मेरुदंड (spinal code) को सीधा क्यूँ रखना चाहिए ?
मेरूदण्ड - मेरूमज्जा - यह एक से डेढ फुट लम्बी होती है। पूरे मेरूदण्ड में छिद्र रहते हैं, इससे ३१ (इकतीस) जोड़े नाड़ियां निकलती हैं बाह्य भाग धूसर रंग के पदार्थ से और भीतरी भाग सफेद रंग के पदार्थ (White matter) से बना है। मध्य में सौषुम्न पथ है।
मनुष्य के शरीर को सीधा रखने में मेरूदण्ड़ का मुख्य कार्य है। हमारे पृष्ठ भाग में यह नाड़ियां स्थित हैं। इस मेरूदण्ड़ में २४ कसेरू प्रमुख रूप से होते हैं। इन कसेरूओं में अन्दर से छिद्र होता है। इसके दोनों ओर दो नाड़ियां है। बायीं नाडी का संबंध बायी ओर से नासिका छिद्र से है, इस को चन्द्र (इड़ा) नाड़ी कहते है। दूसरी नाड़ी दायीं ओर रहती है, जिसका संबंध दायीं ओर के नासिका (छिद्र) से रहता है, इसको सूर्य (पिंगला) नाड़ी कहते है। इन दोनों के बीच में सूक्ष्म सुषुम्ना नाड़ी है। इसमें सूक्ष्म प्राणसंचार होता है। शारीरिक प्राणशक्ति, इसमें संचार करती है। इस मेरूदण्ड़ से शरीर के प्रमुख केन्द्रों का 'नाड़ियों द्वारा सम्बन्ध जुड़ा रहता है। कुछ प्राणवाहिनी नाड़िया है, कुछ रक्तवाहिनी।
इसी प्रकार कुछ ज्ञानवाहिनी (चेतना) की अनुभूति कराने वाली है।, मेरूदण्ड़ के २४ कसेरूओं को रगड़ से बचाने के लिए प्रत्येक कसेरू के बीच में श्लेष्मिक (ग्रीस) जैसा पदार्थ भरा रहता है। जिसमें विकार होने के कारण कमर में दर्द या नीचे के हिस्से का बेकार हो जाना आदि रोग हो जाते है।
इसी प्रकार कभी नीचे-ऊंचे में पैर रखने से इन ग्रन्थियों में दूरी कम या अधिक हो जाती है। तो शरीर में दर्द होने लगता है और श्वास प्रक्रिया में भी बाधा पड़ने लगती है। इडा नाड़ी से श्वास चलता है तो शरीर में शीतलता का प्रभाव रहता है। पिंगला नाड़ी के अधिक चलने से शरीर उष्मा से प्रभावित रहता है। नाड़ी विशेषज्ञों के अनुसार एक स्वर से दूसरे स्वर के परिवर्तन में २ घड़ी (लगभग १ घण्टा) का समय लगता है। जब दोनों नाड़ियां समान रूप से श्वास-प्रश्वास करती है तो सुषुम्ना नाड़ी से आते है। जब सुषुम्ना के कसेरू किसी कारण गतिरोधित हो जाते हैं तो श्वास में अंतर पड़ जाता है। इसी कारण शरीर के सूक्ष्म तन्तुओं में भी अन्तर पड़ जाता है और शरीर अनेक व्याधियों का शिकार हो जाता है।
मेरूदण्ड़ के मसलने से रोग निवारण-मेरूदण्ड़ के कसेरूओं में कमी जा आने पर रोगी को मेरूदण्ड़ के आसन करने चाहिए। इसके अतिरिक्त प्रातः खाली पेट रहते हुए रोगी को पेट के बल लिटा कर रीढ़ में तेल लगाकर धीरे-धीरे मसलना चाहिए। इस क्रम को ८-१० मिनट तक करें इस प्रकार ४-५ दिन करने से शरीर में होने वाले विकार शांत हो जाते हैं।
योगियों की यही क्रिया जो मेरुदंड को सीधा रखना तथा प्राणवाहिनी नाड़ी में प्राण पर संयम करना उन्हें योगी बनाता है , इसलिए रीढ़ की हड्डी को निरोग कहना योग मार्ग में बहुत सहायक है