श्री राम जी ने विभीषण जी को अपनी शरण में ले लिया। शरण में लेने के पश्चात श्री राम जी ने
विभीषण जी को लंकेश कहकर संबोधित किया।
*कहु लंकेस सहित परिवारा।*
*कुसल कुठाहर बास तुम्हारा।।*
श्री राम जी ने विभीषण जी से लंकेस कहा।और पूंछा।
अपनी और अपने परिवार की कुशलता कहो।?
तुम्हारा निवास बुरी जगह पर है।
दिन-रात दुष्टों की मंडली में रहकर अपने धर्म का निर्वाह कैसे करते हो?
*खल मंडली बसहु दिन राती।*
*सखा धरम निबहइ केही भांति।*
अपने लिए लंकेश शब्द सुनकर विभीषण जी को मन में संकोच हुआ।
विभीषण जी जानते हैं। कि प्रभु अंतर्यामी हैं।
मेरे मन के भाव को जान चुके हैं इसीलिए मुझे लंकेश कहा है।
क्योंकि,जब मैं लंका से चल कर आ रहा था। तब मैंने लंकेश होने का सपना देखा था।
और यह बात श्री राम जी जान चुके है ।
अब इनसे मन की बात छुपाना ठीक नहीं है।
विभीषण जी ने राम जी से कहा प्रभु। जब आपने मेरी यह चोरी पकड़ ही ली है।
तो अब मैं अपने भाव और स्पष्ट कर देना चाहता हूं ।
आपने मुझे लंकेश कहा है।
मैं जानता हूं। क्योंकि
मेरे मन में यह विचार आया था।
जब मैं समुद्र के मार्ग से चलकर आपके पास आ रहा था।तब क्षणिक कल्पना मेरे मन में आईं थीं।
इसलिए आपने मुझे लंकेश कहा है। मुझे क्षमा करो स्वामी।
लंकेश होने की इच्छा मेरी पहले थी अब नहीं है ।
अब तो मैं केवल आपके चरणों का ही आश्रय पाना चाहता हूं। मुझे केवल आपकी भक्ति ही चाहिए।
मेरी जो लंकेश होने की इच्छा थी वह आपके चरणों के दर्शन के पश्चात मेरी मन रूपी सरिता में बह गई है।
*उर कछु प्रथम बासना रही।*
*प्रभु पद प्रीति सरित सो बही।।*
अब मेरी इच्छा नहीं है।
है कृपालु अब तो मुझे केवल शिवजी को प्रिय लगने वाली आपकी वह भक्ति दे दीजिए।
*अब कृपाल निज भगति पावनी।*
*देहु सदा सिव मन भावनी।।*
रामजी ने कहा ।कि जब मनुष्य की इच्छा होती है। तब मेरी इच्छा उसे कुछ देने की नहीं होती है। और जब मनुष्य अपने मन से इच्छाओं का त्याग कर देता है। तब उसे देने की मेरी इच्छा होती है। तुम्हारे मन में अब राजा बनने की इच्छा नहीं है।
किंतु अब मेरे मन में तुम्हें राजा बनाने की इच्छा है।
तुम कह रहे हो कि मेरी राजा बनने की इच्छा तो आपके चरणों के दर्शन के पश्चात मन रूपी सरिता में बह गई है ।
तो सरिता तो सब जाकर समुद्र में ही मिलती है।
तुम्हारी इच्छा भी बहकर समुद्र में ही गई होंगी।
चलो समुद्र से जल मंगाकर तुम्हारी इच्छाओं का वापस लाया जाए।
*मांगा तुरत सिंधु कर नीरा।।*
प्रभु श्री रामजी ने समुद्र का जल मंगाकर विभीषण का राजतिलक कर दिया ।
तिलक होते ही आकास से देवताओं ने पुष्प वर्षा की।
*अस कहि राम तिलक तेहि सारा।*
*सुमन बृष्टि नभ भई अपारा।।*
विभीषण जी को श्री राम जी ने लंका का राजा बना दिया।
किसी ने राम जी से कहा।
प्रभु आपने यह क्या किया ? अभी तो रावण मरा ही नहीं है।
मरने की छोड़ो।
अभी उस पर विजय पाना ही बाकी है ।
और आपने विभीषण जी को राजा बना दिया है।
यदि विभीषण की तरह रावण भी अपना अभिमान छोड़कर आप की शरण में आ गया तब क्या करोगे?
क्या विभीषण जी से राज्य वापस लोगे?
भगवान ने कहा नहीं ।
मैंने लंका का राजा विभीषण को बना दिया है।
और अब लंका का राजा विभीषण ही रहेगा।
पहली बात तो रावण मेरी शरण में आयगा नहीं।
क्योंकि उसे अभिमान ही इतना है ।और यदि फिर भी यदि वह मेरी शरण में आ जाता है।
तो मैं उसे अयोध्या का राज्य दे दूंगा अभी हम दो भाई वनवास में घूम रहे हैं।
फिर चारों भाई वनवास में घूमेंगे ।रघुकुल की रीत सदा से चली आ रही है।
चाहे प्राण जाए पर प्रण झूठा नहीं होगा।
इस तरह रामजी ने विभीषण का राजतिलक किया।
जो सम्पदा भगवान शिव ने रावण के दससीस बलि देने पर उसे दी थी।वह सम्पदा भगवान श्री राम जी ने
सकुचते हुए विभीषण जी को दी।
जो संपति सिव रावनहि,
*दीन्ह दिएं दस माथ,*
*सोइ संपदा बिभीषनहि,*
*सकुचि दीन्ह रघुनाथ।।*
अब श्री राम जी वानर राज सुग्रीव और लंका पति विभीषण जी से पूछते हैं ।?
बताओ समुद्र किस विधि से पार किया जाए ।
*सुनु कपीस लंकापति बीरा।*
*केहि बिधि तरिअ जलधि गंभीरा।*
इसमें अनेक जाति के मगर सांप मछली भरे हुए हैं।
अर्थात समुद्र को पार करना बड़ा कठिन है।
*संकुल मकर उरग झस जाती।*
*अति अगाध दुस्तर सब भांति।।*
विभीषण जी ने कहा प्रभु ।
वैसे तो आपका एक ही वाण करोड़ों समुद्र को सोख सकता हैं किन्तु नीति ऐसी कहीं गई है कि पहले समुद्र से विनती की जाए ।
*बिनय करिअ सागर सन जाई।।*
*यह प्रशंग अगली पोस्ट में जय श्री राम।।*🏹🚩