श्री रामचरितमानस के उत्तर काण्ड में श्री गोस्वामीजी तुलसीदास जी महाराज वर्णन करते हैं कि।
भगवान सब नगरवासियों और गुरु ब्राह्मणों को उपदेश करते हैं ।
इस प्रंशग की संत महात्मा बड़ी विस्तृत व्याख्या करते हैं।
कि जगत में जितनी भी योनियां है सब बंधनकारी है।
स्वतंत्र कोई नहीं हैं।
जीव अपने स्वभाव, माया, काल और कर्म के बंधन के कारण अन्य अन्य योनियों में जन्म लेता है।
माया के कारण यह जीव भटकता रहता है।
*फिरत सदा माया कर प्रेरा।*
*काल कर्म सुभाव गुन घेरा।।*
किसी को उसके कर्मानुसार कुत्ता बना दिया तो बना दिया ।
अब वह जीवन भर कुत्ता ही रहेगा।
किसी को बैल बना दिया तो बना दिया।
अब वह जीवन भर बैल ही रहेगा।
और कुछ बन ही नहीं सकता है।
किंतु मनुष्य को इस मनुष्य योनि में मनुष्य बनने की सुविधा है।
माया भी भगवान की है।
और कृपा भी भगवान की है।
भगवान की माया से केवल जीव को भगवान की कृपा ही बचा सकती है ।
अन्यथा कोई नहीं।
चौरासी लाख योनियों के चक्कर लगाने के बाद भगवान की कृपा के कारण उसे मानव देह मिलती है ।
और इस मानव देह के द्वारा,
संतों का सानिध्य पाकर सतसंग के माध्यम से वह मनुष्य बन सकता है।
जबकि यह सुविधा जीव को अन्य योनियों में नहीं है।
यहां तक कि देव योनि में भी यह सुविधा नहीं है।
देवता केवल भोग भोग सकते हैं।
कर्म बन्धन से छूटने की स्वतंत्रता देव योनि में भी नहीं है।
इसलिए इस मानव देह को श्रेष्ठ योनि माना गया है।
मनुष्य ,जन्म से मनुष्य नहीं होता है।
उसे संत के उपदेश के द्वारा सद्गुरु के द्वारा मनुष्य बनने का अवसर प्रदान किया जाता है।
जीवन हमें परमात्मा से मिलता है।
किंतु जीवन जीने की कला हमें महात्मा से ही मिलती है।
देवता मनुष्यों से भी अधिक सुखी हैं, श्रेष्ठ हैं ,क्योंकि स्वर्ग में है।
और स्वर्ग का सुख वैसा ही है। जैसे की बड़े-बड़े होटलों में सारी सुख सुविधा रहती है।
इतनी सुविधा एक साधारण मनुष्य को अपने घर में नहीं मिलती है।
किंतु घर के सुख और होटल के सुख में अंतर है।
होटल में मनुष्य रहता तो है।
और बड़े मौज से रहता है।
किंतु अपनी इच्छा से वह कुछ कर नहीं पाता है।
कर्म करने की स्वतंत्रता स्वर्ग में नहीं है।
और न ही कोई सत्संग प्रवचन होता है।
केवल वहां सुखों का भोग है।
और एक खास बात है।
होटल का सुख तब तक का है जब तक की जेब में पैसा हो।
जब पैसा खत्म, तो होटल की सुख सुविधा भी ख़त्म।
होटल वाले उसे एक पल भी वहां ठहरने नहीं देते हैं।
मृत्यु लोक में पैसे के बल पर होटल में ठहरा जाता है।
और स्वर्ग में पुण्यों के बल पर।
इसी तरह स्वर्ग का सुख है।
जब तक हमारे पुण्य रहते हैं। तब तक हम स्वर्ग में ठहर सकते हैं।
पुण्य समाप्त होते ही जीव को स्वर्ग से निष्कासित कर दिया जाता है।
फिर जीव मृत्यु लोक के चक्कर लगाता है।
इस मनुष्य योनि को दुर्लभ योनी इसलिए माना गया है कि।
, यह मोक्ष का दरवाजा है।
बाकी जीव जंतुओं की योनि एक दीवार की तरह है।
जिस तरह दीवार को पकड़ कर दीवार के सहारे सहारे जीव चक्कर तो लगाते रहता है ।
किंतु बिना दरवाजे के वह उस दीवार से बने हुए कमरे से बाहर नहीं निकल पाता है।
यह मनुष्य देही एक तरह का दरवाजा है।
इस दरवाजे से मनुष्य अपने सत्कर्मों से बंधन से मुक्त हो जाता है।
इस मनुष्य योनि में रहकर जीव अपना परलोक सुधार सकता है।
भगवान की भक्ति के माध्यम से मोक्ष को प्राप्त कर सकता है।
इस मानव देह में कर्म करने की स्वतंत्रता है।
मनुष्य का शरीर एक तरह से संगीत के साज की तरह है।
साज तो हमें मिल जाता है।
किंतु इस साज को सजाने की कला विद्या किसी गुरु से ही सीखना पड़ती है।
जब तक यह साज सुर में नहीं बजेगा तब तक इसकी कोई वैल्यू नहीं।
यदि हमारा यह साज बैसुरा बजने लगे।
तो लोग यही प्रार्थना करते हैं कि यह न बजे तो ही ठीक है।
हमारा मनुष्य रूपी यह साज सुर में तभी बज सकता है।
जब कोई इसे बजाने की कला सीख ले।
अन्यथा सब बेकार है।
कोई मूल्य नहीं हमारे इस नर तन की उपलब्धि का।
जैसे आये वैसे ही चले जाना है।
इसीलिए तो संत कहते हैं।
भजन बिन बावरे रे,
तूने विरथा जनम गवांया।।
जीवन तो हमें परमात्मा से मिल जाता है।
किंतु जीवन जीने की कला हमें महात्मा से मिलती है।
सद्गुरु से मिलती है।
इस मनुष्य देही में हमें मनुष्य बनना होता है।
इसलिए हमारे जीवन में सत्संग आवश्यक है।
सत्संग पाकर मानवता के गुण आने पर, वह मनुष्य कहलाने योग्य होता है।
भगवान कहते हैं।
इस शरीर को प्राप्त करने का उद्देश्य मनुष्य का भोग भोगने का नहीं होना चाहिए।
यह शरीर हमें विषय भोग के लिए नहीं मिला है।
एहि तन कर फल विषय न भाई।
गोस्वामी श्री तुलसीदास जी महाराज लिखते हैं कि, सुख तो स्वर्ग में भी बहुत थोड़ा सा है।
फिर भी मनुष्य के मन में स्वर्ग के सुख भोगने की लालसा रहती है।
अधिकांश मनुष्यौं का सद्कर्मों के द्वारा स्वर्ग की प्राप्ति उद्देश्य रहता है।
किन्तु वह यह नहीं जानता है कि
विषय वासना के भोग के लिए व्यक्ति अमृत के बदले विष लेना चाह रहा है।
यह मनुष्य शरीर भवसागर से तरने के लिए एक जहाज के समान है।
नर तनु भव बारिधि कहुं बेरों।।
क्या कारण है कि कुछ जानने वाले लोग भी, इस माया जाल में पड़ कर अपने जीवन को सफल नहीं बना पाते हैं।
संत एक नेत्रहीन सूरदास के उदाहरण के माध्यम से यह प्रशंग को समझाने का प्रयास करते हैं ।
*यह प्रसंग अगली पोस्ट में ।*
*जय श्री राम*🙏🚩