गरुड़ जी और काग भूसुंडी जी का संवाद चल रहा है।
गरुड़ जी प्रश्न करते हैं,।
हैं कागभुशुण्डि जी आपने यह देह किस कारण से प्राप्त की?।
मुझे संक्षेप में बताने की कृपा करें।
*कारन कवन देह यह पाई तात सकल मोहि कहहु बुझाई।।*
मैंने शिवजी से ऐसा सुना है कि, महाप्रलय में भी तुम्हारा नाश नहीं होता है।
हालांकि शिवजी के वचन मिथ्या नहीं हो सकतें हैं।
फिर भी मेरे मन में कुछ संसय है।
*मुधा बचन नहिं ईस्वर कहई।*
*सोउ मोरें मन संसय अहई।।*
कागभुसुंडि जी सुना रहे हैं कि मेरे गुरुदेव की बड़ी महिमा रही। मैंने उनका अपमान किया।
किंतु उन्होंने मेरे हित के लिए भगवान शिव से प्रार्थना करके मुझे बचाया।
संत उदाहरण देते हैं कि किसी ने पानी से पूछा।
कि तुम सबको डुबो देते हो। लोहा इतना कठोर होता है ।
उसे भी तुम डुबो देते हो।
किंतु लकड़ी को क्यों नहीं डुबोते हो?
पानी ने उत्तर दिया।
भाई हम लकड़ी को कैसे डुबो सकते हैं ।
जिसे हमने ही सींच करके बड़ा किया है।
वह जैसा भी है हमारा है।
बस यही महिमा गुरुदेव की है। जिस शिष्य को गुरु जी ने पढ़ा लिखा कर दीक्षा देकर योग्य बनाया हो।
यदि गुरु उसको ही डूब जाने दे तो फिर उनकी शिक्षा का दीक्षा का क्या महत्व रहेगा।
काग भूसुंडी जी गरुड़ जी को सुना रहे हैं ।
कि गुरुदेव की कृपा से मुझे मेरे पिछले सारे जन्म याद थे ।
सर्प योनि से मुक्ति पाकर मेरा जन्म ब्राह्मण कुल में हुआ।
भुसुंडी गोत्र में मेरा जन्म हुआ।
मैंने पिछले जन्म में देख लिया था ।
कि पढ़ाई लिखाई करके मैं कुछ प्राप्त नहीं कर सका।
गुरुदेव की कृपा से भगवान के प्रति मन में भक्ति आ गई थी।अब तो बस एक ही इच्छा थी। भगवान के दर्शन हों जाए।
संत कहते हैं जिसके मन में भगवान की भक्ति बस जाती है भगवान का सगुण स्वरूप हृदय में विराजमान हो जाता है ।
फिर उसे कुछ भी अच्छा नहीं लगता है।
मेरा पढ़ने लिखने में मन नहीं लगता था।
बस यही सोचता था क्या करना है पढ़-लिखकर।
मेरे पिताजी मुझे पड़ा पड़ा कर हार गए।
*प्रौढ़ भएं मोहि पिता पढावा समझऊं सुनऊं गुनऊं नहिं भावा* किंतु मैं नहीं पढ़ सका।
मैं कुछ स्वीकार ही नहीं करता था।
*हारेउ पिता पढाइ पढ़ाई।।*
गरुड़ जी ने यहां प्रश्न किया।
पढ़ने में मन नहीं लगता था।
तो खेलने में तो मन लगता होगा?
कागभुसुंडि जी कहने लगे हां खेलने में तो मन लगता था।
तो खेल कौन सा खेलते थे?
काग भुसुंडी जी ने कहा।
कि मैं बालकों के साथ मिलकर खेल खेलता था।
और श्री रघुनाथ जी की सब लीलाएं किया करता था।
*करऊं सकल रघुनायक लीला।।*
विद्वान कहते हैं।
कि यह रामलीला का खेल कागभुशुण्डि जी के द्वारा ही आरंभ किया गया था।
कागभुशुण्डि जी आगे वर्णन करते हैं कि ,।
माता-पिता काल के वशीभूत हो गए।
मैं भगवान के भजन के लिए वन में चला गया।
*भए कालवस जब पितु माता।*
*मै बन गयऊं भजन जनत्राता।।*
मैं भगवान के दर्शन की इच्छा से घर से निकल गया।
और हर जगह घूमता फिरता संत महात्माओं के दर्शन करता रहा ।और मेरा एक ही प्रश्न रहता।
की भगवान के दर्शन मुझे कैसे प्राप्त होंगे।
भगवान कहां मिलेंगे,? कैसे मिलेंगे?
*बूझऊं तिन्हहि राम गुन गाहा।।*
मुझे भगवान के संबंध में बताने वाले बहुत लोग मिले।
लेकिन मिले ऐसे ही।
हर कोई कहता है भगवान कहां नहीं है ।
भगवान तो सब जगह हैं।
*ईस्वर सर्व भूतमय अहई।*
मुझे यह निर्गुण मत सुहाता नहीं था।
*निर्गुण मत नहिं मोहि सोहाई।।*
मेरी तो भगवान के सगुण रूप में प्रीति हो गई थी।
मैं तो भगवान के दर्शन चाहता था।
पानी से घी कीमती है।
किन्तु मछली के लिए तो जल ही सर्वोपरि है।
ज्ञान भक्ति से श्रेष्ठ हो सकता है।
किंतु मुझे तो भगवान का साकार रुप ही प्रिय था।
*सगुन ब्रह्म रति उर अधिकाई।।*
भगवान का सगुण स्वरुप हृदय में विराजमान था।
हर जगह महात्मा मुझे उपदेश करते।
भगवान सब जगह हैं।
तुम ही भगवान हो।
सब कोई मुझे इसी तरह का उपदेश करते ।
भगवान के बारे में जान लेना यह ज्ञान नहीं है।
भक्ति के द्वारा भगवान को प्रकट कर लेना यह ज्ञान है।
दहीं में घी है।
यह जान लेने से घी प्राप्त नहीं हो सकता है।
उसे प्राप्त करने की विधि करना पड़ेगी।
तब घी प्राप्त होगा।
एक संत जी उदाहरण देकर बताते हैं ।
कि यदि हम कहीं कार से जा रहे हो ।
और हमारी कार के पहिए की हवा निकल जाए।
हमें उस पहिए में हवा डलवाना है ।
अब हम किसी से पूंछें ।
भाई हवा कहां मिलेगी ।?
और कोई यह कहे की हवा,?।
हवा तो सब जगह है।
हवा कहां नहीं है ।
हम सब हवा में ही जी रहे हैं ।बिना हवा के तो हमारा जीवन हो ही नहीं सकता ।
तुम जो सांस ले रहे हो वह हवा ही तो है ।
हवा कहां नहीं है ।
यह शरीर पांच तत्वों से बना है।
इसमें एक गुण हवा का है।
हवा तुम्हारे भीतर ही है।
अब यदि लोग इस तरह का उत्तर देते हैं ।
तो क्या हमारी समस्या का समाधान हो जायेगा ?
हमारी समस्या का समाधान तो तब होगा।
जब कोई हमारी कार के पहिए में भौतिक यंत्र के माध्यम से हवा डाल दे ।
तब हमारी कार चलने लायक होगी।
बस वही स्थिति मेरे साथ हो रही थी।
भगवान है सब जगह हैं।
यह तो सब कोई कहता था। किंतु मेरे मन में तो भगवान को पाने की इच्छा थी।
मैं तो भगवान के दर्शन चाहता था ।
भगवान के सगुण स्वरुप की प्राप्ति को मुझे कोई मार्ग बताने वाला नहीं मिला।
घूमते-फिरते में लोमस ऋषि के आश्रम पर पहुंचा।
लोमस ऋषि बहुत बड़े सिद्ध महात्मा थे।
मैंने जाकर उनके चरणों में प्रणाम किया।
*मेरु सिखर बट छाया मुनि लोमस आसीन देखि चरन सिरु नायऊं बचन कहें अति दीन।।*
उन्होंने मुझे ज्ञान का उपदेश देना प्रारंभ किया ।
*लागे करन ब्रह्म उपदेशा।।*
लोमस ऋषि मुझे निर्गुण ब्रह्म की साधना और निर्गुण निराकार ब्रह्म की सारी विशेषताएं बताने लगे। मेरे मन में परमात्मा का साकार रूप बसा हुआ था।
मैं लोमस ऋषि की बातों का खंडन करता रहा।
वह बार-बार निर्गुण ब्रह्म की बातें करते ।
और मैं शगुन ब्रह्म की बातें करके उनकी बातों का खंडन करता रहा।
लोमश ऋषि ने बार-बार वही बातें दोहराई।
जो मैं सब जगह सुनता आया था।
लोमस ऋषि मुझसे कहते ।
सब जगह ब्रह्म की सत्ता है ।तुम्हारे अंदर भी ब्रह्म ही है ।
तुम भी ब्रह्म हो ।
संत कहते हैं।
ज्ञान की बातें करना अच्छी बात है ।
हर कोई कर भी लेता है ।
किंतु ज्ञान की स्थिति में रह पाना पड़ा कठिन है।
जब मैं गुरुदेव की बातों का बार-बार खंडन करने लगा।
उत्तर प्रति उत्तर मैं कीन्हा।
*मुनि तन भए क्रौध के चीन्हा।।*
तब उन्होंने कहा मूर्ख मैं तुम्हें निर्गुण ब्रह्म की बातें बता रहा हूं और तुम बार-बार मेरी बातों का खंडन कर रहे हो ।
अज्ञानी तुम समझ ही नहीं रहे हो जो लोमस ऋषि कुछ समय पहले तक मुझे ब्रह्म कहकर संबोधित कर रहे थे
कह रहे थे तुम ही ब्रह्म हो
तुम्हारे भीतर ही ब्रह्म है।
अब वही मुझे अज्ञानी मूर्ख और पता नहीं क्या-क्या कहने लगे।
जबकि इतने बड़े सिद्ध महात्मा थे।
लोमस ऋषि ने मुझे श्राप देते हुए कहा।
तुम चांडाल पक्षी कौवे की तरह बीच-बीच में बोलकर -कांव कांव कर रहे हो।
मेरी बात का खंडन कर रहे हो जाओ तुम कौवा हो जाओ।
मैंने गुरुदेव का वह श्राप स्वीकार किया ।
मुझे कौवे का रूप मिल गया।
अब मैं भुसुंडी ब्राह्मण से, काग भूसुंडी पक्षी हो गया।
मेरे मन में जरा भी दुःख नहीं हुआ।
जैसे ही गुरुदेव ने मुझे श्राप दिया मैं उड़कर चलने लगा।
गुरुदेव को बड़ा आश्चर्य हुआ।
उन्हें मुझ पर दया लगी।
उन्होंने मुझे वापस बुलाया।
और कहा भूसुंडी।
मैंने तुम्हें श्राप दिया कौवा बना दिया।
क्या तुम्हें दुख नहीं हुआ?
तुम तो सहज रूप से उड़ कर जाने लगे ।?
मैंने कहा।
गुरुदेव इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं है।
यह तो भगवान की कृपा है। भगवान शिव कहते हैं ।
है पार्वती जगत में ना कोई ज्ञानी है ना कोई मूर्ख है।
भगवान जिसको जैसा बना देता है।
वह वैसा हो जाता है ।
इसमें लोमस ऋषि का कोई दोष नहीं था।
कागभुशुण्डि जी, कहते हैं भगवान ने श्राप दिलवा कर एक तरह से मेरे प्रेम की परीक्षा ली थी।
*कृपा सिन्धु मुनि मति करि फेरी।*
*लीन्ही प्रेम परीक्षा मोरी।।*
कागभुशुण्डि जी लोमश ऋषि के प्रश्नों का बड़ी सहजता से उत्तर देते हैं।
*यह प्रसंग अगली पोस्ट में जय श्री राम।।*