भगवान श्री राम जी हनुमान जी से बोले।
अच्छा तो हनुमान जी तुम मेरे द्वारा दी हुई मुद्रिका लेकर गए और समुद्र लांघ गए ।
हनुमान जी बोले नहीं प्रभु। मुद्रिका लेकर मैं नहीं गया । जिसमें मुद्रिका लेकर तो गया ही नहीं ।
राम जी ने कहा हनुमान। तुम नहीं गए थे मुद्रिका लेकर?
तो कौन गया था?
हनुमान जी बोले प्रभु मेरा कहां सामर्थ जो मुद्रिका लेकर मैं समुद्र लांघ सकता था।
मुझे तो आपकी वह मुद्रिका वहां लेकर गई थी।
भगवान बोले अच्छा चलो मान लिया।
मुद्रिका तुम्हें लेकर गई थी तुम चले गए । और वह मुद्रिका तो तुम श्री जानकी जी को दे आए ।फिर वहां से लौटकर कैसे आए?
हनुमान जी ने कहा प्रभु जिस तरह आपकी मुद्रिका के सहारे मैं लंका में चला गया ।तो उधर से माता जानकी के द्वारा आपको देने के लिए जो चूड़ामणि लेकर आया ।उस चूड़ामणि ने मुझे वापस यहां ले आई।
भगवान हनुमान जी की बुद्धिमत्ता भरी वाणी सुनकर प्रसन्न हुए।
श्री राम जी कहने लगे हनुमान ।तुमने बहुत साहस भरा कार्य किया लंका जला डाली।
किंतु एक बात बताओ लंका जलाने के लिए तुम आग कहां से लाए ?
हनुमान जी बोले प्रभु पहली बात तो यह है कि मैंने लंका जलाई ही नहीं।
और दूसरी बात यह है कि आग तो वहां पहले से ही लगी हुई थी। मैंने तो केवल आग का तबादला किया।
श्री राम जी बोले यदि लंका तुमने नहीं जलाई तो किसने जलाई?
और आग पहले से कहां लगी थी?
हनुमान जी बोले आग श्री सीता जी के हृदय में लगी हुई थी ।
सीता जी के मन में लगी थी।
उस आग को मैंने रावण के भवन में लगा दी ।
बस केवल इतना किया।
श्री राम जी बोले हनुमान लंका जलाने में तुम्हारा भी तो कुछ लगा होगा?
हनुमान जी बोले प्रभु, अत्याचारियों को जलाने में अपना कुछ नहीं लगता है ।
उनके द्वारा एकत्रित किया गया सामान ही उन्हें नष्ट कर देता है। घी भी लंका वासियों का था, तेल भी उन्हीं का कपड़े भी उन्हीं के सब कुछ उन्हीं का था ।
यह सुनकर भगवान प्रसन्न हुए। श्री राम जी ने पूछा हनुमान ।
तुम कह रहे हो कि तुमने लंका नहीं जलाई ?
तो फिर लंका जलाई किसने?
हनुमान जी ने कहा प्रभु लंका रावण के पाप ने जलाई ।
सीता जी के संताप ने लंका जलाई।
और आपके प्रताप ने लंका जलाई।
राम जी मुस्कुराते हुए बोले। हनुमान आज तो तुम बिल्कुल कवियों की वाणी बोल रहे हो। हनुमान जी ने कहा जो सत्य है मैं वही कह रहा हूं प्रभु ।
श्री राम जी ने हनुमान जी को हृदय से लगा लिया। नेत्रों से जल बहने लगा ।
हनुमान जी ने अवसर उचित समझा ।मन में विचार किया यही अवसर है , सही संदेश देने का। और हनुमान जी ने अपना संदेश श्री राम जी को इस तरह सुनाया। कि श्री सीता जी के नेत्रों से बहता हुआ जल रुक गया। और श्री राम जी के नेत्रों से जल बहने लगा। हनुमान जी ने कहा प्रभु।
मैंने तो सुना है कि आपका प्रत्येक कल्प में अवतार होता है।
*तत्व कल्प तरु प्रभु अवतरहुं।*
किंतु आपका अवतार हो ही नहीं रहा है। फिर आपकी मर्यादा का क्या होगा?
श्री राम जी ने कहा हनुमान इसमें कहां गड़बड़ी है?
मेरा अवतार तो हरकल्प में हो रहा है
हनुमान जी ने कहा नहीं प्रभु आपका अवतार नहीं हो रहा है। प्रभु, सीता जी का एक-एक पल एक-एक कल्प के समान बीत रहा है।
*निमिष निमिष करुणा यतन।*
*जाहि कल्प सम बीति।*
और आपका अवतार नहीं हो रहा है।
यह सुनकर राम जी के नेत्र में जल भर आया।
हनुमान जी ने कहा प्रभु सीता जी के प्राणों की रक्षा आप नहीं कर रहे हो ।
यह तो श्री सीता जी की कृपा समझो जो आपके नाम की मर्यादा को मिटने देना नहीं चाहती हैं।
श्री सीता जी की रक्षा तो आपका नाम कर रहा है।
यह एक तरह से सीता जी का आपके ऊपर उपकार है ।
माता जानकी नहीं चाहती कि आपका नाम बदनाम हो जाए।
इसलिए इतने संकट सहते हुए भी अपनी देह का त्याग नहीं कर रही है।
यह सुनकर तो भगवान का हृदय कुंठित हो गया।
हनुमान जी श्री राम जी के चरणों में गिर गए।
भगवान बोले हनुमान तुम्हारा स्थान चरणों में नहीं मेरे हृदय में है ।
हनुमान जी बोले। प्रभु चरणों में ही ठीक हूं।
श्री राम जी ने कहा हनुमान मैंने तो सुना है कि आप ज्ञानी हो? फिर चरण और हृदय में भेद क्यों समझते हो?
ज्ञानियों की दृष्टि में चरण और हृदय में कोई भेद नहीं होता है। हनुमान जी ने कहा हां प्रभु आप सत्य कह रहे हो।
मैं ज्ञानी हूं इसीलिए तो चरण और हृदय में भेद नहीं रख रहा हूं ।इसलिए तो कह रहा हूं की चरण में ही ठीक हूं
भगवान बोले हनुमान चरणों में तो आप जब पहली बार हमसे पंपापुर में मिले थे ।तब भी गिरे थे।
किन्तु तब मैं और अब में अन्तर क्यों है।
जब पहली बार गिरे थे तब तुमने हमारे चरण पकड़े थे ।
और इस बार गिरे हो तो चरण नहीं पकड़े क्या कारण है? हनुमान जी ने कहा प्रभु कारण है जब मैं पहले आपके चरणों में गिरा था तब उस वक्त मैं आपका सेवक था । और सेवक को तो स्वामी के चरण पकड़ना ही चाहिए। इसलिए मैंने आपके चरण पकड़े थे।
तब आपने भी मुझे सुत नहीं कहा था। व्यंग्य ही किया था।
*कहहु विप्र निज कथा बुझाई।*
और अब मैं आपका सुत हो गया हूं । अब मुझे चरण पकड़ने की आवश्यकता नहीं है। पुत्र तो पिता के भरोसे रहता है।अब आप जानो।
लंका में भी मैं आपका सेवक बनकर गया था।
किंतु जब माता ने मुझे पुत्र स्वीकार किया ।तब से मैं आपका पुत्र हो गया हूं ।
और जब माता की कृपा हो जाती है ।तब पिता की कृपा तो होना ही है ।मैंने माता से पूछा था? कि क्या भगवान श्री राम मुझे पुत्र रूप में स्वीकार करेंगे? तब माता ने मुझे आशीर्वाद दिया ।
और कहा ।
*करहूं सदा रघुनायक छोहू ।*
प्रभु हुआ भी वैसा ही।
जब मैं आपके पास संदेश लेकर आया। तब आपने मुझे सुत कह कर संबोधित किया।
*सुनु सुत तोहि उऋण में नाहीं।।*
पुत्र तो केवल गिरना जानता है संभालने की जिम्मेदारी -पिता की होती है ।
राम जी ने कहा हनुमान तुम हमें सुग्रीव जी के पास लेकर गए थे तब तो हमें कंधे पर बैठा कर ले गए थे ।
हनुमान जी ने कहा प्रभु तब मैं सेवक था। और सेवक का यह धर्म बनता है स्वामी की सेवा करें। स्वामी को संभाले।
किंतु अब मैं आपका पुत्र हो गया हूं ।
और पुत्र होने के पश्चात यह जिम्मेदारी -पिता की होती है ।
पुत्र का काम तो केवल पिता के चरणों में लेटना होता है।
राम जी बार-बार हनुमान जी को उठाना चाह रहे हैं ।और हनुमान जी उठ नहीं रहे हैं।
हनुमान जी बोले प्रभु ।
कोई किसी की प्रशंसा करें तो उसे अभिमान हो जाता है ।
और जिसे अभिमान हो जाता है उसे तो गिरना ही पड़ता है। इसलिए आपने मेरी प्रशंसा की तो मुझे तो गिरना ही था।
किंतु मैं ऐसा समझता हूं की जो आपके चरणों में गिर जाता है फिर उसे कहीं और गिरने की आवश्यकता नहीं होती है।
श्री राम जी ने हनुमान जी को उठाकर हृदय से लगा लिया।
भगवान ने आदेश किया कि अब विलंब न किया जाए ।
अति शीघ्र चलने की तैयारी की जाए।
सुग्रीव जी ने सारी वानर सेना को बुलाया।
और लंका की और प्रस्थान किया।
जैसे ही श्री राम जी अपनी वानर सेना के साथ लंका की और चले।
उधर श्री जानकी जी का वाम अंग फड़कने लगा।शुभ शकुन होने लगे।
और लंका में रावण के यहां अब अपशकुन होने लगे।
सारी वानर सेना सहित भगवान समुद्र के किनारे जाकर ठहर गए ।
इसके आगे का प्रसंग अगले पोस्ट में🏹🚩 जय श्री राम।।🙏🙏