असुन्दर बातें भी अर्थगर्भी होती हैं.. उनका अर्थ जानने में समय तो लगता है किंतु वे जब भी कभी अपने अर्थों में खुलती हैं तो हमारी समझ को विस्तार ही देती हैं..
सोलह साल पहले जब पापा का देहान्त हुआ तब मैं इक्कीस साल की रहीं होंगी.. हमारे यहाँ दाह संस्कार में स्त्रियों के घाट जाने की परम्परा नहीं है.. पिता की मृत्यु यूँ भी बहुत दुरूह परिस्थिति होती है.. दाह के बाद जब भाई, ताउजी, चाचा लोग घर पहुँचे तो स्वाभाविक तौर पर सभी त्रस्त थे.. किंतु तभी ताऊजी एकदम बोले "सब काम अच्छा हो गया, बहुत सुन्दर, बहुत भव्य आग जली.." उनकी ये बात सुनकर मैं मन ही मन उनसे बहुत नाराज़ हुई, इतनी कि उनके अंतिम समय तक उनकी ये बात मुझे याद आती रही.. चिताग्नि कैसे किसी को सुन्दर या भव्य लग सकती है! वो भी अपने ही भाई की.. किंतु दो वर्ष पूर्व कुछ ऐसी बात हुई कि ताऊजी से बनी वो नाराज़गी हमेशा के लिए जाती रही..
दो साल पहले जब मेरी नन्द के देवर की असमय मृत्यु हुई, वे पैंतीस की वय का रहे होंगे.. मृत्यु पीलिया और लीवर में पानी भर जाने के कारण हुई थी जिसके कारण मृत देह का वजन दोगुना हो गया था.. उसके ऊपर जिस रोज़ दाह संस्कार होना था, उस दिन खूब पानी बरसा.. हालांकि दाह शेड के नीचे हुआ फिर भी चिता ठीक तरह से नहीं जल पाई.. परिजन लगभग सोलह घंटे बारिश में खड़े रहे.. देह में पानी भरे होने के कारण भी यह कर्मकांड अवांछनीय तौर पर विलंबित रहा.. उस दिन ताऊजी की कही बात बेतरह याद आई.. पिता के दाह की अग्नि को सुन्दर और भव्य कहने को पीछे का उनका आशय स्पष्ट हुआ.. बहुत भावुक होकर मन ही मन मैंने उनसे क्षमा माँगी और एक असुन्दर बात पर भी मेरी आस्था बन गई..
मृत्यु से अधिक असुन्दर कुछ नहीं किंतु वह एक अटल सत्य भी है.. और जो सत्य है वह असुन्दर कैसे हो सकता है!
साभार
मीनाक्षी मिश्र