जब रावण को यह समाचार मिला कि श्री राम जी ने समुद्र पर सेतु का निर्माण करके सागर को पार कर लिया है।
और वानर सेना सहित इस पार आ चुके है
तब रावण ने अपने मंत्रियों की एक सभा बुलाई ।
और मंत्रियों से कहा कि अब क्या किया जाए ?इस पर विचार करना चाहिए।?
*सभां आइ मंत्रिन्ह तेहि बूझा।*
*करब कवन बिधि रिपु सैं जूझा।।*
चापलूस मंत्री कहने लगे,आप बार बार क्यों पूंछ रहे हो।
*बार बार प्रभु पूछहु काहा।।?*
इसमें विचार करने की क्या बात है?
वानर भालू मनुष्य तो हमारा आहार है। हमारा भोजन है ।
*नर कपि भालु अहार हमारा।।*
हम इन्हें ऐसे ही चबा जाएंगे । आप चिंता न करें महाराज।
रावण की सभा में रावण का पुत्र प्रहस्त जो भगवत प्रेमी था।
राम जी की महिमा जानता था। वह बोला पिताश्री।
इन मूर्ख मंत्रियों की बात पर विश्वास न कीजिए ।
।यह सब आपके डर से आपकी झूठी प्रशंसा कर रहे हैं।
इनकी बातों से पूरा नहीं पड़ेगा।
प्रहस्थ ने उन मंत्रियों से कहा। क्यों रे मूर्खों।
जब उस एक बंदर ने आकर पूरी लंका जला गया। तब तुम कहां गए थे?
उस दिन तुमने उसे क्यों नहीं खा लिया? ।
क्या उस दिन तुम्हें भूख नहीं लगी थी ?या तुम्हारा पेट खराब था ?
*छुधा न रही तुम्हहि तब काहू।*
*जारत नगरु कस न धरि खाहू।*
बेकार की बातें कर रहे हो।
*सो भनु मनुज खाब हम भाई।।*
क्या यह सब इतना आसान है।?
गाल फुलाकर पागलों जैसी बातें कर रहे हो।?
*बचन कहहिं सब गाल फुलाई।।*
जब एक बंदर को पकड़ नहीं पाए ।तो इतनी विशाल वानर सेना को कैसे पकड़ कर खा जाओगे?अपने पुत्र प्रहस्थ की बातें रावण को अच्छी नहीं लगी।
रावण क्रोधित होता हुआ बोला। अरे मूर्ख यह बुद्धि तुझे किसने सिखाई। मेरे सामने दुश्मन की बढ़ाई कर रहा है।
*सुत सन कह दसकंठ रिसाई।*
*अस मति सठ केंहि तोहि सिखाई*
रावण ने उसे भला बुरा कहा ।
पिता के कठोर वचन सुनकर
प्रहस्त चला गया ।
*सुनि पितु गिरा परुष अति घोरा।*
*चला भवन कहा वचन कठोरा।।*
संध्या समय रावण ने अपना मन बहलाने के लिए त्रिकूट पर्वत पर ही नाच गान का अखाड़ा जमाया
ताकि लंका वासियों को यह भय न लगे कि रावण डर गया है।
*लंका सिखर उपर आगारा।*
*अति बिचित्र तंह होई अखारा।।*
इधर श्री राम जी ने विभीषण से कहा ।
विभीषण जी देखो दक्षिण दिशा में बादल घुमड़ रहे हैं।
और बिजली चमक रही हैं।
*देखि विभीषण दक्षिण आसा।*
*घन घमंड दामिनी बिलासा।।*
विभीषण जी ने कहा प्रभु।
न तो यह बादल हैं न ही बिजली चमक रही है।
यह जो दिखाई दे रहा है।
वह रावण ने काला छत्र सिर पर धारण कर रखा है।
जो बादलों का अहसास करा रहा है।
और यह प्रकाश मंदोदरी के कर्णफूल का है।जो बिजली की भांति चमक रहें हैं।
*छत्र मेघ डम्बर सिर धारी।*
*सोई जनु जलद घटा अति कारी।*
*मंदोदरी श्रवन ताटंका।*
*सोइ प्रभु जनु दामिनि दमंका।।*
श्री राम जी ने जब यह जाना ।
तब रावण का अभिमान दूर करने के लिए अपना एक वाण चलाया ।
और उस वाण से रावण के दसों मुकुट गिरा दिए।
और मंदोदरी का कर्णफूल गिर गया।
*छत्र मुकुट ताटंक तब,हते एक ही बान।।*
रामजी का वह वाण वापस तरकश में आ गया।
*अस कौतुक करि राम सर,प्रबिसेउ आइ निषंग।।*
न हवा चली न भूकंप आया न ही किसी ने अस्त्र-शस्त्र देखें।
*कंप न भूमि न मरुत बिसेषा।*
*अस्त्र-शस्त्र कछु नयन न देखा।।*
यह रहस्य कोई नहीं जान पाया। उधर यह सब देखकर रावण के दरबार में हलचल मच गई ।
कि बिना भूकंप के बिना आंधी तूफान के यह सब कैसे हो गया? मंदोदरी जान चुकी थी।
यह बहुत बड़ा अपशकुन हुआ है। मंदोदरी ने रावण को समझाया स्वामी।
*कंत राम बिरोध परिहरहू।*
*जानि मनुज जनि हठ मन धरहू।*
प्रभु से बैर त्याग दीजिए।
रामजी को मनुष्य समझने की भूल मत करिए।
राम जी स्वयं विष्णु के अवतार हैं। उन्होंने खेल खेल में ही सागर में पुल बना लिया है।
बाली जैसे महाबली को उन्होंने मारा है।
परशुराम जी जैसे महामुनि उन्हें प्रणाम करके गये है।
आप मेरी सलाह मानिए ।
ताकि मेरा सुहाग बना रहेगा। रावण अहंकार में डूबा हुआ था ।वह कहने लगा मैं तुम्हारी चतुराई जान चुका हूं।
तुम उस राम के बहाने मेरी प्रशंसा कर रही हो ।
*जानिऊं प्रिया तोरि चतुराई।*
*एहि बिधि कहहु मोरि प्रभुताई।।*
मौत के वशीभूत हुआ रावण मंदोदरी से कहता है।
तेरी बातें बड़ी रहस्य भरी है।
इसे केवल मेरे जैसा ज्ञानी ही समझ सकता है।
यह बातें सुनने में सुखद और भय से छुड़ाने वाली है।
*तव बतकही गूढ़ मृगलोचनि।*
*समुझत सुखद सुनत भय मोचनि*
मंदोदरी पश्चाताप करती है ।
कि मौत के वशीभूत होने के कारण इनकी बुद्धि में भ्रम हो गया है।
सीधी बात को भी स्वामी उल्टी समझ रहे हैं।
मैं समझाना क्या चाह रहीं हूं ।और यह समझ क्या रहे हैं।
इधर प्रातः काल श्री राम जी जागे ।और सभी मंत्रियों को बुलाकर विचार करने लगे।
*इहां प्रात जागे रघुराई।*
*पूछा मत सब सचिव बोलाई।।*
श्री राम जी कहते हैं।
हमें रावण को एक अवसर और देना चाहिए।
पहले हमने साधु के द्वारा इसे समझाने का प्रयास किया था। वह नहीं समझा है ।अब हम सिपाही के द्वारा इसे समझाने का प्रयास करेंगे।
हमारे सनातन धर्म की यह परंपरा रही है ।
कि पहले यदि कोई समझता हो तो शास्त्र के द्वारा समझाया जाए। यदि वह नहीं समझता है।
तो फिर उसके लिए हमारे पास शस्त्र हैं।
हम उसका प्रयोग करेंगे ।
हनुमान जी संत थे साधु थे ।
और अंगद जी सिपाही हैं। जामवंत जी ने श्री राम जी को यह सलाह दी ।
कि प्रभु इसके लिए वहां बाली पुत्र अंगद को भेजा जाए ।
यह बल और बुद्धि में निपुण है।
जामवंत जी का यह सुझाव सभी को अच्छा लगा।
*नीक मंत्र सब के मन भावा।।*
जामवंत जी की सलाह मानकर श्री राम जी ने अंगद जी को बुलाया और कहा।
*लंका जाहु तात मम कामा।।*
*मेरे काम से तुम लंका में जाओ।*
अंगद अब मैं तुम्हें ज्यादा समझा कर क्या कहूं ।
तुम बुद्धिमान हो ।शत्रु के सामने वैसा ही व्यवहार करना। जिससे हमारा काम बन जाए, और उसका कल्याण हो जाए।
*काजु हमार तासु हित होई।*
*रिपु सन करेहु बतकही सोई।।*
जब श्री राम जी ने अंगद जी को यह दायित्व दिया। तो अंगद जी मन में प्रसन्न होकर श्री राम जी की आज्ञा शिरोधार्य करके चले।
*बंदि चरन उर धरि प्रभुताई।*
*अंगद चलेउ सबहि सिरु नाई।।*
*इसके आगे का प्रश्गं अगली पोस्ट में जय श्री राम।।*