पं. रामप्रसाद बिस्मिल, अशफ़ाक उल्ला खां, ठाकुर रोशनसिंह बलिदान दिवस
पंडित रामप्रसाद बिस्मिल
भारत एक वीरों का देश है यह बात आप अकसर सुनते रहते हैं लेकिन जब हम स्वतंत्रता संग्राम के उन सभी क्रांतिकारियों को याद करते हैं तो हमारी स्मृति में एक नाम सबसे पहले आता है वह है पंडित रामप्रसाद बिस्मिल का. स्वतंत्रता के लिए अपना सर्वस्व अर्पण कर देने वाले वीरों में रामप्रसाद बिस्मिल का एक विशिष्ट स्थान है. रामप्रसाद बिस्मिल का जन्म 11 जून, सन 1897 में उत्तर प्रदेश के मैनपुरी में हुआ.
जब क्रांतिकारियों को यह लगने लगा कि अंग्रेजों से विनम्रता से बात करना या किसी भी प्रकार का आग्रह करना फिजूल है तो बिस्मिल कुछ क्रांतिकारियों के साथ मिलकर विस्फोटकों और गोलीबारी का प्रयोग करने की योजना बनाने लगे. लेकिन इन सब सामग्रियों के लिए अधिकाधिक धन की आवश्यकता थी. इसीलिए राम प्रसाद बिस्मिल ने अंग्रेजी सरकार के धन को लूटने का निश्चय किया. नौ अगस्त, 1925 को लखनऊ-सहारनपुर यात्री गाड़ी को शाम के समय काकोरी स्टेशन के पास रोक लिया गया। चालक तथा गार्ड को पिस्तौल दिखाकर नीचे लिटा दिया। खजाने से भरा लोहे का भारी बक्सा उतारकर सब उसे तोड़ने लगे; पर वह बहुत मजबूत था। अशफाक का शरीर बहुत सबल था। सबके थक जाने पर उन्होंने हथौड़े से कई चोट की, जिससे बक्सा टूट गया। क्रान्तिकारियों ने सारे धन को चादरों में लपेटा और फरार हो गये।
जब अंग्रेजी सरकार को क्रांतिकारी गतिविधियों से भय लगने लगा तो उन्होंने बिना सोचे-समझे क्रांतिकारियों की धर-पकड़ शुरू कर दी. इस दौरान राम प्रसाद बिस्मिल अपने साथियों के साथ पकड़े गए. यह सब जानते हैं कि उन्होंने हंसते हुए फांसी का फंदा गले में यह कहते हुए डाल लिया और फांसी के तख्ते के पास पहुंचने से पहले उन्होंने अपनी अंतिम इच्छा व्यक्त की. उनकी अंतिम इच्छा थी ‘मैं ब्रिटिश साम्राज्य का नाश चाहता हूं
अमर बलिदानी अशफाक उल्ला खां
‘काकोरी कांड’ में फाँसी पाने वाले अशफाक उल्ला खाँ का जन्म 1900 ई0 में शाहजहाँपुर (उ.प्र.) में हुआ था। युवावस्था में उनकी मित्रता रामप्रसाद ‘बिस्मिल’ से हुई, जो फरार अवस्था में शाहजहाँपुर के आर्यसमाज मन्दिर में रह रहे थे। शाहजहाँपुर में एक बार मुसलमानों ने दंगा कर दिया। वे आर्य समाज मन्दिर को नष्ट करना चाहते थे। अशफाक उस समय वहीं थे। वे दौड़कर घर गये और अपनी दुनाली बन्दूक तथा कारतूसों की पेटी लेकर आर्यसमाज की छत से दंगाइयों को ललकारा। उनका रौद्र रूप देखकर मुस्लिम दंगाई भाग गये।
इसके बाद बिस्मिल जी का उनके प्रति विश्वास दृढ़ हो गया। उन्होंने अशफाक को भी अपने क्रान्तिकारी दल में जोड़ लिया। काकोरी कांड के बाद वे राजस्थान में क्रान्तिकारी अर्जुन लाल सेठी के घर रहे। यहाँ उनका एक सम्बन्धी मिल गया। उसने गद्दारी कर उन्हें पकड़वा दिया। उनकी सजा तो पहले से ही तय थी; पर मुकदमे का नाटक पूरा किया गया। 19 दिसम्बर, 1927 को फैजाबाद जेल में उन्हें फाँसी दे दी गयी। शाहजहाँपुर के दलेल नगर मौहल्ले में उनकी समाधि बनी है।
अमर हुतात्मा ठाकुर रोशनसिंह
भारत के स्वाधीनता संग्राम में फाँसी पाकर अपने वंश को अमर कर देने वाले अमर हुतात्मा रोशनसिंह का जन्म शाहजहाँपुर (उ.प्र.) के खेड़ा नवादा ग्राम में 22 जनवरी, 1892 को एक सामान्य कृषक परिवार में हुआ था।वे साहसी तो थे ही; पर देशभक्ति की भावना भी उनमें कूट-कूट कर भरी थी। 1921 ई. में हुए असहयोग आन्दोलन में शाहजहाँपुर से जो लोग जेल गये, उनमें रोशनसिंह भी थे।रोशनसिंह को दो साल की जेल हुई थी। इस दौरान बरेली जेल में उनका परिचय मवाना (जिला मेरठ, उ.प्र.) के क्रान्तिकारी विष्णुशरण दुबलिश से हुआ। विष्णु जी के माध्यम से उनका परिचय देश के अन्य क्रांतिवीरों से हुआ। इनमें पंडित रामप्रसाद ‘बिस्मिल’ प्रमुख थे। 1923 ई. में प्रख्यात क्रान्तिकारी शचीन्द्रनाथ सान्याल जब संगठन के विस्तार के लिए शाहजहाँपुर आये, तो वे रोशनसिंह से भी मिले। काकोरी कांड से पूर्व बमरौली कांड में रोशनसिंह की महत्वपूर्ण भूमिका थी।नौ अगस्त, 1925 को लखनऊ-सहारनपुर यात्री गाड़ी को लखनऊ के पास काकोरी में रोककर सरकारी खजाना लूट लिया गया। यह शासन के मुँह पर खुला तमाचा था। यद्यपि इसमें रोशनसिंह शामिल नहीं थे; पर युवावस्था से ही क्रान्तिकारी गतिविधियों में सक्रिय होने के कारण उनका नाम पुलिस की फाइलों में बहुचर्चित था। अतः शासन ने उन्हें भी पकड़ लिया।
काकोरी कांड के लिए पंडित रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खाँ तथा राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी के साथ रोशनसिंह को भी फाँसी की सजा दी गयी। रोशनसिंह चूँकि इस कांड में शामिल नहीं थे, अतः उनके परिजनों तथा साथियों को विश्वास था कि उन्हें मृत्युदंड नहीं दिया जाएगा; पर निष्ठुर शासन ने उन्हें भी फाँसी की सजा दी। सजा मिलने पर रोशनसिंह का चेहरा खिल उठा। वे अपने साथियों की ओर देखकर हँसते हुए बोले, ‘‘क्यों, अकेले ही चले जाना चाहते थे ?’’ वहां उपस्थित सब लोगों की आँखें भीग गयीं; पर वे अपनी मस्ती में मस्त रहे। रोशनसिंह ने जेल में भी अपनी दिनचर्या खंडित नहीं होने दी। वे प्रतिदिन स्नान, ध्यान और व्यायाम करते थे। 19 दिसम्बर, 1927 का दिन फाँसी के लिए निर्धारित था। उस दिन भी उन्होंने यह सब किया। उनकी मानसिक दृढ़ता देखकर जेल अधिकारी हैरान थे। फाँसी के तख्ते पर चढ़कर उन्होंने प्रसन्न मन से वन्दे मातरम् का घोष तथा शान्ति मन्त्र का उच्चारण किया। इसके बाद उन्होंने फन्दा गले में डाल लिया। अगले ही क्षण उनकी आत्मा अनन्त आकाश में विलीन हो गयी।
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