जिस तरह रघुनाथ जी का वाण चलता है उसी तरह हनुमान जी
आकाश मार्ग से समुद्र लांघ कर जा रहे थे।
जिमि अमोघ रघुपति कर बाना।
एही भांति चलेऊ हनुमाना।।
तब समुद्र ने देखा रघुनाथ जी के दूत हनुमान जी राम जी के कार्य के लिए जा रहे हैं। तो उन्होंने मैनाक पर्वत से कहा, तुम हनुमान जी को थोड़ा विश्राम दो।
जलनिधि रघुपति दूत बिचारी।
तैं मैनाक होहि श्रमहारी।।
विपत्ति में इन्होंने तुम्हारी सहायता की थी, ।आज तुम इन्हें विश्राम देकर इनकी सहायता करो। पौराणिक कथाओं के अनुसार पहले पर्वत भी उड़ा करते थे। पर्वतों के भी पंख हुआ करते थे। उड़कर जहां इनकी इच्छा होती वहां बैठ जाते थे। ब्रह्मा जी बड़े परेशान थे। वह निर्माण करते और पर्वत उड़कर उनके द्वारा किए गए निर्माण के ऊपर बैठकर उन्हें नष्ट कर देते थे। ब्रह्मा जी ने इंद्र देवता से कहा कि, मैं इन पर्वतों से बड़ा परेशान हूं। तुम इनके पंख काट दो। ताकि यह एक स्थान पर स्थिर रहे। ब्रह्मा जी की आज्ञा मानकर इंद्र देवता ने, सभी पर्वतों के पंख काट दिए। और वह एक स्थान पर स्थिर हो गए। मैनाक पर्वत जो सोने का बना हुआ है। उसके आज भी पंख हैं। उसने विचार किया कि मैं छुप जाता हूं। तो पंख कटने से बच जाएंगे। किंतु छुपू कहां,? फिर विचार आया कि, समुद्र के भीतर बहुत जगह है। मैं वहां छुप सकता हूं ।समुद्र से आग्रह किया तो समुद्र ने कहा हां छुप सकते हो तो छुप जाओ ।जब मैनाक पर्वत समुद्र में छुपने के लिए जा रहा था। तो लहरों ने उसे स्थान नहीं दिया। मैनाक ने समुद्र से कहा कि मुझे प्रवेश नहीं मिल रहा है। समुद्र ने कहा मैं क्या कर सकता हूं। मैं तो तुम्हें स्थान देने को तैयार हूं। किंतु लहरें तुम्हें नहीं जाने दे रही है ।उसमें मैं कुछ नहीं कर सकता हूं । हां इतना है, पवन देव से विनती करो ।शायद वह तुम्हारी मदद करेंगे ।मैंनाक पर्वत ने पवन देवता से विनती की। तब पवन ने अपने दबाव से लहरों पर दवाब बनाया। मैनाक पर्वत को भीतर जाने का रास्ता दिया ।इस तरह मैनाक पर्वत सुरक्षित रह गया था। समुद्र ने कहा कि पवन देव का तुम्हारे पर उपकार है ।आज तुम् इन्हें विश्राम देकर इनकी सहायता करो हनुमान जी स्वयं पवनदेव के स्वरूप हैं।मैनाक पर्वत समुद्र से बाहर निकला ।और हनुमान जी से थोड़ा विश्राम करने का आग्रह करने लगा।
किंतु हनुमान जी ने मैनाक पर्वत को स्पर्श किया ।और कहा कि जब तक राम जी का कार्य पूर्ण नहीं होता। मुझे विश्राम नहीं है।
राम काज कीन्हे बिनु
मोहि कहां विश्राम।।
इस तरह हनुमान जी मेनाक पर्वत को प्रणाम करते हुए चल दिए ।
देवताओं को विश्वास नहीं हो रहा था कि, क्या हनुमान जी राम जी का कार्य पूर्ण कर पायेंगे?
जहां कहीं संसय का प्रशंग आया है, वहां सारे देवता एकत्रित होकर मंत्रणा करने लगते हैं। चाहे शिवजी की समाधि भंग कराना हो,चाहे राम जी का राज्याभिषेक रुकवाना हो,। भरत जी रामजी को मनाने गए तब भी देवता डर गये थे। कि ऐसा न हो भरत जी के प्रेम को देखकर रामजी वनवास से लोट आएं।और हमारा काम बिगड़ जाए।उस समय भी सारे देवता मिलकर गुरु वृहस्पति जी के पास गए थे।और गुरु वृहस्पति जी से कहा था कि,कुछ ऐसा छल कपट कीजिए जिससे रामजी और भरत जी का मिलन ही ना होने पाये। नहीं तो हमारा काम बिगड़ जायेगा।
गोस्वामी जी श्री तुलसीदास जी महाराज ने मानस प्रशंग में देवताओं पर अनेक जगह व्यंग्यात्मक टिप्पणी की है।
गोस्वामी जी का आशय है कि ऐसा नहीं है कि मानवीय दुर्बलता का यह दोष केवल मनुष्यों में ही है।यह दोष तो देवताओं में भी था।
हनुमान जी की परीक्षा लेने के लिए देवताओं ने सर्पों की माता को राक्षसी बनाकर भेजा।
सुरसा नाम की उस राक्षसी ने हनुमान जी से कहा कि आज देवताओं ने मेरे लिए आहार भेजा है ।
आजु सुरन्ह मोहि दीन्ह अहारा।।
हनुमान जी ने कहा माता। मैं राम जी का कार्य पूर्ण करके आ जाऊं। श्री सीता जी के समाचार रामजी तक पहुंचा दूं फिर तुम्हें मुझे खा लेना।
सुरसा किसी भी तरह से माऩने को तैयार नहीं थी। उसने हनुमान जी के सारे प्रयास विफल कर दिए।
किसी भी तरह जाने नहीं दिया।
कवनेहुं जतन देइ नहीं जाना।।
हनुमान जी ने कहा ठीक है खा लो। राक्षसी ने जैसे ही अपना मुंह खोला। हनुमान जी ने उस से दुगने आकार का अपना रूप बना लिया। सुरसा अपना मुंह बड़ाती गई,। हनुमान जी भी अपना रूप बढ़ाते गए। उसने सो योजन का अपना मुंह बढ़ाया। हनुमान जी दो सौ योजन के हो गए। उसने 400 योजन का अपना मुंह खोला। चाहते तो हनुमान जी 800 योजन के हो जाते । किंतु हनुमान जी ज्ञानिनामग्रगण्यम् है। जानते थे कि,ऐसे तो यह कथा समाप्त ही नहीं होगी। इसलिए हनुमान जी तुरंत छोटे से बन गए, ।और सुरसा राक्षसी के मुंह में प्रवेश करके तुरंत बाहर निकल आए। स्वाभाविक बात है कि जब सुरसा ने, अपने मुंह का 400 योजन का विस्तार किया था। इतनी जल्दी वह अपना मुंह बंद तो कर नहीं सकती थी। कम से कम घंटा दो घंटा तो लग ही जाता। हनुमान जी तुरंत बाहर आ गए। सुरसा ने हनुमान जी से कहा कि तुम बल और बुद्धि में निपुण हो। सुरसा ने हनुमान जी को बल और बुद्धि में निपुण इसलिए कहा कि। जब हनुमान जी ने अपना रूप बडाया था। वह सुरसा ने देखा था। और किस तरह छोटा रूप बनाकर तुरंत बाहर आ गए वह भी उस राक्षसी ने देखा था। इसीलिए उसने कहा कि तुम बल और बुद्धि में निपुण हो। देवताओं ने मुझे तुम्हारी परीक्षा लेने के लिए भेजा था। तुम राम जी का संपूर्ण कार्य करके आओगे।
राम काजु सब करिहहु।
तुम बल बुद्धि निधान।।
इस तरह हनुमान जी वहां से विदा हुए।
इसके आगे का प्रसंग अगले पोस्ट में जय श्री राम।