जय श्री राम।।
हनुमान जी वेदराज सुषेण को लंका में छोड़कर आए।
इधर राम जी ने लक्ष्मण जी से पूछा?
लक्ष्मण तुम्हें मेघनाथ का शक्ति बाण लगा ।
और वह वाण तुम्हें इसलिए लगा कि मेघनाथ ने जो वाण छोड़ा था। वह विभीषण के ऊपर छोड़ा था।
किंतु तुमने विभीषण को पीछे कर लिया।
और वह वाण स्वयं अपनी छाती पर झेला।
इसका क्या कारण है?
जबकि तुम्हारे विचार तो विभीषण जी से बिल्कुल मिलते ही नहीं हैं ।
समुद्र से प्रार्थना करने की बात आई थी ।
तब भी तुमने विभीषण जी की बात का विरोध किया था।
कहा था कि प्रार्थना करना यह तो आलसियों का काम है ।
और उस बहाने तुमने मुझे भी एक तरह से आलसी ही समझा था।
यहां तुलसीदास जी ने मानस में ऐसा नहीं लिखा है ।
किंतु कवितावली में इस प्रसंग को इसी तरह वर्णित किया गया है ।कि मेघनाथ ने वह वाण विभीषण जी पर चलाया था।
लक्ष्मण जी ने प्रभु श्री राम जी को उत्तर दिया।
प्रभु मुझे विभीषण जी से कोई लेना देना नहीं है ।
किंतु जब विभीषण जी पर मेघनाथ ने शक्तीवाण चलाया था।तब मैंने उन्हें अपने पीछे कर लिया।
उसका कारण यह रहा कि जब विभीषण जी आपकी शरण में आये थे।
तब सभी ने उनका विरोध किया था।
सुग्रीव जी ने तो और अधिक विरोध किया था।
फिर आपने कहा था।
कि जो मेरी शरण में आता है।
मैं उसे अपने प्राणों के समान रखता हूं।
बस यही कारण था।
मैं जानता हूं कि विभीषण जी मैं तुम्हारे प्राण बसते हैं।
और मेघनाथ का वह वाण, मैं समझता हूं कि विभीषण को नहीं बल्कि आपको ही लगने वाला था।
क्योंकि विभीषण के हृदय में आपके प्राण बसते हैं।
बस इसी कारण से मैंने उसे पीछे कर लिया ।
और वह वाण मैंने स्वयं अपनी छाती पर सहा।
मेरे होते हुए प्रभु आपके ऊपर कोई प्रहार करें।
यह मैं कैसे बर्दाश्त कर सकता हूं।
श्रीराम जी ने लक्ष्मण जी की बातें सुनीं तो प्रभु के नेत्र सजल हो गए।
आंखों में प्रेम आंसू भर आए ।राम जी ने लक्ष्मण जी को गले से लगाया।
उन्हें विश्राम दिया गया ।
और तुलसीदास जी ने रामायण प्रसंग को बड़े विधिवत ढंग से प्रस्तुत किया है ।
इस बार युद्ध भूमि में मेघनाथ नहीं आया ।
क्योंकि प्रभु जानते हैं।
कि मेघनाथ काम का स्वरूप है। और काम को तब तक नष्ट नहीं किया जा सकता।
जब तक अहंकार नष्ट नहीं होगा।कुम्भकरण अंहकार का स्वरूप है।
इसलिए रामजी कुंभकरण से युद्ध करने के लिए युद्ध भूमि में गए।
जब कुंभकरण युद्ध भूमि में आया तो सबसे पहले विभीषण जी कुंभकरण के सामने गए
और कहा भाई मैंने रावण के हित की बात उससे कही थी ।
किंतु उसने मुझे लात मारी।
इसी गलानी के कारण में उसे छोड़कर भगवान की शरण में आया हूं ।
कुंभकरण ने विभीषण से बड़ी अच्छी बात कही थी ।
भाई तू धन्य है।
तू निसाचर कुल में भूषण पैदा हुआ है ।
रावण तो काल के वशीभूत हो गया है।
अपने भले की बात भला वह कैसे मानता ।
और अब मैं भी काल के वसीभूत हूं। अब मुझे अपना पराया नहीं सूझ रहा है ।
तुम यहां से चले जाओ।
विभीषण जी चले गए। कुंभकरण ने श्री राम जी की सेना को भयभीत कर दिया।
स्थिति यह कर दी कि वानर सेना भगवान से करुण पुकार करने लगी।
सुग्रीव जी को तो कुंभकरण ने अपनी कांख में दवा लिया। कुंभकरण अहंकार स्वरूप है। और अहंकार से बचने का बस एक ही उपाय है ।
जो उपाय सुग्रीव जी ने अपनाया था ।
अपने आप को कुंभ करण की कोख में मरा हुआ मान लिया था ।जब कुंभकरण ने जब यह जाना कि यह मर चुका है ।
तब उसने उन्हें छोड़ दिया ।
संत कहते हैं।
अहंकार से बचने का बस एक यही उपाय है जो उपाय सुग्रीव जी ने अपनाया।
अहंकार तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड पायेगा।
अपने आप को निष्प्राण मान लो।
कुम्भकरन ने जैसे ही सुग्रीव जी को छोड़ा ।
उन्होंने बड़ी फुर्ती से कुम्भकरन के नाक कान काट दिए।
अब तो वह निसाचर और भयानक हो गया था।
वानर भालू भगवान को पुकारने लगे।
वानर सेना की करुण पुकार सुनकर भगवान ने कुंभकरण की भुजाएं काट दी ।
कुम्भकरन का वध कर दिया।
कुंभकरण का तेज भगवान में समा गया ।
इसके आगे प्रसंग अगली पोस्ट में।