थ कहे जा सकते है। वैसे देवीभागवत में 4 नवरात्र 40 के दशमांश मे निर्दिष्ट है ही दो तो अतिप्रसिद्ध ही है। जो कुछ हो, आप इन 40 नवरात्रों में से 0 को अलग कर दे और केवल 4 को लें तो वर्ष के ४ प्रधान नवरात्र बन जायेंगे जो 1- चैत्र, 2- आषाढ, 3- आश्विन, और 4- माघ मास के शुक्लपक्ष की प्रतिपदा से नवमी तक, जो हमारे चार पुरुषार्थों (धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष) के प्रतीक होते हैं। इनमें से 4 को 2 में विलीन कर दें विनियोग द्वारा अर्थ को धर्म में और काम को जिज्ञासारूप बनाकर मोक्ष में अन्तर्भूत कर दें तो पुरुषार्थीक प्रतीक रूप में दो ही सर्वमान्य नवरात्र हमें मिलते है।
1- वार्षिक या वासन्तिक नवरात्र (चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से नवमी तक) और
२- शारदीय नवरात्र (आश्विन शुक्ल प्रतिपदा से नवमी तक)
इन दोनों नवरात्रों की सर्वमान्यता और मुख्यता भी सकारण है। मानव-जीवन की प्राणप्रद ऋतुएँ मूलत: 6 होने पर भी मुख्यतः 2 ही है - १. शीत ऋतु (सर्दी) और २. ग्रीष्म ऋतु (गर्मी)। आश्विन से शरद् ऋतु जिससे शीत, चैत्र से बसन्त जिससे ग्रीष्म। यह भी विश्वके लिये एक वरद मिथुन रूप बन जाता है। एक से गेहूँ (अग्नि) तो दूसरे से चावल (सोम) इस प्रकार प्रकृति माता हमें इन दोनो नवरात्रो मे जीवन-पोषक “अग्निषोम” (अग्नि-सोम) के युगल का सादर उपहार देती है। यही कारण है कि ये दो नवरात्र-
1. नवगौरी या परब्रह्म श्रीराम का नवरात्र और
2. भगवती आद्य महा दुर्गे के नवरात्र सर्वमान्य हो गये।
इन ऋतुचक्र- परिवर्त्तनों के साथ चान्द्र चैत्र और आश्विन माह में नवरात्र- त्योहार मनाने के पीछे तो आध्यात्मिक महत्व है ही, परन्तु ऋतु परिवर्तन से जुड़े वैज्ञानिक महत्ता भी है जो कदाचित अदभुद रहस्य है-
वैदिक व वैज्ञानिक रूप में नौ प्रकार की विद्युत् धाराओं की परिकल्पना नौ देवियों के रूप में की गयी है। प्रत्येक देवी एक विद्युत् धारा की साकार मूर्ति है। देवियों के आकार- प्रकार, रूप, आयुध, वाहन आदि का भी अपना रहस्य है, जिनका सम्बन्ध इन्ही ऊर्जा- तत्वों से समझना चाहिए। ऊर्जा- तत्वों और विद्युत् धाराओं की गतविधि के अनुसार प्रत्येक देवी की पूजा- अर्चना का निर्दिष्ट विधान है और इसके लिए 'नवरात्र' का योजन वेदों में बताया गया है।
वैज्ञानिकों के अनुसार ये ऊर्जाएं पृथ्वी पर उत्तरी ध्रुव की ओर से क्षरित होती हैं और पृथ्वी को यथोचित पोषण देने के बाद दक्षिणी ध्रुव की ओर से होकर निकल जाती हैं। इसी को आधुनिक विज्ञान 'मेरुप्रभा' कहता हैं। मार्च-अप्रैल और सितम्बर-अक्टूबर अर्थात् चैत्र और आश्विन माह में जब पृथ्वी का अक्ष सूर्य के साथ उचित कोण पर होता है, उस समय पृथ्वी पर अधिक मात्रा में मेरुप्रभा झरती है, जबकि अन्य समय पर गलत दिशा होने के कारण वह मेरुप्रभा लौट कर ब्रह्माण्ड में वापस चली जाती है। वैज्ञानिकों का कहना है कि वह मेरुप्रभा में नौ प्रकार के उर्जा- तत्व विद्यमान हैं। प्रत्येक ऊर्जा तत्व अलग- अलग विद्युत् धारा के रूप में परिवर्तित होते हैं। वे नौ प्रकार की विद्युत् धाराएँ जहां एक ओर प्राकृतिक वैभव का विस्तार करती हैं, वंही दूसरी ओर समस्त प्राणियों में जीवनी- शक्ति की वृद्धि और मनुष्यों में विशेष चेतना का विकास करती हैं। अन्तर्ग्रहीय ऊर्जा की दृष्टि से उत्तरी ध्रुव बहुत ही रहस्यमय तथा महत्वपूर्ण है। इसी 'मेरुप्रभा' की वजह से पृथ्वी तथा मनुष्य अंदर के चुम्बकत्व का कारण है। मनुष्य शरीर में रीढ़ की हड्डी के भीतर परम् शून्यता के प्रतीक सुषुम्ना यानी शून्य- नाड़ी होती है। यहां स्थित वह परम- शून्य उस परम- तत्व का ही रूप है, जो अनादि काल से मनुष्य के शरीर में सुप्तावस्था में रहता आया है। नवरात्र के दिनों में मनुष्य की चेतना और चुंबकीय शक्ति जाग्रत अवस्था में रहती है, पृथ्वी का जो चुम्बकत्व है यह उसके प्रत्येक कण को प्रभावित करता है तथा वह ब्रह्माण्ड से आने वाले अति रहस्यमय शक्ति- तत्व के प्रवाह के कारण भी यही है। मेरुदण्ड में स्थित सुषुम्ना नाड़ी में यह शक्ति- प्रवाह कार्य करता है। दूसरे शब्दों में यही शक्ति- तत्व जीवन- तत्व है।
सूर्य में तेज चमक दिखती है तो, उसके एक- दो दिन बाद ही ये मेरुप्रभा तीव्र होती है। यह बढ़ी हुई सक्रियता सूर्य के विकिरण तथा कणों की बौछार का ही प्रतीक है। शान्त अवस्था में भी यह सम्बन्ध बना रहता है। ये कण अति सूक्ष्म इलेक्ट्रॉन और प्रोटॉन होते हैं, जो लगभग 1000 मील प्रति घण्टे की गति से दौड़ते हुए पृथ्वी तक आते हैं, जबकि प्रकाश पृथ्वी तक पहुंचने में कुल 8 मिनट लेता है। प्रकाश की गति 186000 मील प्रति सेकेण्ड है। पृथ्वी की सम्बन्ध सूर्य की विद्युतीय शक्ति से है। चुम्बकत्व पार्थिव कणों में विद्युत् प्रवाह के कारण होता है। इसीलिए पृथ्वी की चुम्बकीय क्षमता सूर्य के ही कारण है और सूर्य को शक्ति प्राप्त होती है अन्तर्ग्रहीय विद्युत् ऊर्जा तरंगों से, जिनका मूल स्रोत है...
— जगजननी अनादि-शक्ति की प्रतीक—
⚡आद्याशक्ति माता भगवती⚡
सर्व स्वरूपे सर्वेशे सर्वशक्ति समन्विते:।
भयेभ्यस्त्राहिनो देवि, दुर्गे देवि नमोस्तुते।।