क्यूँ हमारे ऋषि, मुनि, योगी, हठयोग एवं योग साधना में उंगलियों को विशेष रूप में रखते थे?
उन्हें क्या लाभ प्राप्त होता था?
'शिवसंहिता' में कहा गया है कि मुद्रा बन्धन का अभ्यासारम्भ करने के पूर्व आधार- पद्म में मन को वायु के साथ लगाना एवं भरना चाहिए
अदौसफुलयोगेन स्वधारे पूरयेनमनः
मुद्रा के कार्य मुद्रा के तीन कार्य होते हैं-
१. नाड़ियों का शोधन।
२ चन्द्रमा एवं सूर्य (अपान एवं प्राण) का चालन।
३. रसना का शोषण (सहस्त्रार से द्रवित चन्द्रामृत का पान)।
शोधनं नादिजलस्य चाल्नं चन्द्रसूर्ययोः।रसनाशोषणं कुर्यान्महामुद्राऽभिधीयते।।
मुद्रासाधन का फल
जो मुद्रासाधन करते हैं; उन्हें निम्न फल प्राप्त होता है-
१. वृद्धावस्था नहीं आती।
२. मृत्यु का भय जाता रहता है।
३. अग्नि, जल एवं पर्वत का भी भय नहीं रहता।
तस्य नो जायते मृत्युर्नस्य जरादिकं तथा।नागिनजलभ्यं तस्य वयोरपि कुतो भयम्।।
योगिनीहृदय (सं.57) में कहा गया है कि भगवती संवित् शक्ति ही क्रियाशक्ति के स्वरूप में जगत् का मोदन एवं द्रव्य कहा जाता है जिसे द्विविध व्यापार अभ्यास करती है 'मुद्रा' कहलाती है-
क्रियाशक्तिस्तु विश्वस्य मोदनाद् द्रव्यनात्तथा। मुद्राख्या सा यदा संविदम्बिका त्रिकालमयी।।
मुद्रा-साधक को निम्न लाभ भी होते हैं-
कासः श्वासः प्लीहकुष्ठं श्लेष्मरोगश्च विंशतिः। मुद्राणां साधनाच्चैव विनश्यन्ति न संशयः।।
अर्थात् मुद्रा-साधकों को कास रोग, श्वास रोग, प्लीहा रोग, कुष्ठ रोग एवं श्लेष्मा रोग नहीं होता है।
1. महामन्द भाग्य वालों को भी सिद्धि की प्राप्ति।
2. शरीर की समस्त नाड़ियों का चालन (गतिमयता) और सभी नाड़ियों में वायु- संचार एवं स्फूर्ति।
3. वीर्य की स्थिरता।
4. जीवन में स्थैर्य एवं समस्त पापों का क्षय।
5. कुण्डलिनी शक्ति की शक्ति और उसके वायुसहित ब्रह्मरंध्र में प्रवेश।
6. समस्त रोगों का नाश।
7. जठराग्नि की प्रदीप्ति।
8. शरीर में कान्ति।
9. जरा-वार्धक्य एवं मृत्यु का नाश।
10 मनोकामनाओं की पूर्ति।
11. सुख की प्राप्ति।
12. इन्द्रियों पर विजय।
13 . सब कुछ की सिद्धि।
14. संसार-सागर से पार होना।
15. आधार शक्ति कुण्डली ऋज्वीभूत (सरल) हो जाती है।
16. महाक्लेशों (अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष अभिनिवेश) का अंत। 3. द्विपुटाश्रय इड़ा-पिघला नाड़ी की मरणावस्था होती है ( सुषुम्ना नाड़ी में) प्राण-प्रवेश)।
17 . इसके साधक को पथ्यापथ्य का विचार नहीं करना पड़ता।
18. समस्त छः हों प्रकार के रसों की सुपाच्यता
19. खादित विष भी अमृत बन जाता है।
20 . महान् सिद्धियाँ प्रदान करता है।