संत एक उदाहरण के माध्यम से बताते हैं।
कि किस तरह काल कर्म और स्वभाव के कारण भगवान की यह माया जीव को प्रेरित करती है।
जिसके कारण वह भटकता रहता है।
एक अंधा व्यक्ति कोठरी के अंदर कैद है।
वह उस कोठरी से बाहर निकलना चाहता है।
किंतु निकल नहीं पाता है।
बाहर निकलने के लिए वह
दरवाजा खोजता है।
दीवार के सहारे सहारे वह उस कोठरी के चारों ओर घूमता रहता है ।
किंतु बाहर नहीं निकल पाता है। तभी एक महात्मा जी आते हैं। और पूछते हैं?
क्या चाहते हो?
वह अंधा व्यक्ति कहता है कि मैं इस कोठरी से बाहर निकलना चाहता हूं ।
किंतु मुझे दरवाजा नहीं मिल रहा है ।
महात्मा जी ने कहा भाई दरवाजा तो इसमें है।
तुम एक काम करो दीवार को हाथ लगाते लगाते चलते रहो। और जैसे ही दरवाजा आएगा तुम्हें पता लग जाएगा।
बाहर निकल आना।
इसमें परेशानी क्या है?
ऐसा कहकर महात्मा जी चले गए।
महात्मा जी के कहे अनुसार वह अंधा व्यक्ति दीवार को पकड कर चलता रहा।
किंतु बाहर नहीं निकल पाया।
शाम को महात्मा जी फिर आए तब देखा कि वह व्यक्ति उसी कोठरी के अंदर चक्कर लगा रहा है।
महात्मा जी ने पूछा?
तुम बाहर नहीं निकले?
वह कहने लगा बाबा मुझे दरवाजा मिल ही नहीं रहा है। महात्मा जी ने कहा चलो।
मैं देखता हूं तुम्हें दरवाजा क्यों नहीं मिल रहा है।
तुम जिस तरह दरवाजा तलाश रहे थे ।
उसी तरह अब भी तलाशते रहो।
मैं देखता हूं।
वह व्यक्ति फिर दीवार के सहारे सहारे दीवार को पकड़ कर चलने लगा ।
महात्मा जी ने देखा कि वह अंधा व्यक्ति।
जैसे ही दरवाजे के पास आता है उसे बड़े जोर की खुजली लगती है ।
और वह चलते चलते ही दीवार छोड़कर अपना सिर खुजाने लगता है ।
और चलता भी रहता है।
तब तक दरवाजा निकल जाता है और उसे फिर से दीवार मिलती है महात्मा जी ने कहा भाई दरवाजा तो तुम्हें मिला था ।
किंतु तुम दरवाजा मिलते ही अपना सिर खुजाने लगे।
तब तक दरवाजा निकल गया। इसलिए तुम यहां चक्कर लगा रहे हो ।
महात्मा जी ने कहा।
दोनों काम एक साथ नहीं हो सकते हैं।
या सिर खुजाना छोड़ दो य चलना छोड़ दो।
तभी तुम इस कैद से बाहर हो सकते हैं।
महात्मा जी के कहने का
आशय था ।
वह अंधा व्यक्ति कोई और नहीं बल्कि हम ही हैं।
हम उस अंधे व्यक्ति की भांति अन्य योनियों में भटकते रहते हैं।
यह अन्य योनियां दीवार की भांति है।
इनमें दरवाजा नहीं है।
और जैसे ही हमें यह मानव देह रूपी दरवाजा मिलता है ।
तब हमें भी खुजली लगती है। वासना की खुजली।
कामना पूर्ति की खुजली ।
यश प्रतिष्ठा की खुजली।
माया मोह की खुजली।
हम दरवाजा मिलते ही खुजाने लगते हैं।
मानव देह मिलते ही इसकी इच्छा पूर्ति में लग जाते हैं।
कामना पूर्ति की इच्छा जाग्रत हो जाती है।
और तब तक यह मानव देह रुपी दरवाजा हमें मिलता तो है, किंतु हम इससे बाहर नहीं निकल पाते है।
भजन नहीं कर पाते हैं।
फिर से हमें वह दीवार ही हाथ लगती है।
संत कहते हैं कि यदि इस कोठरी से बाहर निकलना है ।
तो एक चीज छोड़ना पड़ेगी।
यह वासना की कामना पूर्ति की खुजली का त्याग करना पड़ेगा
साधन धाम मोक्ष कर द्वारा।
पाइ न जेहिं पर लोक संवारा।।
यह मानव तन बढा दुर्लभ है।
यह मोक्ष का द्वार है।
इसके मिलने के पश्चात भी यदि, हम अपना परलोक नहीं सुधार पाए तो।
फिर यह जीव कई तरह के दुख पाता है।
सिर पटक पटक कर पछताता है ।
और काल कर्म और ईश्वर पर मिथ्या दोष लगाता है।
*सो परत्र दुख पावइ,सिर धुनि धुनि पछिताइ,कालहि कर्महि ईस्वरहिं,मिथ्या दोष लगाइ।।*
हम अपने मित्र रिश्तेदार बंधु बांधव, यहां तक की भगवान को भी दोषी ठहराने लगते हैं।
किस्मत को दोष देते हैं।
किंतु कभी यह नहीं सोचते कि हम भजन नहीं कर पाए।
यह उसी का परिणाम है।
कुछ लोग संतों का आश्रय पाकर भी भ्रमित रहते हैं।
जैसे कि हमारे शास्त्र ।
परमात्मा के दो रूपों का वर्णन करते हैं।
शगुण और निर्गुण।
संत कहते हैं यहां एक विडंबना है।
कुछ लोग ईश्वर को निराकार मानते हैं।
और कुछ लोग ईश्वर को साकार मानते हैं।
कोई कहता है भक्ति करो।
और कोई कहता है ज्ञान अर्जित करो।
इस साकार और निराकार के झंझट से बहुत लोग त्रस्त है।
एक संत जी के पास एक सज्जन गए ,और जाकर पूछा?
गुरुदेव यह बताइए परमात्मा के कौन से रूप को मानना चाहिए?
सगुण साकार रूप को या निराकार?
महात्मा जी ने बड़ा सुंदर उत्तर दिया।
परमात्मा कोई और नहीं तुम्हारे भीतर ही है ।
या ऐसा मान लो तुम ही परमात्मा हो।
तुम अपने आप को किस रुप में मानते हो?
यदि अपने को साकार मानते हो तो परमात्मा को भी साकार मानो
और यदि अपने को निराकार मानते हो तो परमात्मा को भी निराकार मानो।
अब अपने को कोई निराकार कैसे मान सकता है।
संत महात्मा साकार ब्रह्म और निराकार ब्रह्म ज्ञान और भक्ति की महिमा का बड़ा सुंदर वर्णन करते हैं।
जिसका वर्णन श्री गोस्वामीजी तुलसीदास जी महाराज ने उत्तर काण्ड में किया है ।
*यह प्रशंग अगली पोस्ट में।*
*जय श्री राम।।*🙏🚩