यही 'राम रसायन' है। इस राम रसायन से अयोध्या सदियों से रससिक्त है, पर इस 'रस' के अवगाहन में सदियों से रुकावट थी। अयोध्या संघर्ष और बदलाव से जूझ रही थी। *उसके केंद्र में विचारधाराओं का टकराव था। एक विचारधारा उपासना स्वातंत्र्य, सर्वपंथ सद्भाव, पंथनिरपेक्षता पर टिकी थी तो दूसरी मजहबी एकरूपता, धार्मिक विस्तारवाद और सामुदायिक असहिष्णुता पर टिकी थी।
अयोध्या के सांस्कृतिक मायने को उन 'तीन गुंबदों' ने बदल दिया था, जो 'बाबरी ढांचे' की शक्ल में वहाँ पाँच सौ वर्षों से खड़े थे। इस राष्ट्र की स्मृति पर ये गुंबद मानो विजेता की भाँति सवार थे। ये गुंबद निरंतर हमारे अवचेतन में शासक-शासित का भाव जगाते रहे।
विगत डेढ़ सौ वर्षों में देश की राजनीति इन्हीं गुंबदों के इर्द-गिर्द घूमती रही। किसी ने यह बूझने या समझने की कोशिश नहीं की कि सबकुछ इन गुंबदों के इर्द-गिर्द ही क्यों घट रहा है ? इसके सच को पकड़ने का कोई ऐसा 'बौद्धिक अनुष्ठान' भी नहीं हुआ, जिसमें इतिहास के साथ-साथ वर्तमान और भविष्य को जोड़ने का माद्दा हो।
राम की अनुकरणीयता, पुरुषार्थ, सर्वजनीनता (सर्व हितकारी) और सर्वव्यापकता ने इस गुंबद की राजनीति का अंत कर दिया। उसकी जगह विराट् और सूक्ष्म, सगुण और निर्गुण, वैदिक और लोकायत संकल्पनाओं का पूँजीभूत ऊर्जा केंद्र यह राममंदिर बन गया। हिन्दू समाज उन तारीखों का चश्मदीद रहा है, जिनसे अयोध्या की शक्ल, चरित्र और मायने बदलने की बलात कोशिश हुई। अयोध्या का सच बदलने का कुटिल षड्यंत्र हुआ। पर जो बदला गया, वह अयोध्या का सच तो नहीं था। अयोध्या का सच हमारी विरासत, परंपरा और सांस्कृतिक इतिहास में इस तरह गहरे तक धँसा हुआ था, जिसे निकालना नामुमकिन था।
भारत के मानचित्र में राम की यात्रा उत्तर से दक्षिण को है। बाद में इसी रास्ते भक्ति दक्षिण से उत्तर की ओर आती है... "भक्ति द्रविड़ उपजी लाए रामानंद, प्रकट किया कबीर ने, सात दीप नौ खंड।" भक्ति का यह तत्त्व श्रीराम को घर-घर और घट-घट व्यापी बनाता है।